[ ज्ञान चतुर्वेदी ]: चौहान साहब के साथ मैं अभी गांव गया था। वहीं विकास का जिक्र आ गया। रास्ता बेहद टूटा-फूटा था और पूरे माहौल में अजीब-सा ठहराव था। मैंने चौहान साहब से यूं ही पूछ लिया कि सर, जिस विकास का इतना हल्ला है, वह कभी इस गांव तक भी पहुंचेगा कि नहीं? ‘क्यों? पहुंचेगा न। जरूर पहुंचेगा। वैसे तो कुछ-कुछ पहुंच भी गया है।’ चौहान साहब ने मुझे सामने की पुलिया दिखाते हुए उत्तर दिया। मैंने पुलिया को गौर से देखा। पुलिया अधकच्ची-सी है। ईंटें यहां-वहां से धसकी हुई हैं। पलस्तर तो लगभग सारा ही झर चुका है। ‘ऐसा है आपका विकास?’ मैंने वितृष्णा से कहा।

विकास का पलस्तर झर रहा है और ईंटें कमजोर हैं

‘यार, अब जैसा भी है, तुम्हारे सामने है, पर है यह विकास ही। सहृदयता से सोचो तो सरकार की तरफ से विकास की यह एक कोशिश तो की ही गई है। यह सच है कि विकास का पलस्तर झर रहा है और ईंटें कमजोर हैं, परंतु यह भी सच है कि पुलिया तुम्हारे सामने है। इसे नकार नहीं सकते। विकास तो है। हां, थोड़ा कमजोर है।’ चौहान साहब ने कहा। ‘ठीक है। पुलिया है, पर पुलिया जैसी तो पुलिया हो?’ मैंने कहा। ‘ठीक से देखो। वैसी ही है।’ चौहान साहब ने पुचकारते हुए कहा। ‘आप ठीक से देखिए न? इसे आप पुलिया बोलते हो? इसका पलस्तर कभी भी गिर सकता है।’ मेरे स्वर में क्षोभ था। ‘सबको पता है। इसीलिए सब लोग इससे बचकर ही निकलते हैं।’

बाकी का विकास पुलिया से होकर आएगा

चौहान साहब ने हंसकर कहा। ‘पर ऐसा सीमेंट? ऐसा पलस्तर।’ ‘यार, या तो आप पलस्तर की ही बात कर लो या फिर पुलिया की, दोनों को एकसाथ नकारने की कोशिश उचित नहीं।’ चौहान साहब रूठ से गए। ‘पर ऐसा पलस्तर।’ ‘यार, पलस्तर की बात उठाकर आप पुलिया का होना नहीं नकार सकते।’ ‘तो क्या यही विकास है आपका?’ मैं ऐसी बहसों में जल्दी तैश में आता हूं। ‘गुस्सा न हो। हमने तो पहले ही कहा कि जैसा भी विकास है, तुम्हारे सामने है, पर है।’ ‘मगर यह तो कोई बात नहीं हुई।’ ‘ऐसे कैसे? बात तो हुई है। सरकार ने यहां अच्छी खासी पुलिया तान दी है। अब बाकी का विकास भी इसी पुलिया से होकर आएगा।

विकास के लिए नाराज हो या पैसा खा जाने से

तुम क्या सोचते हो? मुफ्त में बनती है पुलिया? दस लाख रुपये से कम न लगा होगा सरकार का।’ चौहान साहब ने झरते पलस्तर को अपने बेंत से खरोंचकर और गिराते हुए कहा। ‘सारा पैसा खा गए!’ मैंने अज्ञात बिल्डर को गाली दी। ‘यार, पहले तय कर लो। तुम विकास के लिए नाराज हो या पैसा खा जाने से?’ ‘यह ठीक बात नहीं।’ मैं बड़बड़ाया।

 ऐसे विकास का हमारे लिए मतलब ही क्या जिसका सारा पैसा दूसरे खा जाएं

‘मैं तुम्हारे गुस्से से सहमत हूं। कोई खुद ही सारा पैसा खा जाए, हमें उसमें से एक धेला न भी मिले तो आदमी का नाराज होना तो स्वाभाविक है। ऐसे विकास का हमारे लिए मतलब ही क्या जिसका सारा पैसा दूसरे खा जाएं?’ चौहान साहब अपनी तरह से सहमत हुए। ‘वह बात नहीं है सर।’ मैंने कहा। ‘वही बात है भैय्या। तुम शायद खुद ही खुद को नहीं समझ पा रहे हो या फिर खुलकर मन की बात को स्वीकार करने में शरमा रहे हो, बस। वरना तो बात वही है।

हमारे देश में भ्रष्टाचार से नाराजगी उसी को होती है जिसे खुद इसका मौका नहीं मिला

हमारे देश में भ्रष्टाचार से नाराजगी बस उसी को होती है जिसे खुद इसका मौका नहीं मिला।’ ‘यह तो पब्लिक के साथ सरासर धोखा है।’ मैं गुस्सा था। ‘कैसा धोखा? क्या यहां पुलिया नहीं बनी है? वह है न? यहां भी है, फाइल में भी है, बिलों में भी है, भुगतान में भी है। पुलिया का ऑडिट हुआ है। और क्या चाहिए तुम्हें?’

जब इंस्पेक्शन होगा तब पुलिया को ऐसा पोत दिया जाएगा कि तुम चकित हो जाओगे

‘लानत है ऐसे विकास पर।’ ‘यार, यूं जल्दबाजी में लानत मत भेजो। अरे, इस पुलिया को तब देखना जरा जब राजधानी से कोई इंस्पेक्शन टीम, भूले-भटके कभी इस तरफ आ जाए। पहचान न पाओगे। इसी पुलिया को ऐसा पोत-पात दिया जाएगा कि तुम चकित हो जाओगे।’

पुलिया धसने पर जांच बैठा दी जाएगी

मैं चिढ़कर बोला, ‘और कल को जब यह पुलिया धसककर टूट जाएगी तब? तब अखबारों में इसकी फोटो कैसी आएगी, जरा यह भी तो बता दें?’ ‘तब वे जांच बैठा देंगे। जांच एजेंसियों में बैठे लोगों का विकास भी तो जरूरी है।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं  ]