देश की राजधानी में इन दिनों ‘दिल्ली बचाओ’ अभियान की गूंज है, क्योंकि धुएं और धूल यानी स्मॉग का जो गुबार आसमान पर छाया है उससे लोगों का सांस लेना मुहाल है। जैसी हालत दिल्ली की है वैसी ही उसके आसपास भी। दिल्ली की इस हालत के लिए उसके आसपास के राज्य और खास हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान एवं पंजाब भी जिम्मेदार हैं। इन इलाकों के किसानों ने खेतों में पराली यानी फसलों के जो अवशेष जलाए उनका ही धुआं दिल्ली के लिए संकट बन गया। यह संकट इसलिए बढ़ा, क्योंकि दिल्ली सरकार वायु प्रदूषण की रोकथाम के मामले में उतनी ही निष्क्रिय रही जितनी पड़ोसी राज्यों की सरकारें। जैसे इन राज्यों की सरकारों ने फसलों के अवशेष जलाने से रोकने के लिए कुछ नहीं किया उसी तरह दिल्ली सरकार ने भी वाहनों के उत्सर्जन, कूड़े-करकट को जलाने और सड़कों एवं निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल को रोकने के लिए कुछ नहीं किया। जब उसे वायु प्रदूषण बढ़ाने वाले इन सब कारणों का निवारण करना चाहिए था तब उसके नेता वन रैंक वन पेंशन को लेकर एक पूर्व फौजी की आत्महत्या को भुनाने में लगे हुए थे। इस दौरान दिल्ली सरकार के नेताओं का एकमात्र मकसद पूर्व फौजी की आत्महत्या पर खुद को राहुल गांधी और अन्य कांग्र्रेसी नेताओं से ज्यादा दुखी और क्षुब्ध दिखाना था। उन्होंने खुद को ज्यादा जोरदारी से दुखी इसलिए भी दिखाया, क्योंकि इससे उन्हें अपने प्रिय कार्य मोदी सरकार पर हमला करने में सहूलियत मिल रही थी। केजरीवाल भिवानी तक दौड़े गए और वहां से लौटकर उन्होंने पूर्व फौजी को शहीद करार दिया और उनके परिवार को एक करोड़ रुपये देने का ऐलान कर दिया।
जिस समय दिल्ली सरकार के नेता पूर्व फौजी की आत्महत्या की आड़ में सियासी प्रदूषण बढ़ाने में लगे हुए थे उसी समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक कार्यक्रम में कह रहे थे कि यदि देश के पास अंतरराष्ट्रीय पहुंच-प्रभाव वाला कोई मीडिया तंत्र होता तो वह दुनिया को यह बता सकता था कि भारत किस तरह प्रकृति के संरक्षण के प्रति संजीदा है। जब वह ऐसा कह रहे थे तब दिल्ली के आसमान में धुएं और धूल का गुबार बढ़ रहा था। लगभग इसी समय हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश की सरकारें यह जानने के दिखावे में लगी हुई थीं कि किसानों को पराली जलाने से क्यों नहीं रोका गया और जिन लोगों पर इसे रोकने की जिम्मेदारी थी उन्होंने अपना काम क्यों नहीं किया? एक तरह से देखें तो हर कोई प्रदूषण रोकने को लेकर कुछ न कुछ कह रहा था, लेकिन कोई भी कर कुछ नहीं रहा था। दिल्ली को जानलेवा प्रदूषण से बचाने के मामले में जैसी निष्क्रियता दिल्ली सरकार ने दिखाई वैसी ही केंद्र सरकार ने भी। केंद्रीय पर्यावरण और कृषि मंत्रालय तब हरकत में आए जब पंजाब, हरियाणा, राजस्थान आदि में लाखों टन पराली जलाई जा चुकी थी। इन दोनों मंत्रालयों ने ऐसे व्यवहार किया जैसे उन्हें यह पता ही न हो कि सितंबर में ही इन राज्यों के किसान पराली जलाने की तैयारी में जुट जाते हैं। लगता है कि दिल्ली स्थित इन दोनों सरकारों ने अपने-अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वाह करने में