[ब्रह्मा चेलानी]। मोदी सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा और उसे मिले संवैधानिक विशेषाधिकार समाप्त करना भारत के लिए ऐतिहासिक पड़ाव है। मोदी सरकार ने यह कदम केवल घरेलू कारकों को देखकर ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय पहलुओं को ध्यान में रखकर भी उठाया।

इनमें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा कश्मीर में मध्यस्थता के शिगूफे से लेकर पाकिस्तान की शह वाले अफगान तालिबान से अमेरिका की सौदेबाजी जैसे पहलू भी शामिल रहे। अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद चीन ने जम्मू-कश्मीर मुद्दे के अंतरराष्ट्रीयकरण की पहल की।

इसके लिए उसने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की एक विशेष, लेकिन अनौपचारिक बैठक बुलाई। उसने बहुत निर्लज्ज ढंग से इस विवाद में अपनी भूमिका पर पर्दा डाल दिया, जबकि वह जम्मू-कश्मीर के 20 प्रतिशत भूभाग पर अवैध रूप से कब्जा किए बैठा है। उसने इस मसले को केवल भारत-पाकिस्तान के मुद्दे के रूप में पेश किया।

चीन की शरारत से अलगाववादियों को मिली मदद
यह मानना पूरी तरह गलत होगा कि सुरक्षा परिषद में चीन की इस कवायद से कुछ हासिल नहीं हुआ। इस दावपेंच से पाकिस्तान और उसके पिट्ठुओं का हौसला बढ़ेगा। चीन की शरारत से जम्मू-कश्मीर में अलगाववादियों को भी मदद मिली।

भले ही सुरक्षा परिषद की बैठक का कोई ठोस नतीजा न निकला हो, लेकिन इस बैठक ने भारत की जम्मू-कश्मीर नीति को अंतरराष्ट्रीय चर्चा में ला दिया। बंद कमरे में हुई बैठक में इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि 1971 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध के बाद पहली बार सुरक्षा परिषद में कश्मीर पर चर्चा हुई।

चीन की रणनीति
चीनी षड्यंत्र भारत को यही स्मरण कराता है कि जम्मू-कश्मीर के मामलों में उसका दखल और बढ़ेगा। चीन की रणनीति ही यह है कि वह भारत की दुखती रग छेड़कर गतिरोध को चरम पर ले जाए। बीजिंग जम्मू-कश्मीर को भारत की बड़ी कमजोरी के रूप में देखता है। इसके उलट जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक बदलाव से भारत को जम्मू, कश्मीर एवं लद्दाख में चीन-पाकिस्तान की साठगांठ से निपटने में मदद मिलेगी। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को दो केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजित कर भारत ने जम्मू-कश्मीर से जुड़े अपने सीमा विवाद को भी पाकिस्तान एवं चीन के साथ अलग-अलग हिस्सों में बांट दिया। 

जम्मू कश्मीर बहुलतावादी भारत का प्रतीक था
अनुच्छेद 370 के चलते पाकिस्तान का रवैया यही रहा कि भारत जम्मू-कश्मीर को विवादित क्षेत्र मानता है। चूंकि केवल स्थाई नागरिकों को ही राज्य में जमीन खरीदने की इजाजत थी इसलिए कश्मीर घाटी में इस्लामी कट्टरपंथी हावी हो गए। वहां से कश्मीरी पंडितों को जबरन भगा दिया गया। अपनी विविधता भरी नस्लीय एवं धार्मिक पहचान के साथ जम्मू-कश्मीर बहुलतावादी भारत का एक उम्दा प्रतीक था, मगर उसकी समन्वयकारी संस्कृति और परंपराओं पर जिहादी आघात से पूरा परिदृश्य बदल गया।

1989 के बाद नई दिल्ली में सत्तारूढ़ सरकारें इस रुझान को रोकने में असहाय रहीं। परिणामस्वरूप कश्मीर की विविधता भरी परंपराओं पर वहाबी और सलाफी रीति-रिवाज हावी होते गए। अनुच्छेद 370 की समाप्ति से भले ही कश्मीर घाटी में इस्लाम का अरबीकरण न रुके, लेकिन इससे भारतीय संघ में जम्मू-कश्मीर के वास्तविक रूप से एकीकरण की समस्या जरूर सुलझेगी।

