[प्रदीप सिंह]। उत्तर प्रदेश के घोसी विधानसभा क्षेत्र के लिए हो रहे उपचुनाव में भाजपा ने विजय राजभर को उम्मीदवार बनाया है। विजय के पिता सब्जी का ठेला लगाते हैं। मंगलवार को पिता जब उम्मीदवार बेटे को माला पहनाने आए तो बेटा खुद को रोक नहीं पाया और फूट-फूट कर रो पड़ा।

समाज में ऐसे दृश्य अक्सर देखने को मिल जाते हैं, पर राजनीति में ऐसी घटनाएं अपवाद के रूप में ही दिखती हैं। भारतीय राजनीति पिछले कई दशकों से ऐसे दौर में है जहां पैसा, रसूख और परिवार की ताकत का बोलबाला है। ऐसी घटनाएं भारत की राजशाही, सामंती मानसिकता से निकलकर लोकतांत्रिक होने की गवाही देती हैं। हमने लोकतांत्रिक व्यवस्था तो अपना ली, लेकिन हमारा मन राजशाही वाला ही रहा।

फलतीफूलती रही वंशवाद की राजनीति

यही कारण है कि पिछले सात दशकों में लोकतांत्रिक व्यवस्था के बावजूद वंशवाद की राजनीति कमजोर होने के बजाय फलतीफूलती रही। हमने लोकतंत्र को वंशवाद और परिवारवाद के पोषकों को चुनने की व्यवस्था बना दिया, मगर 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से देश की राजनीति में एक निर्णायक मोड़ आया। नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना एक नई परिघटना थी। ऐसा नहीं है कि समाज के कमजोर तबके के लोग पहले राजनीति में सफल नहीं हुए या सत्ता में नहीं आए, लेकिन राष्ट्रीय फलक पर पिछड़े वर्ग के एक निर्धन और साधनहीन परिवार के व्यक्ति को इतना जनसमर्थन मिलना सामान्य बात नहीं थी। इसका नतीजा यह हुआ कि राजनीति के स्थापित वंशों के पराभव का दौर शुरू हो गया।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण कांग्रेस का प्रथम परिवार यानी नेहरू-गांधी परिवार है। वह देश की राजनीति में प्रथम परिवार के सिंहासन से उतर कर अब महज कांग्रेस का प्रथम परिवार रह गया है। वहां भी इसके ज्यादा टिके रहने की संभावना कम होती जा रही है। उत्तर प्रदेश का मुलायम परिवार, बिहार का लालू परिवार, हरियाणा का चौटाला परिवार और कर्नाटक का देवेगौड़ा परिवार अपने घाव सहला रहा है।

थ्योरी ऑफ कल्चरल लैग

कुछ हैं, जो गिरने का इंतजार कर रहे हैं। एक तरफ वंशवादी राजनीति का पराभव हो रहा है तो साथ ही कुछ नए वंशवादी भी सत्ता पर काबिज हुए हैं। तो क्या यह तथ्य पहले की परिघटना को गलत साबित करते हैं? नहीं। संस्कृति के पाठ्यक्रम में ‘थ्योरी ऑफ कल्चरल लैग’ पढ़ाई जाती है। इसके मुताबिक सभ्यता के विकास के साथ होने वाले बदलावों के बावजूद संस्कृति का एक हिस्सा पीछे रह जाता है। उप्र और बिहार में बारात की विदाई से पहले लड़के का मूसल से परछन करने की रस्म होती है। मूसल, सूप, चाकी जैसी घरेलू उपयोग की तमाम चीजें जो एक समय हर घर में अनिवार्य रूप से पाई जाती थीं, अब खोजे नहीं मिलेंगी, क्योंकि उनकी उपयोगिता खत्म हो गई। इन्हें अब केवल शादी-ब्याह के अवसर के लिए ही बनाया जाता है।

लुप्तप्राय राजनीतिक प्रजाति बन गए हैं वामपंथी दल

वंशवादी राजनीतिक दलों का भी यही भविष्य है। लोग अक्सर वंशवाद और परिवारवाद को एक ही मान लेते हैं। वंशवाद वह है जहां आपके जन्म से आपका पद आरक्षित हो जाता है। कई बार यह मैरेज सर्टिफिकेट से भी होता है। वंशवादी पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं को संदेश देती हैं कि पार्टी और सत्ता का शीर्ष पद परिवार के सदस्य के लिए आरक्षित है। भाजपा और वामपंथी दल जैसे चुनिंदा राजनीतिक दल हैं जो वंशवाद से अछूते हैं, मगर परिवारवाद के मामले में वामपंथी दल एकमात्र अपवाद हैं। यह दीगर बात है कि वामपंथी दल लुप्तप्राय राजनीतिक प्रजाति बन गए हैं। संसद से सड़क तक उनकी उपस्थिति उत्तरोत्तर घटती जा रही है और प्रभाव तो अपने घर में भी नहीं रह गया है। किसी भी सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन में समय लगता है।

