[संजय गुप्त]। उच्चतम न्यायालय ने प्रिवेंशन आफ मनी लांड्रिंग एक्ट-पीएमएलए (PMLA) के तहत प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी (ED) को मिले अधिकारों के खिलाफ कई नेताओं समेत अन्य लोगों की ओर से दायर दो सौ से अधिक याचिकाओं का निपटारा करते हुए जिस तरह इन अधिकारों को उचित ठहराया, वह इस जांच एजेंसी को बल प्रदान करने और साथ ही अपनी काली कमाई को सफेद करने की कोशिश में लिप्त तत्वों को हतोत्साहित करने वाला है। यह किसी से छिपा नहीं कि काले धन का काला धंधा किस तरह बढ़ता जा रहा है और इस धंधे में किस तरह नेता और नौकरशाह भी लिप्त हैं? इसका ताजा उदाहरण बंगाल के हटाए गए वरिष्ठ मंत्री पार्थ चटर्जी हैं, जिनकी करीबी अर्पिता मुखर्जी के दो फ्लैटों से करीब 50 करोड़ रुपये की नकदी के साथ सोना, विदेशी मुद्रा के अतिरिक्त जमीन-जायदाद के कई दस्तावेज मिले हैं।

काला धन अर्जित करने वालों पर लगाम लगाने के लिए पीएमएलए वर्ष 2002 में लाया गया था, ताकि भारत अपनी वैश्विक प्रतिबद्धता के तहत काले धन को सफेद करने के तौर-तरीकों पर रोक लगा सके। यह कानून लागू हुआ 2005 में, जब मनमोहन सरकार सत्ता में थी। इसके बाद इसमें समय-समय पर संशोधन हुए। एक संशोधन तो तब हुआ, जब वित्त मंत्री पी. चिदंबरम थे। बाद में वह और उनके बेटे ईडी की जांच के दायरे में आए। उक्त संशोधन से ईडी की शक्तियां बढ़ीं।

नि:संदेह मनमोहन सरकार के समय ईडी उतनी सक्रिय नहीं थी, जितनी मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद दिख रही है, लेकिन इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि इस केंद्रीय जांच एजेंसी का दुरुपयोग किया जा रहा है, क्योंकि उसकी ओर से जब्त की गई संपत्ति यही बताती है कि काले धन को सफेद करने का सिलसिला तेज हुआ है। एक अनुमान के अनुसार ईडी अब तक एक लाख करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति जब्त कर चुकी है। यह संपत्ति विभिन्न घपलों-घोटालों के जरिये हासिल की गई थी। इनमें बैंकिंग घोटाले भी थे।

ईडी ने कुछ संपत्ति की नीलामी कर बैंकों को वापस भी की है। एक समय था, जब ईडी के निशाने पर आम तौर पर उद्योगपति ही रहते थे, लेकिन धीरे-धीरे नेता और नौकरशाह भी उसकी जांच के दायरे में आते गए। आज ऐसे नेताओं और नौकरशाहों की गिनती करना कठिन है, जो ईडी की जांच का सामना कर रहे हैं। इनमें सोनिया गांधी, राहुल गांधी, पी. चिदंबरम, उनके बेटे कार्ति चिदंबरम, लालू यादव, महबूबा मुफ्ती, अनिल देशमुख, नवाब मलिक आदि शामिल हैं। इस पर आश्चर्य नहीं कि ईडी के अधिकारों के खिलाफ तमाम याचिकाएं ऐसे ही अनेक नेताओं की ओर से भी दाखिल की गई थीं।

ईडी ने जिस तरह 2019-20 में 28 हजार करोड़ रुपये की संपत्ति जब्त की, उससे यही पता चलता है कि काला धन बटोरने वाले किस तरह बाज नहीं आ रहे हैं। इन स्थितियों में यह आवश्यक हो जाता है कि ईडी की सक्रियता कायम रहे। जो लोग ईडी के अधिकारों के खिलाफ उच्चतम न्यायालय पहुंचे थे, उनकी एक शिकायत यह थी कि इस एजेंसी को तलाशी, जब्ती और गिरफ्तारी के मनमाने अधिकार दे दिए गए हैं।