क्षेत्रीय चुनौतियों पर देना होगा ध्यान
वास्तव में इस परिवर्तन से जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा संबंधी फैसलों पर केंद्र सरकार और मजबूती के साथ निर्णय कर सकेगी। जम्मू-कश्मीर में उठाए गए कदमों के आलोक में भारत ने अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर स्थिति को बहुत अच्छे से संभाला, मगर अब उसे आंतरिक सुरक्षा और क्षेत्रीय चुनौतियों पर ध्यान देना होगा। सरकार द्वारा आवाजाही और संचार के स्तर पर जो प्रतिबंध लगाए गए हैं उससे संविधानप्रदत्त मूल अधिकार प्रभावित हो रहे हैं। सुरक्षा के मोर्चे पर जोखिम को देखते हुए ये प्रतिबंध चरणबद्ध ढंग से हटाए जा सकते हैं।

जहां हांगकांग की जनता लोकतंत्र के लिए शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रही है, वहीं कश्मीर के हथियारबंद जिहादियों का लोकतंत्र में कोई विश्वास नहीं और वे खलीफा का शासन स्थापित करना चाहते हैं। ऐसे में प्रशासन को घाटी के अस्थिर जिलों में एक विकेंद्रित और सुनियोजित रणनीति के तहत इस तरह प्रतिबंध लगाने चाहिए जिससे स्थानीय स्तर पर शांति स्थापित हो।

चीन-पाकिस्तान की गहरी होती साठगांठ
इसके लिए पुरस्कृत और साथ ही दंडित करने वाला रवैया अपनाया जाना चाहिए। चीन-पाकिस्तान की गहरी होती साठगांठ भारत की सबसे बड़ी चुनौती है। चीन के संरक्षण में पाकिस्तान भारत के खिलाफ लगातार जिहादी आतंक का इस्तेमाल करता रहेगा। भारत को पाकिस्तान के पिट्ठू आतंकियों पर कार्रवाई के बजाय उनके असली आका यानी फौजी हुक्मरानों पर शिकंजा कसना होगा।

2016 में उड़ी हमले के बाद सर्जिकल स्ट्राइक हो या फरवरी में बालाकोट हमला, ये दोनों कार्रवाइयां आतंकी ठिकानों पर हुईं। इनसे उन फौजी हुक्मरानों का कुछ नहीं बिगड़ा जो भारत को हजार घाव देने की रणनीति को धार देने में जुटे हैं। पाकिस्तान के पीछे असल ताकत चीन है, जिसके खिलाफ भारत आवाज बुलंद करने में भी हिचकता है।

चीन बढ़ा रहा सैन्य क्षमताएं
वास्तव में भारत के खिलाफ भारी व्यापार अधिशेष का इस्तेमाल कर चीन अपनी सैन्य क्षमताएं बढ़ा रहा है। वह एक गोली दागे बिना ही अपने आक्रामक हित साध रहा है। भारत एक तरह से खुद अपने नियंत्रण के साधन मुहैया करा रहा है। भारत के दूरसंचार क्षेत्र में चीन का पहले ही वर्चस्व कायम हो चुका है और हुआवे पर भारत में 5जी परीक्षण के लिए प्रतिबंध लगाने के बजाय भारत कोई बीच का रास्ता तलाश रहा है।

अप्रैल 2018 में वुहान की खुमारी हफ्ते भर तक नहीं टिक पाई। फिर भी चीन के हालिया उकसावे के बावजूद वुहान जैसी वार्ता के लिए चीनी राष्ट्रपति अक्टूबर में भारत आएंगे जो शायद वाराणसी में होगी। इससे पहले चीन भारत को सीमा विवाद से जुड़ी वार्ताओं में उलझाने की मंशा दिखा रहा है। आर्थिक मोर्चे पर भारत कम से कम इतना तो कर सकता है कि वह प्रमुख क्षेत्रों में चीन की राह रोके।

अगले महीने पीएम मोदी और चीनी राष्ट्रपति की मुलाकात
अगर भारत लगातार चीन की उकसाने वाली गतिविधियों की अनदेखी करता रहेगा तो अगले महीने जब मोदी चीनी राष्ट्रपति के साथ वार्ता के लिए बैठेंगे तो भारतीय पक्ष कमजोर महसूस करेगा। यही बात अजीत डोभाल पर भी लागू होगी जब वह सीमा वार्ता के लिए चीनी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से मिलेंगे।

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जम्मू-कश्मीर भारत के लिए एक सेक्युलर पहचान और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मूलभूत मुद्दा है। कुछ समय के लिए कश्मीर घाटी में हालात खराब होते दिख सकते हैं जिससे भारत पर देसी-विदेशी आलोचकों के साथ ही मानवाधिकारवादियों का दबाव बढ़ सकता है। हालांकि दीर्घ अवधि में भारत के साथ व्यापक जुड़ाव और विकास की गतिविधियां कश्मीर घाटी में हालात सामान्य बनाने में योगदान देंगी। भारत को बड़ा फायदा हासिल करने के लिए इस क्षणिक दुख को झेलना ही होगा।


(लेखक सामरिक मामलों के विश्लेषक हैं) 

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