जि़ंदगी के अक्स नाटकों में
बिज़ी शेड्यूल और हाइ-फाइ लाइफस्टाइल..! फिर भी यूथ किसी खास चीज़ के लिए समय निकाल रहे हैं। दरअसल, इन दिनों उन्हें जीवन से जुड़े मुद्दों पर आधारित नाटक भा रहे हैं। इनमें वे न सिर्फ अपनी समस्याओं का हल ढूंढते हैं, बल्कि देश-राजनीति के मुद्दों के बारे में भी अपनी
बिज़ी शेड्यूल और हाइ-फाइ लाइफस्टाइल..! फिर भी यूथ किसी खास चीज़ के लिए समय निकाल रहे हैं।
दरअसल, इन दिनों उन्हें जीवन से जुड़े मुद्दों पर आधारित नाटक भा रहे हैं। इनमें वे न सिर्फ अपनी समस्याओं का हल ढूंढते हैं, बल्कि देश-राजनीति के मुद्दों के बारे में भी अपनी संशय दूर करते हैं। फिल्मी कलाकार भी थिएटर में काम करना बेहद पसंद करते हैं।
ब्रिटिश थिएटर प्रोड्यूसर और डायरेक्टर इयान डिकेंस ने एक थिएटर फेस्टिवल के दौरान नाटकों की महत्ता बताई। वे कहते हैं, 'नाटकों की दुनिया छोटी ज़रूर है, लेकिन समाज को बदलने की ता$कत रखती है। इसमें जीवन से जुड़े कई प्रश्नों के जवाब मिल सकते हैं।' शायद डिकेंस की इस बात का प्रभाव सबसे अधिक दिल्ली और एनसीआर के युवाओं पर पड़ा है! तभी तो इन शहरों की रेपट्रीज़ में दर्शकों में युवाओं की संख्या अधिक होती है। नाटकों के प्रति यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स की भी अभिरुचि बढ़ रही है। इसकी वजह पूछने पर नाटककार असगर वज़ाहत कहते हैं कि इन दिनों युवाओं के जीवन से जुड़े मुद्दों पर भी नाटक बन रहे हैं। इनमें अपनी समस्याओं और उनके निदान की बातें सुनकर वे इनसे जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। न केवल नए बल्कि पुराने नाटकों को भी आज के संदर्भ में पेश किया जा रहा है।
समसामयिक विषयों पर नाटक
्'शादी-ब्याह में इतना तामझाम क्यों किया जाता है? पैसों की इतनी बर्बादी क्यों की जाती है?Ó दर्शकों की ओर इंगित करते हुए थिएटर के मंझे कलाकार अनंत महादेवन प्रश्न पूछते हैं। यह दृश्य है 'ब्लेम इट ऑन यशराजÓ नाटक का। यह नाटक दिल्ली, हरियाणा, नोएडा की अलग-अलग रंग मंडलियों द्वारा खूब मंचित किया जा रहा है। इसे दो बार देख चुके डीयू के छात्र सुविज्ञ द्विवेदी कहते हैं, 'इन दिनों शादी की पार्टियों में पैसे की खूब बर्बादी होती है। खाने से अधिक लोग भोजन फेंकते हैं। यदि किसी एक दिन इन्हें एकत्रित किया जाए, तो भूखे पेट सोने वाले 30 लाख लोगों के लिए एक शाम के भोजन की व्यवस्था की जा सकती है। इसी बात को समझाने का प्रयास किया है इस नाटक ने। इसने न सि$र्फ मेरी, बल्कि मेरे दोस्तों की भी शादियों में होने वाली फिज़ूलखर्ची के प्रति आंखें खोल दीं।Ó नाटककार राकेश पांडेय कहते हैं कि इन दिनों कई सामाजिक मुद्दों, जैसे कि बेरोज़गारी, विस्थापन, आरक्षण, दहेज प्रथा, बलात्कार, भ्रूण हत्या पर नाटक बन रहे हैं, जो युवाओं को न सि$र्फ सोचने के लिए मजबूर कर रहे हैं, बल्कि इस दिशा में कार्य करने के लिए भी का$फी प्रेरित कर रहे हैं।
पुरानी बात नया कलेवर
