नई दिल्ली [अनंत विजय]। वेब सीरीज की स्वच्छंद दुनिया में एक नए सीरियल का पदार्पण हुआ है, नाम है पाताल लोक। ये वेब सीरीज जिस प्लेटफॉर्म पर दिखाए जाते हैं, वो प्लेटफॉर्म ही स्वच्छंद हैं तो जाहिर सी बात है इन वेब सीरीज में स्वच्छंदता होगी ही। जब कहीं से किसी प्रकार का बंधन नहीं होता और किसी प्रकार का कोई उत्तरदायित्व नहीं होता तो बहुधा यह स्वच्छंदता अराजकता में बदल जाती है।

वेब सीरीज की दुनिया को देखने के बाद यह लग रहा है कि यह दुनिया स्वच्छंदता से स्वायत्तता की ओर न बढ़कर स्वच्छंदता से अराजकता की ओर बढ़ने के लिए व्यग्र है। वेब सीरीज पर दिखाए जाने वाले कंटेंट को लेकर कई बार चर्चा हो चुकी है। इस स्तंभ में ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म (ओटीटी) पर दिखाए जाने वाले कई वेब सीरीज में दिखाए गए भयंकर हिंसा, जुगुप्साजनक यौनिक प्रसंग के अलावा समाज को बांटने वाले कंटेंट को रेखांकित किया जा चुका है।

अमेजन प्राइम पर वेब सीरीज पाताल लोक इन दिनों काफी चर्चित हो रहा है। इस वेब सीरीज की प्रोड्यूसर फिल्म अभिनेत्री अनुष्का शर्मा हैं और कहानी लिखी है सुदीप शर्मा और तीन अन्य लेखकों ने मिलकर। इस वेब सीरीज के कंटेंट पर बाद में आते हैं, पहले बात कर लेते हैं कहानी की।  इस वेब सीरीज की जो कहानी है वह पत्रकार तरुण तेजपाल के उपन्यास ‘द स्टोरी ऑफ माई एसेसिन्स’पर बनाई गई प्रतीत होती है, क्योंकि कहानी के प्लॉट से लेकर कुछ पात्रों के नाम और काम दोनों में समानता दिखाई देती है।

अगर ऐसा है तो अब तक तरुण तेजपाल को इस वेब सीरीज पर अपनी साहित्यिक कृति की चोरी का आरोप लगा देना चाहिए था, क्योंकि उनको कहीं क्रेडिट नहीं दिया गया है। साहित्यिक हलके में ऐसी चर्चा  है कि तेजपाल की मर्जी से ऐसा हुआ है। सच्चाई या तो तेजपाल बता सकते हैं या फिर सुदीप शर्मा। एक स्टिंग ऑपरेशन के बाद तेजपाल की हत्या की साजिश की बात सामने आई थी और दिल्ली पुलिस की चार्जशीट में बिहार के एक बाहुबली नेता का नाम भी आया था। 

इस बात की खूब चर्चा हुई थी कि दुबई में बैठे एक माफिया डॉन ने तेजपाल की सुपारी दी थी। उस वक्त की चर्चा में दोनों चरित्र मुसलमान थे, लेकिन अगर कहानी तरुण तेजपाल के उपन्यास से प्रेरित है तो वेब सीरीज में दोनों को बदल दिया गया है, न तो सुपारी लेने वाला और न ही देने वाला मुसलमान है। यह कलात्मक सृजनात्मकता की कैसी स्वतंत्रता है इस पर देशव्यापी बहस की आवश्यकता है। 

अब जब पाताल लोक रिलीज हुई तो एक बार फिर से इन बातों की चर्चा शुरू हो जाना स्वाभाविक है। कहानी चाहे तरुण तेजपाल के उपन्यास की हो, उससे प्रेरित हो या फिर सुदीप ने खुद लिखी हो, इतना तो तय है कि इस कहानी के पीछे मंशा उस नैरेटिव को मजबूती देने की है जिसमें भगवा झंडा लेकर चलने वाले मॉब लिंचिंग

करते हैं। 

अपराधी अपराध करने के बाद  मंदिर में जाकर शरण लेते हैं, आदि आदि। यह कहानी एक टेलीविजन संपादक  की असफल हत्या के प्रयास की कहानी और  हत्यारों की गिरफ्तारी को लेकर शुरू होती  है। कहानी दिल्ली की जमीन पर चलती है। जिस न्यूज चैनल संपादक की हत्या का प्लॉट दिखाया गया है वह बेहद लोकप्रिय है। न्यूज चैनल के संपादक का उसके सहकर्मी के साथ इश्क और शारीरिक संबंध दोनों दिखाए गए हैं। परोक्ष रूप से किसी लड़की की अपनी देह का उपयोग कर करियर में आगे बढ़ने की बात को बल देने की हद तक।

यहां तो संपादक और उसकी सहयोगी के बीच चलने वाले संबंध बेहद सहजता के साथ दिखा दिए गए हैं, लेकिन तेजपाल की असल जिंदगी में तो उन पर उनकी एक सहकर्मी लड़की ने बेहद गंभीर आरोप लगाए थे जिसके बाद 