उच्चतम न्यायालय इस दलील से सहमत नहीं हुआ। उसने इस दलील को भी खारिज कर दिया कि औपचारिक शिकायत के बगैर ईडी को किसी को गिरफ्तार करने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। इसी तरह शीर्ष अदालत ने याचिकाकर्ताओं की इस दलील को भी सही नहीं माना कि खुद को बेगुनाह साबित करने का दायित्व अभियुक्त पर नहीं होना चाहिए। वास्तव में यदि किसी के पास आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक अकूत संपत्ति मिली हो तो यह सिद्ध करने की जिम्मेदारी उसी पर होनी चाहिए कि उसके पास इतनी संपदा कहां से आई?

उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद यह आशा की जाती है कि ईडी जिन तमाम मामलों की जांच कर रही है, उनमें तेजी आएगी और इस तरह के राजनीतिक स्वर थमेंगे कि मोदी सरकार ईडी का मनमाना इस्तेमाल कर रही है। इन दिनों इस तरह के आरोप लगाने में कांग्रेस सबसे आगे है। इसका कारण नेशनल हेराल्ड मामले में राहुल गांधी और सोनिया गांधी से ईडी की पूछताछ करना है।

कांग्रेस नेता ईडी की कार्रवाई का जैसा विरोध संसद के भीतर और बाहर कर रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि वे गांधी परिवार को कानून से ऊपर समझते हैं। चूंकि कांग्रेस नेता इसकी जानबूझकर अनदेखी कर रहे हैं कि इस मामले में राहुल और सोनिया गांधी जमानत पर हैं, इसलिए आम जनता इस तरह के आरोपों को महत्व देने को तैयार नहीं कि ईडी का मनमाना इस्तेमाल किया जा रहा है।

काला धन हासिल करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी ही चाहिए, क्योंकि खुद उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि मनी लांड्रिंग न केवल देश के सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने को प्रभावित करती है, बल्कि आतंकवाद और ड्रग्स तस्करी जैसे अपराधों को भी बढ़ावा देती है। जो यह आरोप लगा रहे हैं कि ईडी के कारण लोकतंत्र का गला घुट रहा है, वे यह समझें तो बेहतर कि लोकतंत्र का गला अकूत रूप में जुटाए गए काले धन से भी घुट रहा है। आज यदि देश की प्रगति अपेक्षित गति से नहीं हो रही है तो इसका एक बड़ा कारण नेताओं और नौकरशाहों की ओर से किया जाने वाला भ्रष्टाचार भी है। यह किसी से छिपा नहीं कि तमाम नेता ऐसे हैं, जो कोई खास कारोबार नहीं करते, लेकिन उनके पास पैसे की कभी कोई कमी नहीं दिखती। कई नेताओं की ओर से चुनाव के मौके पर जो शपथपत्र दाखिल किए जाते हैं, उनसे यही पता चलता है कि उनकी संपत्ति कहीं तेजी से बढ़ती है। आखिर ये नेता बिना कारोबार इतनी तेजी से अमीर कैसे बन जाते हैं?

अपने देश में भ्रष्टाचार का राजनीति से गहरा संबंध है। इस पर नकेल कसने के लिए जांच एजेंसियों के पास जब तक पर्याप्त अधिकार नहीं होंगे, तब तक वे काले धन के धंधे को रोक नहीं पाएंगी। अब जब उच्चतम न्यायलय ने ईडी को मिले अधिकारों को उचित ठहरा दिया है, तब फिर इस एजेंसी के लिए भी यह आवश्यक हो जाता है कि उसने पांच हजार से अधिक जो मामले दर्ज कर रखे हैं, उन्हें अंजाम तक पहुंचाने का काम तेज करे। ऐसा करके ही वह अपनी साख बढ़ाने के साथ राजनीतिक माहौल खराब करने वाले इन आरोपों को निरर्थक साबित कर पाएगी कि उसका गलत इस्तेमाल किया जा रहा है।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]