प्रदीप भंडारी : पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में नई सरकारों ने कामकाज संभाल लिया है। त्रिपुरा और नगालैंड में भाजपा गठबंधन सत्ता में वापस लौटा तो मेघालय में उसने एनपीपी सरकार को समर्थन दिया। कुल मिलाकर हाल में 180 विधानसभा सीटों के परिणामों के आगामी आम चुनावों की दृष्टि से भी गहरे निहितार्थ हैं। इसका पहला संदेश तो यही है कि इन नतीजों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करिश्मे पर फिर से मुहर लगाई है। प्रधानमंत्री की निरंतर बढ़ती लोकप्रियता भाजपा के गैर-पारंपरिक गढ़ों में भी मतदाताओं को साधने में मददगार बन रही है।

वर्ष 2014 में भाजपा को 90 प्रतिशत सीटें देश के 60 प्रतिशत भू-भाग से मिली थीं। फिर 2019 के आम चुनाव में यह भौगोलिक दायरा और बढ़ा। यदि मौजूदा रुझान इसी प्रकार बरकरार रहते हैं तो समर्थन का सामाजिक आधार 2024 में और बढ़ सकता है। इसमें प्रधानमंत्री मोदी के जनकल्याण अभियान की अहम भूमिका है। धरातल पर उतरी उनकी कल्याणकारी योजनाओं ने हाशिये पर रहने वाले लोगों का जीवन संवारा है। चाहे त्रिपुरा के दूरदराज वाले क्षेत्रों में ‘पीएम आवास’ योजना हो या नगालैंड के जनजातीय इलाकों में ‘हर घर जल’ योजना, ऐसी योजनाएं परिवर्तन लाने में सफल रही हैं। इससे भाजपा को ‘हिंदी पट्टी’ वाली पार्टी की छवि से बाहर निकलकर अखिल भारतीय पार्टी बनने में मदद मिल रही है। टिपरा मोथा के पक्ष में भावनात्मक लामबंदी के बावजूद भाजपा कल्याणकारी योजनाओं के दम पर चकमा और त्रिपुरी जैसी जनजातियों का कुछ समर्थन हासिल करने में सफल रही है।

किसी ध्रुवीकरण के जवाब में दूसरे खेमे का भी ध्रुवीकरण होता है। यदि देबबर्मा जनजाति टिपरा मोथा के पक्ष में लामबंद हुई तो जवाब में बंगाली समुदाय भाजपा के पीछे जुट गया। मोदी की कल्याणकारी योजनाओं के साथ द्रुत गति से होते बुनियादी ढांचे के विस्तार की जुगलबंदी ने भाजपा के लिए जीत का जादुई मंत्र तैयार कर दिया है। गुवाहाटी से शिलांग के बीच चौड़ी हुई सड़कें आवाजाही आसान बना रही है। दिल्ली से अगरतला के बीच दैनिक उड़ान बड़ी राहत देने वाली रही। मतदाता इस परिवर्तन को महसूस करते हैं और विकास की इसी गंगा ने कागजों पर मजबूत दिख रहे कांग्रेस-वाम गठबंधन पर भाजपा को बढ़त दिलाई।

राजनीति में अंकगणित से अधिक केमिस्ट्री ज्यादा मायने रखती है। यह पहलू मुझे इस जनादेश के दूसरे संदेश की ओर ले जाता है, जो कांग्रेस और माकपा के बेमेल गठबंधन से जुड़ा है। बेमेल इसलिए, क्योंकि जब पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी एकाएक साथ आते हैं तो इससे कार्यकर्ताओं में विश्वास के बजाय संदेह अधिक गहराता है। इसी कारण पूर्व में कांग्रेसी खेमे में रहे लोग त्रिपुरा में भाजपा के साथ चले गए। अतीत में भी बेमेल गठबंधन टिक नहीं पाए। जम्मू-कश्मीर में भाजपा-पीडीडी गठबंधन नहीं चल पाया। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा एक दूसरे को अपने वोट ट्रांसफर नहीं करा पाईं।