वह गिरफ्तार भी हुए थे और जेल में लंबे समय तक रहना भी पड़ा था। पूरी कहानी  में टीवी चैनल को लेकर जो कहानी बुनी गई है वह बहुत हद तक कमजोर सी लगती  है और ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक और निर्देशक को न्यूज चैनलों के कामकाज के तरीके को लेकर और काम करने की जरूरत है। 

न्यूज रूम की वर्किंग भी वास्तविकता से थोड़ी दूर है। अब हम आते हैं पाताल लोक की उस कहानी पर या उन संवादों या दृश्यों पर जिसको लेकर यह धारणा बनती है कि इस वेब सीरीज का मकसद एक धर्म विशेष को बदनाम करना भी है। कला की सृजनात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर समाज को बांटने की छूट न तो लेनी चाहिए और न ही दी जानी चाहिए। अब इस वेब सीरीज में साफ तौर पर पुलिस और सीबीआइ, दोनों को मुसलमानों के 

प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित दिखाया गया।

थाने में मौजूद हिंदू पुलिसवालों के बीच की बातचीत में मुसलमानों को लेकर जिस  तरह के विशेषणों का उपयोग किया जाता है उससे यह लगता है कि पुलिस फोर्स सांप्रदायिक है। इसी तरह से जब इस वेब सीरीज में न्यूज चैनल के संपादक की हत्या की साजिश की जांच दिल्ली पुलिस से लेकर सीबीआइ को सौंपी जाती  है और जब सीबीआइ इस केस को हल करने का दावा करने के लिए प्रेस कांफ्रेंस करती है तो वहां तक उसको मुसलमानों के 

खिलाफ ही दिखाया गया है। मुसलमान हैं तो आइएसआइ से जुड़े होंगे, नाम में एम लगा है तो उसका मतलब मुसलमान ही होगा आदि आदि।

संवाद में भी इस तरह के वाक्यों का ही प्रयोग किया गया है, ताकि इस नैरेटिव को मजबूती मिल सके। और अंत में ऐसा होता ही है कि सीबीआइ मुस्लिम संदिग्ध को पाकिस्तान से और आइएसआइ से जोड़कर उसे अपराधी साबित कर देती है। कथा इस तरह से चलती है कि जांच में क्या होना है, यह पहले से तय है, बस उसको फ्रेम करके जनता के सामने पेश कर देना है।

अगर किसी चरित्र को सांप्रदायिक दिखाया जाता तो कोई आपत्ति नहीं होती, आपत्तिजनक होता है पूरे सिस्टम को सांप्रदायिक दिखाना जो समाज को बांटने के लिए उत्प्रेरक का काम करता है। बात यहीं तक नहीं रुकती है। इस वेब सीरीज में तमाम तरह के क्राइम को हिंदू धर्म के प्रतीकों से जोड़कर दिखाया गया है। यह पहला मौका नहीं जब कोई वेब सीरीज इस तरह से हिंदू धर्म के खिलाफ माहौल बनाने में जुटी है।

नेटफ्लिक्स पर एक वेब सीरीज आई थी लैला, ये सीरीज प्रयाग अकबर के उपन्यास पर आधारित थी। उसे देखने के बाद यह बात साफ तौर पर उभरी थी कि ये हिंदुओं के धर्म और उनकी संस्कृति की कथित भयावहता को दिखाने के उद्देश्य से बनाई गई है। लैला का निर्देशन दीपा मेहता ने किया था। अभी चंद दिनों पहले दैनिक जागरण  के एक कार्यक्रम में सूचना-प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने जोरदार तरीके से वेब सीरीज के स्वनियमन पर बल दिया था। 

यह तो सरकार का काम है, जब चाहे करे, लेकिन वेब सीरीज के माध्यम से खड़े किए जा रहे फेक नैरेटिव का रचनात्मक प्रतिकार जरूरी है। समय और समाज का सही चित्रण करें और इस काम में सरकार पहल कर सकती है। उनके पास नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन है। उसका उपयोग किया जा सकता है। अगर ‘पाताल लोक’ या ‘लैला’ के माध्यम से हिंदू धर्म का काल्पनिक चित्रण हो रहा है तो किसी और वेब सीरीज के माध्यम से उसका 

यथार्थ चित्रण भी होना चाहिए जिसमें महिमामंडन के बजाय उन सकारात्मक  पक्षों की बात हो जो लोक-ल्याणकारी है।

एक वक्त फिल्मकारों को सेंसर की कैंची बहुत अखरती थी, लेकिन वेब के नए मंच पर मिली आजादी ने उनकी रचनात्मकता को पंख लगा दिए। मगर कुछ अर्से से यह स्वतंत्रता स्वच्छंदता में बदलकर रचनात्मकता को विरूपित करने लगी है। यहां हिंसक-यौन प्रसंगों को बेधड़क परोसा जा रहा है। इसकी आड़ में वैचारिक एजेंडा भी आगे बढ़ाया जा रहा है। हाल में आई पाताल लोक सीरीज भी इसी की नई कड़ी मालूम पड़ती है जो न केवल  इस बेलगाम होते माध्यम के नियमन, बल्कि फेक नैरेटिव के रचनात्मक प्रतिकार की बढ़ती आवश्यकता को भी  महसूस कराती है