'औरंगज़ेब अपने पुत्र दारा शिकोह की ताजपोशी करना चाहता है। वह शासन की हर कुटिल चालों से उसे अवगत करा देना चाहता है। पर दारा एक ऐसा युवक है, जो समाज और घर-परिवार के थोपे गए आदर्शों का विरोध करता है।Ó यह दृश्य 'दाराÓ नाटक का है, जिसके दिल्ली विश्वविद्यालय में कई शोज़ हो चुके हैं। इसे देखकर छात्रों की तालियों से पूरा हॉल गूंज उठता है। कंप्यूटर इंजीनियर सुरभि मल्होत्रा कहती हैं कि भले ही पात्र पौराणिक हों या ऐतिहासिक, पर यदि कथ्य आज के संदर्भ से जुड़ा हो तो दर्शक दिल से जुड़ जाते हैं। तब नए-पुराने का भेद भी मिट जाता है। निर्देशक अवनीश श्रीवास्तव कहते हैं कि ऐतिहासिक या पौराणिक पात्रों की कहानियों को नए संदर्भ में पेश किया जाता है। इस नाटक में नायक की जो मनोस्थिति है, वह आज के लाखों युवाओं की हो सकती है। वे जीवन के किसी न किसी मोर्चे पर लड़ाई कर रहे हंै। आज के समय के साथ तारतम्य बिठाने के लिए लाइट्स और म्यूजि़क सेट का सही इस्तेमाल किया जाता है। राजे-रजवाड़े की शान-शौ$कत को सेट पर प्रदर्शित नहीं किया जाता है। कॉस्ट्यूम्स में भी तड़क-भड़क नहीं दिखाई जाती है। पुराने किरदारों को नया रंग देकर नई बात कही जाती है।
सोशल साइट्स की मदद
थिएटर आर्टिस्ट अशोक राजपूत जब भी किसी नाटक में अभिनय करते हैं तो उसके प्रमुख दृश्यों को सोशल साइट्स जैसे कि फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर और यूट्यूब पर अपलोड कर देते हैं। इससे उन्हें तुरंत फीडबैक मिल जाता है। विदेश में बसे भारतीय लेखक संदीप नैयर ने अपने
यारों-दोस्तों के कई नाटकों को ऑनलाइन देखा है। उन्होंने पुराने नाटकों के कुछ अंशों को भी इन साइट्स पर देखा है। संदीप कहते हैं कि युवाओं को नाटकों से जोडऩे में अहम भूमिका निभाई है सोशल साइट्स ने। इससे न सि$र्फ अभिनय को प्रोत्साहन मिला है, बल्कि युवा दर्शकों के रूप में नए बाज़ार को भी जोड़ा गया है। नाटकों के कुछ अंशों को देखकर वे पूरा नाटक देखने के लिए प्रेरित हो जाते हैं। वहीं थिएटर के लिए अभिनय करने वाली सोनाली कहती हैं कि सोशल नेटवर्क को अच्छा कहें या बुरा, एक बार कोई यदि इस नेटवर्क से जुड़ जाता है तो उसका काम दर्शकों और पाठकों की नज़रोंं से कभी ओझल नहीं होता है। नाटक या कलाकारों के नाम से फेसबुक पेज भी बनाए जाते हैं।
इस विधा का कोई मु$काबला नहीं
मनोरंजन की इस विधा का कोई मु$काबला नहीं है। यही वजह है कि फिल्म कलाकार भी इससे जुडऩे का मोह नहीं छोड़ पाते हैं। समसामयिक विषयों पर बनने वाले नाटक युवाओं को आकर्षित करते हैं।
थिएटर में अभिनय
मुझे थिएटर में अभिनय करना बचपन से पसंद था। सात-आठ साल की थी, तभी से करती आई हूं। दिल्ली के थिएटर के लिए कुछ खास नहीं किया, लेकिन मुंबई के थिएटर में खूब काम किया है।
दर्शकों से संवाद
दर्शकों से सीधा संवाद होता है नाटकों में, तभी ये खास होते हैं। जब मुझे 'उमराव जान' नाटक ऑफर हुआ, तो मैं इसे साइन करने से खुद को रोक ही नहीं पाई।
स्मिता