डॉ. संजय वर्मा। स्पेन की राजधानी मैडिड में दो सप्ताह से ज्यादा लंबे चले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन- कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप-25) से उम्मीदें तो बहुत थीं, पर उसका बिना किसी नतीजे खत्म हो जाना पर्यावरण को लेकर दुनिया की संजीदगी का स्तर साबित करने को काफी है। वर्ष 2020 से जलवायु परिवर्तन के लिए अहम 2015 के पेरिस समझौते को लागू करने की कोशिशों के तहत कॉप-25 का नारा था- ‘टाइम फॉर एक्शन,’ पर अफसोस कि यह सम्मेलन एक्शन के मोर्चे पर ही विफल रहा। ये हालात तब हैं जब पूरी दुनिया बढ़ते तापमान, सूखे, तबाही लाते तूफानों, भीषण बर्फबारी और अतिशय बाढ़-बारिश आदि मौसमी वजहों से प्रभावित हो रही है। खुद इंसान के लिए इन प्राकृतिक मौसमी बदलावों से जीना मुहाल हो गया है। लेकिन आबोहवा सुधार की कोशिशों को सिरे चढ़ाने की बात किसी के जेहन में नहीं अटक रही है।

जलवायु बदलावों पर हम कितने गंभीर हैं, यह इससे पता चलता है कि इस वर्ष पहले यह सम्मेलन (कॉप-25) चिली के सेंटियागो में आयोजित होना था, जो अपने यहां हो रहे विरोध प्रदर्शनों का तर्क देकर इसकी मेजबानी से हट गया। संयुक्त राष्ट्र की नाक बचाने को मजबूरन इसे स्पेन के मैडिड में आयोजित कराना पड़ा। अगर वहां कुछ ठोस हासिल होता तो यह आयोजन सफल कहा जाता। लेकिन जलवायु परिवर्तन की वजह से दांव पर लगी सभ्यता को बचाने के उपायों और विकल्पों को ही कई देशों ने गैर जरूरी मानकर खारिज कर दिया। इन उपायों को लेकर विकसित देशों ने तो और भी निराशाजनक प्रतिक्रिया दी।

उन्होंने जलवायु आपातकाल की अभूतपूर्व स्थितियों से निपटने के लिए कार्बन उत्सर्जन करने की अपीलों पर ध्यान देना ही उचित नहीं समझा। कुल मिलाकर इस सम्मेलन का हश्र क्या हुआ, यह ग्रेनाडा के राजदूत सिमोन स्टील के बयान से पता चल गया। सिमोन ने कहा कि पेरिस संधि के प्राविधानों को कायम रखने के लिए प्रत्येक क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस को एक अवसर के रूप में देखा जाता है। लेकिन यह सम्मेलन तो उन प्राविधानों को नष्ट करने का ही आयोजन बन गया। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने भी कहा कि मैडिड में दुनिया ने एक बड़ा मौका गंवा दिया, लेकिन हम हार नहीं मानेंगे।

हमें यह ध्यान रखना होगा कि पृथ्वी के लिए इस वक्त जो सबसे बड़ा मानवनिर्मित संकट है, वह जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) है। इसका पूरा अंदाजा किसी को नहीं है कि ग्रीनहाउस गैसों के असर से पैदा हुई ग्लोबल वॉर्मिग इस धरती का क्या कर डालेगी। इन चुनौतियों से बचना है तो कार्बन उत्सर्जन और ग्रीनहाउस गैसों में कमी लाने का रास्ता फिलहाल सूझता है। लेकिन इन मुद्दों पर अमेरिका और अमीर यूरोपीय देश अपनी जिम्मेदारी दूसरों के सिर ठेलने की लगातार कोशिश करते रहे हैं। कॉप-25 में तो इस समस्या पर न्यूनतम चर्चा हुई ही, पर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप तो पहले ही खुलेआम पेरिस समझौते को भेदभावपूर्ण बताकर उससे अलग होने की बात कर चुके हैं।

हालांकि भारत इसे लेकर सहमत है कि वह वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में मौजूदा दर से एक तिहाई कमी ला देगा। इसके लिए कोयले से चलने वाले पावर प्लांटों में बिजली उत्पादन घटाकर जलविद्युत परियोजनाओं पर निर्भरता बढ़ाई जाएगी। हालांकि चावल की खेती और मवेशी जनित ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना भारत के लिए चुनौती है, पर जिस तरह से एक सूचकांक- सीसीपीआइ में हमारे देश की रैंकिंग सुधरी है, उससे भारत से तो एक उम्मीद जगी है।

असल में मैडिड में ही जर्मन वॉच, न्यू क्लाइमेट इंस्टीट्यूट एंड क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क की ओर से संयुक्त रूप से पेश जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक (सीसीपीआइ) की रैंकिंग में भारत पहली बार शीर्ष दस देशों में शामिल हुआ है। इस सूची में पिछले वर्ष भारत का मुकाम 11वां था, जबकि नई सूची में वह नौवें स्थान पर आया है। यह संकेत है कि भारत में जलवायु परिवर्तन को एक आसन्न संकट मानने की एक समझ बनने लगी है। पर्यावरण को लेकर मानसिकता में बदलाव की यह सूचना दो साल पहले 2017 में कराए गए एक सर्वेक्षण से भी मिली थी जिसके अनुसार जलवायु परिवर्तन को 47 फीसद भारतीय बड़ा खतरा मानते हैं। पर ज्यादा बड़ी बात तब होगी, जब विकसित (धनी) देश इस मुद्दे को लेकर गंभीरता दर्शाएं। इस गंभीरता का सबसे ताजा पैमाना सीसीपीआइ रैंकिंग है।

अमेरिका की जगह इस सूचकांक में सबसे खराब प्रदर्शन वाले देशों में है। अच्छे प्रदर्शन की दृष्टि से स्वीडन चौथे और डेनमार्क पांचवें स्थान पर है, जबकि चौंकाते हुए पहले के तीन स्थान खाली रखे गए हैं। इन स्थानों को खाली छोड़ने का साफ संदेश यह है कि जलवायु परिवर्तन के मोर्चे पर दुनिया अभी भी निर्धारित लक्ष्य से बहुत दूर है। हालांकि दुनिया में सबसे ज्यादा उत्सर्जन करने वाले देशों में से एक चीन ने सूचकांक में अपनी रैंकिंग सुधारते हुए पिछले साल के 33वें के मुकाबले 30वां स्थान हासिल किया है। अमेरिका जैसे अपवादों को छोड़कर सभी देश जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित हैं और सबने अपने-अपने स्तर पर कुछ न कुछ प्रयास जरूर किए हैं।

पर दुनिया का आम नजरिया यही लगता है कि जब हालात खराब होंगे, तभी कुछ उपाय किए जाएंगे।

असल में जलवायु परिवर्तन का संकट हमारे सारे अनुमानों से भी कई गुना ज्यादा भयावह है और यह बिल्कुल हमारे सिर पर आ चुका है। यही वजह है कि सीसीपीआइ में अच्छी रेटिंग पाने के बाद भी कई पर्यावरण वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि खुद भारत को भी कई और काम करने होंगे। जैसे यहां जीवाश्म ईंधन यानी पेट्रोल-डीजल पर दी जा रही सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से कम करने की रूपरेखा बनानी होगी ताकि कोयले पर देश की निर्भरता कम हो सके।

(लेखक बेनेट यूनिवर्सिटी, ग्रेटर नोएडा में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं) 

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