विपक्षी एकता का सूचकांक तभी ऊपर चढ़ सकता है, जब विभिन्न दलों के मतदाता विरोधाभासी न होकर एक दूसरे के पूरक बनें। वर्तमान परिदृश्य में विपक्षी एकता सिरे नहीं चढ़ पा रही और ऐसी किसी कवायद की परिणति भाजपा की मदद के रूप में ही निकलती है। जब कांग्रेस और वामपंथी दशकों से एक दूसरे से मुकाबला करते आए हों तो उनके मतदाता जुड़ने के बजाय और छिटक गए। इसी प्रकार बंगाल में तृणमूल और वामपंथी कभी साथ नहीं आ सकते तो केरल में कभी कांग्रेस एवं वामपंथियों की दाल एक साथ गलने से रही। जब तक विपक्ष में कोई दल लोकसभा सीटों का शतक लगाने की स्थिति में नहीं आता तब तक ‘विपक्षी एकता’ संभव नहीं दिखती। फिलहाल किसी विपक्षी दल के लिए यह आंकड़ा छूना दूर की कौड़ी लगता है।

तमाम लोग कहते हैं कि कांग्रेस विपक्षी एकता की धुरी हो सकती है। इससे मैं जनादेश के तीसरे संदेश की ओर आता हूं और वह है कांग्रेस के भीतर भ्रम की स्थिति। जिन 180 सीटों पर चुनाव हुए, वहां कांग्रेस कभी बड़ी मजबूत हुआ करती थी, मगर वह आठ सीटें ही जीत पाई। भारत जोड़ो यात्रा ने भले ही राहुल गांधी की छवि को नए सिरे से गढ़ा हो, लेकिन कोई संकेत नहीं कि इससे कांग्रेस की चुनावी किस्मत बदलेगी। दोनों दलों का रुख-रवैया भी एकदम विपरीत है। जहां तीन मार्च को अमित शाह कर्नाटक में प्रचार अभियान में जुटे थे तो राहुल कैंब्रिज में व्याख्यान देने की तैयारी में। शाह मतदाताओं से जुड़ाव के लिए धरातल पर उतरे तो राहुल विदेशी धरती पर अकादमिक कवायद में।

अमूमन मतदाता नेताओं को ध्यान में रखकर मतदान करते हैं और दलीय पसंद दूसरे स्थान पर आती है। हालांकि प्रतिबद्ध मतदाता अपवाद होते हैं। ऐसे में जब आगामी आम चुनाव में मतदाता मोदी के मुकाबले विपक्षी खेमे की ओर देखेंगे तो वर्तमान राजनीतिक समीकरणों के लिहाज से वहां कोई दूर-दूर तक नहीं दिखेगा। राष्ट्रीय चुनावों में मतदाता छोटे-मोटे मुद्दों के बजाय नेता पर विश्वास को कहीं अधिक वरीयता देता है। मोदी इस मोर्चे पर किसी भी अन्य दल के नेता के मुकाबले इक्कीस नजर आते हैं।

इस जनादेश ने महिलाओं की निर्णायक मतदाता की भूमिका को पुनर्स्थापित किया है। महिलाओं के अधिक वोट पाने वाली पार्टी की जीत आसान होती जा रही है। त्रिपुरा में मोदी की कल्याणकारी योजनाओं ने महिला मतदाताओं को साधने का काम किया। इससे पहले 2019 के आम चुनाव से लेकर कई विधानसभा चुनावों में यही दिखा। हालांकि, यह रुझान मौके के हिसाब से बदल जाता है। जैसे दिल्ली में विधानसभा और लोकसभा चुनावों की तस्वीर एकदम उलट दिखती है। ओडिशा में भी राज्य की कमान नवीन पटनायक को मिलती है तो लोकसभा में भाजपा के हिस्से भी सीटें आ जाती हैं। हमारे पोल डाटा में भी यही सामने आया कि महिलाएं उसी नेता-पार्टी को प्राथमिकता देती हैं, जिनकी नीतियों से उनका जीवन सुगम बने। जहां पुरुषों के लिए वैचारिक आधार अहम होता है तो महिलाओं के लिए कल्याणकारी योजनाएं। इस जनादेश के सार की बात करें तो हर विधानसभा चुनाव से एक नई राजनीतिक तस्वीर उभरती है, लेकिन पूर्वोत्तर के नतीजे आगामी आम चुनाव में भाजपा की बढ़त के संकेत करते हैं। इस क्षेत्र की 26 लोकसभा सीटों पर भाजपा की उम्मीदें अब और बढ़ गई हैं।

(लेखक चुनाव विश्लेषक एवं टीवी पत्रकार हैं)