[सौरभ जैन]। 2012 Delhi Nirbhaya case:  न्यायिक सुधार वर्तमान की प्रबल आवश्यकता है। इस विषय पर बात तब और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है जब सर्वाधिक सुर्खियों में रहे निर्भया मामले में दोषियों पर आरोप सिद्ध होने के बाद भी अब तक सजा नहीं हो पाती। आरोपी न्याय व्यवस्था की दुर्बलताओं का पूरा लाभ उठाते हैं। ऐसे में फांसी की सजा पाए आरोपियों के सम्मुख न्याय फांसी पर लटका प्रतीत होता है। उल्लेखनीय है कि 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में घटित जघन्य निर्भया कांड के विरोध में देश के अधिकांश हिस्सों में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुआ था।

यह एक ऐसा मामला था जिसके आक्रोश के चलते आनन फानन में जस्टिस जेएस वर्मा समिति बनाई गई और दुष्कर्म की घटनाओं पर रोकथाम के लिए एंटी रेप बिल लाया गया, किंतु इतना सब होने के बाबजूद आज सात वर्षों बाद भी निर्भया के गुनहगार कानून से खेलते नजर आ रहे है। सवाल तो यह भी उठते हैं कि जब इस मामले में यह स्थिति है तो अन्य गंभीर मामलों में हालात क्या होंगे? ऐसे अनेक कारक हैं जिनसे न्याय व्यवस्था प्रभावित होती है।

दया याचिका व न्यायिक विकल्प : दया याचिका के खारिज होने के बाद उपलब्ध न्यायिक विकल्पों के बल पर अपराधी बार-बार सजा से बचने के हर प्रकार के हथकंडे अपना कर पूरी न्यायिक व्यवस्था का मजाक बनाते नजर आ रहे हैं। राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका अस्वीकार करने के बाद भी मृत्युदंड के दोषी के लिए न्यायिक विकल्प मौजूद रहते हैं। सितंबर 2014 में उच्चतम न्यायालय की एक संविधान पीठ ने यह अवधारित किया कि मृत्युदंड की पुष्टि करने वाले उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील की सुनवाई तीन न्यायाधीशों की एक खंडपीठ द्वारा की जाएगी। यदि उच्चतम न्यायालय इस तरह की अपील को खारिज कर देता है, तो दोषी एक पुनरीक्षण याचिका दाखिल कर सकता है और इसके पश्चात एक उपचारात्मक याचिका दायर कर सकता है। यदि इन सभी को खारिज कर दिया जाता है, तो दोषी के पास दया याचिका का विकल्प होता है। दया याचिका पर निर्णय देने के लिए कोई निर्धारित समय सीमा नहीं है।

छत्तीसगढ़ के सोनू सरदार को वर्ष 2004 में दो नाबालिगों सहित एक स्क्रैप डीलर के परिवार के पांच सदस्यों की हत्या के लिए वर्ष 2008 में मौत की सजा सुनाई गई थी। राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा उसकी दया याचिका अस्वीकार करने के बाद सोनू सरदार ने वर्ष 2015 में दिल्ली उच्च न्यायालय में ‘देरी, शक्ति का अनुचित प्रयोग और अवैध एकांत कारावास’ का हवाला देते हुए याचिका को अस्वीकार किए जाने को चुनौती दी। 28 जून 2017 को उच्च न्यायालय ने मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया। केंद्र सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय के इस निर्णय को चुनौती दी और सुप्रीम कोर्ट ने नवंबर 2017 को एक नोटिस जारी किया।

न्याय में देरी तथा विचाराधीन कैदियों की समस्या : भारत की जेलों में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे विचाराधीन कैदी बंद हैं, जिनके मामले में अब तक निर्णय नहीं दिया जा सका है। कई बार ऐसी स्थिति भी आती है, जब कैदी अपने आरोपों के दंड से अधिक समय कैद में बिता देते हैं। साथ ही इतने वर्ष जेल में रहने के पश्चात उसे न्यायालय से आरोप मुक्त कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति न्याय की दृष्टि से अन्याय को ही जन्म देती है। एनसीआरबी यानी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के जेल आंकड़े 2016 के अनुसार, देश की 1,400 जेलों में बंद लगभग 4.33 लाख कैदियों में से 67 प्रतिशत कैदी विचाराधीन थे। इसके अलावा 1,942 बच्चे ऐसे थे जो अपनी माताओं के साथ जेल में रह रहे थे। दिसंबर 2016 में 4.33 कैदियों में से 1,35,683 कैदी दोषी, 2,93,058 विचाराधीन और 3,089 निरुद्ध किए गए थे। जेलों में बंद विचाराधीन और दोषी कैदियों की संख्या के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है।