इसलिए कोताही बरती, क्योंकि दोनों के पास अपना दोष एक-दूसरे के सिर मढ़ने की सुविधा थी। शायद हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश की सरकारें भी खुद को कुछ ऐसी ही सुविधा से लैस देख रही थीं। इसी रुख-रवैये के कारण चारों तरफ निष्क्रियता का आलम देखने को मिला। नि:संदेह दिल्ली में प्रदूषण बढ़ने का एक कारण दीवाली की रात छोड़े-फोड़े गए पटाखों का धुआं भी है, लेकिन सारा दोष पटाखों पर नहीं डाला जा सकता। वैसे भी इस वर्ष कहीं कम पटाखे छोड़े गए। ऐसी कोई कमी पराली जलाने के मामले में बिल्कुल भी नहीं दिखाई दी।
दिल्ली, उसके पड़ोसी राज्यों और केंद्र सरकार की निष्क्रियता का दुष्परिणाम केवल इस रूप में ही सामने नहीं आया कि राजधानी और आसपास के इलाके जहरीले धुएं-धूल की गुबार की चपेट में आ गए, बल्कि करीब एक दर्जन मार्ग दुर्घटनाओं के तौर पर भी सामने आया। दिल्ली और उसके आसपास धुंध के कारण घटी सड़क दुर्घटनाओं में कई लोग मारे गए और कई जख्मी हुए। आखिर इन मौतों के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री धुंध के कारण होने वाली दुर्घटनाओं में मरे लोगों को भी शहीद बताएंगे? वह दिल्ली की सीमा से बाहर घटी सड़क दुर्घटनाओं के मामले में आसानी से अपना पल्ला झाड़ सकते है, लेकिन क्या वह यही काम स्मॉग के कारण बीमार होकर अस्पताल पहुंचे लोगों के मामले में भी कर सकते हैं? क्या वह दिल्ली के बच्चों की पढ़ाई के नुकसान की जिम्मेदारी लेने को तैयार हैं?
प्रदूषण की रोकथाम के मामले में जैसी निष्क्रियता सरकारों ने दिखाई वैसी ही कुछ नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने भी। वह तब सक्रिय हुआ जब हालात बेकाबू हो गए। उसने केंद्र और दिल्ली की सरकारों को फटकार लगाते हुए कहा कि अब चाहे 20 बैठकें कर लो, कुछ नहीं होने वाला। दुर्भाग्य से यही बात उस पर भी लागू होती है। वह सरकारों को चाहे जितनी फटकार लगा ले, अब स्मॉग रूपी बला आसानी से टलने वाली नहीं है। प्रदूषण की रोकथाम के मामले में अखिल भारतीय स्तर पर जो निष्क्रियता दिखाई गई उसी के चलते ही दिल्ली दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर में तब्दील हुआ। यदि एनजीटी सितंबर के प्रारंभ में ही सतर्क हो गया होता तो शायद वायु प्रदूषण को इतना गंभीर होने से रोका जा सकता था। चूंकि इन दिनों सर्वत्र दिल्ली के प्रदूषण की ही चर्चा है इसलिए शेष राज्य सरकारें राहत महसूस कर रही होंगी, लेकिन तथ्य यह है कि उत्तर, मध्य और पश्चिम भारत के शहरों में भी प्रदूषण खतरनाक स्तर को छूता दिख रहा है। यदि प्रदूषण की रोकथाम के मामले में ऐसी ही हीलाहवाली दिखाई गई तो दिल्ली जैसी हालत देश के अन्य शहरों की भी हो सकती है। वैसे भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया के 20 सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में 10 भारत के हैं। वायु प्रदूषण के मामले में केंद्र एवं राज्य सरकारों और संबंधित मंत्रालयों एवं एजेंसियों के रुख-रवैये से इस सवाल का भी जवाब मिल जाता है कि नदियों के प्रदूषण को दूर करने में कोई उल्लेखनीय सफलता क्यों नहीं मिल रही है?
[ लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं ]