डा. ऋतु सारस्वत: हाल में दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट ने सामूहिक दुष्कर्म सहित अन्य धाराओं में झूठा केस दर्ज कराने वाली एक महिला अधिवक्ता और उसके पिता के खिलाफ केस दर्ज करने का आदेश दिया। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने कोर्ट में कहा कि ‘दुष्कर्म जघन्य अपराध है, लेकिन इसके झूठे आरोपों से दृढ़ता से निपटने की आवश्यकता है।’ इसी तरह ‘मनीष बनाम महाराष्ट्र राज्य तथा अन्य’ के संदर्भ में बांबे उच्च न्यायालय ने भी प्रतिवादी रुचिका प्रदीप मेहरा पर दुष्कर्म का झूठा मामला दर्ज कराने के आरोप में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 195(1) के अनुसार लिखित शिकायत दर्ज कराई थी, परंतु ऐसे मामले अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं जहां झूठे दुष्कर्म के आरोप लगाने पर महिला को न्यायालय द्वारा सजा दी गई हो।

यही कारण है जिसके चलते ऐसी महिलाओं की तादाद निरंतर बढ़ रही है, जो बेखौफ होकर निजी स्वार्थ के चलते पुरुषों के विरुद्ध दुष्कर्म के झूठे मामले दर्ज करवाती हैं। अगस्त 2021 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने एक अहम फैसले में कहा था कि ‘दुष्कर्म के झूठे मामलों में खतरनाक वृद्धि हो रही है। केवल अभियुक्त पर दबाव डालने और उन्हें शिकायतकर्ता की मांगों के आगे झुकने के लिए ये मामले दर्ज किए जा रहे हैं।’

उल्लेखनीय है कि 2013 में देश की शीर्ष अदालत ने ‘कैनी राजन बनाम केरल राज्य’ मामले में निर्णय देते हुए इस बात को लेकर चिंता जताई थी कि ‘दुष्कर्म के मामलों में न केवल पीड़िता के बयान को अत्यधिक महत्व दिया जाता है, बल्कि उसे ससम्मान स्वीकार भी कर लिया जाता है, लेकिन कुछ परिस्थितियां ऐसी भी होती हैं जब न्यायालय को संशय होता है और अगर इन परिस्थितियों के बीच पीड़िता के बयान को स्वीकार किया जाए तो वह उचित नहीं होगा।’ उच्चतम न्यायालय ने यह वक्तव्य केरल उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील के दौरान दिया था। शीर्ष अदालत ने केरल उच्च न्यायालय के फैसले को पलटते हुए दुष्कर्म के दोषी को बरी कर दिया था।

शीर्ष न्यायालय की यह चिंता भारतीय समाज में पुरुषों के न्यायोचित अधिकार की पैरवी अवश्य करती है, परंतु दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि सामाजिक तथा पुलिस-प्रशासन की व्यवस्थागत भूमिका पुरुषों को ही दोषी मानकर चलती है। छद्म नारीवादी समर्थक इस तथ्य को हर स्थिति में स्थापित करने का प्रयास करते हैं कि महिला द्वारा उच्चारित हर वाक्य पूर्ण सत्य है और उस पर शंका करना महिलाओं के अधिकारों का हनन है। इस विचारधारा के पोषक पुरुषों को दोषी सिद्ध करने के लिए वे सभी हथकंडे अपनाते हैं जिससे वैसी स्थिति उत्पन्न हो जाए कि पुरुष की बातों पर किसी को भी विश्वास नहीं हो।

महिलाओं को हर स्थिति में दोषमुक्त मानने का सोच भारत ही नहीं, विश्व भर में व्याप्त है। ब्रिटेन के प्रेस्टन क्राउन कोर्ट का मार्च 2023 का निर्णय 22 वर्षीय महिला एलेनोर विलियम्स के झूठ की पोल खोलता है। विलियम्स ने अपने चोटिल चेहरे की फोटो फेसबुक पर डाली और अपनी शारीरिक पीड़ा का दोष कुछ उन पुरुषों पर मढ़ा, जिनके ऊपर वह पूर्व में दुष्कर्म का आरोप लगा चुकी थी। नतीजा यह हुआ कि जिस स्थान पर वह रहती थी वहां तनाव की स्थिति उत्पन्न हो गई।

बिना सत्यता की परख के आरोपितों को सामाजिक रूप से इस तरह प्रताड़ित किया गया कि उनमें से एक ने आत्महत्या का प्रयास किया, जबकि पुलिस जांच में यह सत्य सामने आया कि विलियम्स द्वारा झूठी पोस्ट डाली गई थी। बिना किसी अपराध के सभी आरोपितों को महीनों जेल में रहना पड़ा जिससे उनका सामाजिक और पेशेवर जीवन तहस-नहस हो गया है। विलियम्स का झूठ सामने आने पर न्यायालय ने उसे साढ़े आठ साल के कारावास की सजा सुनाई। न्यायालय ने यह भी कहा कि ‘जोखिम है कि इस प्रतिवादी (विलियम्स) के कार्यों के परिणामस्वरूप वास्तविक पीड़ित के आरोपों पर लोगों के विश्वास करने की संभावना कम हो।’

दुष्कर्म के झूठे आरोपों के बढ़ते मामलों पर ‘गिल्ट बाय एक्यूजेशन: द चैलेंज आफ प्रूविंग इनोसेंस इन द एज आफ मी-टू’ के लेखक एलन डर्शोविट्ज कहते हैं कि ‘समाज में पुरुषों की स्थिति एक विचित्र खलनायक की भांति है। अगर कोई पुरुष स्वयं पर आरोप लगाने वाली महिला को झूठी कहता है तो वह किसी महिला को झूठी कहने का दोषी माना जाता है और अगर वह आरोप को स्वीकार नहीं करता तो भी उसको ही दोषी माना जाता है। कुल मिलाकर यह एक चक्रव्यूह की भांति है जहां पुरुष हर स्थिति में दोषी माना जाता है। न्यायालय, पुलिस और हमारा समाज पुरुषों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण रखते दिखाई नहीं देते।’

यूनिवर्सिटी आफ आक्सफोर्ड का वर्ष 2016 में प्रकाशित शोध ‘द इंपैक्ट आफ रोंगली एक्यूज्ड आफ एब्यूज इन आक्यूपेशन आफ ट्रस्ट: विक्टिम्स वाइसेज’ बताता है कि सामाजिक व्यवस्थाएं ही नहीं, बल्कि कार्यस्थलों पर भी दुष्कर्म के आरोपितों को बिना सत्यता परीक्षण के अन्य किसी अपराध के आरोपितों की अपेक्षा कठोर व्यवहार का सामना करना पड़ता है। आरोप मात्र से ही उनकी पेशेवर जिंदगी खत्म हो जाती है। वित्तीय बोझ और झूठे आरोपों का कलंक उन्हें गंभीर रूप से अवसादग्रस्त बना देता है।

इस सत्य से कदापि इन्कार नहीं किया जा सकता कि दुष्कर्म किसी भी महिला के लिए जीवनपर्यंत न भरने वाला घाव है, लेकिन ठीक इसी तरह की स्थिति दुष्कर्म के झूठे आरोपों के बीच जीने वाले पुरुष की भी है। इसलिए आवश्यक है कि दुष्कर्म के मामले में जब भी प्राथमिकी दर्ज हो तो आरंभिक चरण से ही पुरुष को दोषी न मान लिया जाए, क्योंकि पूर्वाग्रहों से भरा यह सोच न्याय की राह को बाधित करता है।

(लेखिका समाजशास्त्र की प्रोफेसर हैं)