न्यायपालिका में खाली हैं बड़ी संख्या में पद : देश में 10 लाख आबादी पर 50 न्यायाधीशों की जरूरत है, किंतु वर्तमान में सिर्फ 18 न्यायाधीश ही हैं। ऐसे में न्यायपालिका से समय पर न्याय देने की उम्मीद करना उचित नहीं हो सकता है। विधि आयोग की सिफारिशों के अनुसार इन पदों की संख्या में वृद्धि किए जाने की जरूरत है। न्यायपालिका में शीतकालीन व ग्रीष्मकालीन अवकाश की भी व्यवस्था है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा इस संदर्भ में अपनी चिंता व्यक्त कर चुके हैं कि न्यायपालिका को अपने कार्यभार को कम करने लिए 365 दिन खोला जाना चाहिए। न्यायालयों के कार्य-दिवसों में वृद्धि एवं अवकाशों में कमी वर्तमान परिस्थितियों में एक प्रगतिशील कदम हो सकता है। अमेरिका के पेंसिलवेनिया में देर रात तक न्यायालय खुले रहते हैं।

मुकदमों का निरंतर बढ़ता बोझ : न्यायपालिका में रिक्त पद भी चिंता का विषय है। आंकड़ों के अनुसार बात की जाए तो वर्तमान में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों एवं अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायाधीशों के तकरीबन 4,655 पद रिक्त हैं। एक तरफ अदालतों में मुकदमों का बोझ बढ़ता चला जा रहा है, तो दूसरी ओर अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति ही नहीं की जा रही है। ऐसी स्थिति में लंबित मुकदमों के निपटारे एवं त्वरित न्याय की कल्पना कैसे की जा सकती है? मुकदमों की बढ़ती संख्या के आधार पर अनुमान है कि आगामी 10 वर्षों में देश में 10 लाख न्यायाधीशों की जरूरत होगी। आबादी के ताजा आंकड़ों के हिसाब से 135 करोड़ भारतीयों के लिए हमें देश में 65 हजार अधीनस्थ न्यायालयों की आवश्यकता है, लेकिन वर्तमान में 15 हजार न्यायालय भी नहीं हैं। यदि अमेरिका की बात करें तो वहां पर 10 लाख की आबादी पर 111 न्यायालय हैं और ब्रिटेन में 55 न्यायालय हैं। ऐसे में हमारे देश में इस संबंध में अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है।

घटती सजा दर और बढ़ते अपराध के मामले : एक ओर न्याय व्यवस्था अपनी समस्याओं से जूझ रही है तो दूसरी ओर अपराध के स्तर में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। कुछ समय पूर्व जारी एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार दुष्कर्म के मामलों में देश में सजा की दर अब भी मात्र 27.2 प्रतिशत है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2018 में दुष्कर्म के 1,56,327 मामलों में मुकदमे की सुनवाई हुई। इनमें से 17,313 मामलों में सुनवाई पूरी हुई और केवल 4,708 मामलों में ही दोषियों को सजा हुई। आंकड़ों के मुताबिक 11,133 मामलों में आरोपी बरी कर दिए गए जबकि 1,472 मामलों में आरोपियों को आरोपमुक्त किया गया। उल्लेखनीय है कि किसी मामले में आरोपमुक्त तब किया जाता है जब आरोप तय नहीं किए गए हों। वहीं मामले में आरोपियों को बरी तब किया जाता है, जब मुकदमे की सुनवाई पूरी हो जाती है। खास बात यह है कि वर्ष 2018 में दुष्कर्म के 1,38,642 मामले लंबित थे। दुष्कर्म के मामलों में सजा की दर वर्ष 2018 में इससे पिछले वर्ष के मुकाबले घटी है।

वर्ष 2017 में सजा की दर 32.2 प्रतिशत थी। उस वर्ष दुष्कर्म के 18,099 मामलों में मुकदमे की सुनवाई पूरी हुई और इनमें से 5,822 मामलों में दोषियों को सजा हुई थी। दुष्कर्म के खिलाफ कानून को वर्ष 2012 में निर्भया कांड के बाद सख्त किए जाने के बावजूद सजा की दर कम ही रही है। यह तथ्य इस बात की ओर इशारा करता है कि सिर्फ कानून से अपराध पर अंकुश नहीं लगेगा। अपराध मुक्त समाज के लिए कानून का प्रभावी क्रियान्वयन जरूरी है। इस राह में आ रहे तमाम गतिरोधों को दूर किए जाने का प्रयास पूरी तत्परता से होना चाहिए।

सात वर्षों से अधिक समय बीत जाने और उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्भया के दोषियों को फांसी की सजा सुनाए जाने के बावजूद उन्हें अब तक फांसी पर नहीं लटकाया गया है। कल यानी बुधवार को भी निर्भया की मां को दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत में यह गुहार लगानी पड़ी कि दोषियों को जल्द से जल्द फांसी पर लटकाया जाए, लेकिन किसी तारीख का निर्धारण एक बार फिर नहीं हो पाया। ऐसे में यह सवाल खड़ा होता है कि आखिर इस तरह के बेहद गंभीर मामलों में इतनी देरी क्यों होती है।

[शोध अध्येता, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर]

यह भी पढ़ें:-

Nirbhaya Case: दोषियों को जल्द फांसी देने की मांग को लेकर निर्भया की मां का कोर्ट के बाहर प्रदर्शन

2012 Delhi Nirbhaya case: राष्ट्रपति के दया याचिका खारिज करने को विनय ने दी SC में चुनौती, आज होगी सुनवाई