भाजपा की राजनीतिक कार्य संस्कृति में बदलाव  

इस सिलसिले में एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जिक्र आवश्यक है। भाजपा के आलोचक कहते हैं कि दो लोग पार्टी चलाते हैं-मोदी और अमित शाह। इस पर बहस हो सकती है कि पार्टी यही दो लोग चलाते हैं या नहीं, लेकिन एक बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि भाजपा की राजनीतिक कार्य संस्कृति में बदलाव लाने की सोच और क्षमता इन्हीं दो नेताओं में है।

परिवारवाद की बढ़ती प्रवृत्ति पर लगाम

लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव, टिकटों का वितरण हो या मंत्रिमंडल का गठन, सबमें इस बात का खयाल रखा जा रहा है कि परिवारवाद की बढ़ती प्रवृत्ति पर लगाम लगाई जाए। कुछ अपवादों को छोड़कर इस नियम का बड़ी कड़ाई से पालन किया जा रहा है। इसके कारण पार्टी के अंदर विरोध भी झेलना पड़ रहा है और चुनाव में नुकसान का जोखिम भी है। लोकसभा चुनाव में अपने बेटे को टिकट दिलाने के लिए चौधरी वीरेंद्र सिंह को मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा। प्रेम कुमार धूमल की दावेदारी खत्म होने के बाद ही बेटे अनुराग ठाकुर को मंत्री पद मिला। राजनाथ सिंह का बेटा दूसरी बार विधायक बनने के बावजूद मंत्री नहीं बन पाया। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं, मगर कल्याण सिंह के परिवार के रूप में अपवाद भी हैं।

जीवन खपाने वाले कार्यकर्ताओं का सम्मान  

राज्यपालों की नियुक्ति में भी पार्टी में नई कार्य संस्कृति की झलक मिलती है। कांग्रेस दशकों तक पूर्व नौकरशाहों और परिवार के वफादारों को इस पद से नवाजती रही है, लेकिन पिछले साढ़े पांच वर्षों में मोदी सरकार ने दो-तीन अपवादों को छोड़कर उन्हीं लोगों को राजभवन भेजा जिन्होंने जनसंघ से भाजपा के दौर में पार्टी के लिए संघर्ष किया। यह नई राजनीतिक संस्कृति संगठन के लिए जीवन खपाने वाले कार्यकर्ताओं का सम्मान है। कोई भी संगठन उतना ही मजबूत या कमजोर होता है जितना उसके कार्यकर्ता।

फागू चौहान बने बिहार के राज्यपाल

चूंकि बात घोसी उपचुनाव से शुरू हुई है इसलिए उन फागू चौहान का जिक्र जरूरी है जिनके इस्तीफे से यह सीट खाली हुई है। फागू चौहान जाति से नोनिया हैं। उनकी जाति के लोगों की संख्या बहुत कम है। इसलिए दशकों तक राजनीतिक दल इस वर्ग की उपेक्षा करते रहे। मोदी-शाह ने उन्हें बिहार का राज्यपाल बना दिया। फागू चौहान के सजातीय लोगों के लिए बिहार का राजभवन इस समय तीर्थ बन गया है। सैकड़ों लोग हर महीने उनसे मिलने और राजभवन में किसी अपने को देखने जाते हैं।

वही राजभवन, जो आजादी के बाद से कुछ खास लोगों के लिए आरक्षित रहता था। विजय राजभर और फागू चौहान महज दो व्यक्ति नहीं हैं। वे ऐसी ऐतिहासिक घटना के चरित्र हैं जो राजनीति और समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े दूसरे व्यक्तियों को यह भरोसा दिलाते हैं कि उनके लिए भी जगह है। केवल जगह ही नहीं, बल्कि शिखर पर पहुंचने का अवसर भी।

कार्यकर्ताओं का आत्मविश्वास बढ़ाती है इच्छाशक्ति

यह घटना पार्टी संगठन में काम करने वाले आम कार्यकर्ता को इसका अहसास कराती है कि शिखर पर बैठे लोग ऊपर ही नहीं नीचे भी देखते हैं। बशर्ते उनमें संवेदनशीलता, दलगत हित पर समाज के हित को तरजीह देने और प्रतिरोधी शक्तियों से लड़ने की इच्छाशक्ति हो। उनकी यह इच्छाशक्ति ही कार्यकर्ता का आत्मविश्वास बढ़ाती है कि राजनीति में अपनी जगह बनाने के लिए धनवान या रसूख वाला होना जरूरी नहीं है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)