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.ताकि ¨जदा रहे ताड़ के पत्तों पर लेखन की परंपरा

महाभारत, रामायण ही नहीं आयुर्वेद समेत धार्मिक ग्रंथों की एक महान परंपरा ताड़ के पत्तों पर संरक्षित की गई। जिसका इतिहास सैकड़ों साल पुराना है। लेकिन बदलते दौर में ताड़ के पत्तों पर लेखन की प्राचीन शैली धीरे धीरे लुप्त ही होती जा रही है। इसका संरक्षण करने एवं लोगों को इसकी विशेषता बताने के मकसद से इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने अनूठी पहल की है। केंद्र ताड़ के पत्तों पर लेखन की प्राचीन विधि के प्रति लोगों केा जागरूक करेगा। इसी कड़ी में सोमवार को पब्लिक लेक्चर का आयोजन किया गया। जिसमें डॉ पी पेरुमल समेत आईजीएनसीए के संरक्षण विभाग के पदाधिकारियों ने ताड़ के पत्तो पर लेखन की परंपरा एवं इसके संरक्षण के महत्व पर प्रकाश डाला।

By JagranEdited By: Published: Mon, 21 Jan 2019 09:14 PM (IST)Updated: Mon, 21 Jan 2019 09:14 PM (IST)
.ताकि ¨जदा रहे ताड़ के पत्तों पर लेखन की परंपरा

संजीव कुमार मिश्र, नई दिल्ली

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महाभारत, रामायण ही नहीं आयुर्वेद समेत धार्मिक ग्रंथों की एक महान परंपरा ताड़ के पत्तों पर संरक्षित की गई, जिसका इतिहास सैकड़ों साल पुराना है। हालांकि, बदलते दौर में ताड़ के पत्तों पर लेखन की प्राचीन शैली धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है। इसका संरक्षण करने और लोगों को इसकी विशेषता बताने के मकसद से इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने अनूठी पहल की है। केंद्र ताड़ के पत्तों पर लेखन की प्राचीन विधि के प्रति लोगों को जागरूक करेगा। इसी कड़ी में सोमवार को पब्लिक लेक्चर का आयोजन किया गया। इसमें डॉ. पी पेरुमल समेत आईजीएनसीए के संरक्षण विभाग के पदाधिकारियों ने ताड़ के पत्तों पर लेखन की परंपरा और इसके संरक्षण के महत्व पर प्रकाश डाला। कैसे होता था ताड़ के पत्ते पर लेखन

संरक्षण विभाग के प्रोजेक्ट एसोसिएट अनिल द्विवेदी कहते हैं कि भारत में पल्माइरा, श्रीतला समेत तीन तरह के ताड़ पाए जाते हैं। पल्माइरा पर सबसे ज्यादा लेखन हुआ। अनिल कहते हैं कि दक्षिण भारत में सबसे ज्यादा ताड़ के पत्तों पर लेखन हुआ। सबसे पहले पत्ते को तोड़कर छांव में सुखाया जाता था और फिर साफ्ट करने के लिए किचन में कई दिनों तक टांग कर रखा जाता था। फिर पत्ते पर लिखने के लिए प्लेन बनाने के मकसद से इन्हें पत्थरों पर बड़े सलीके से रगड़ा जाता था। बाद में नुकीले लोहे से पत्तों में छिद्र करके लिखा जाता था। बाद में इसपर कार्बन इंक रगड़ा जाता था। इससे छिद्र में कार्बन भर जाता था और इस तरह लिखावट दिखने लगती थी। पत्ते को कीड़े से बचाने और कार्बन ना छूटे, इसके लिए भी जतन किए जाते थे। बकौल पदाधिकारी, इसके लिए धतूरे का दूध पत्तों पर लगाया जाता था। कब से हो रहा लेखन

ताड़ के पत्तों पर लेखन कब से हो रहा है, इसको लेकर मतभेद हो सकते हैं। ताड़ के पत्ते पर पांडुलिपि लिखने का इतिहास काफी पुराना है। डॉ. पी पेरुमल ने बताया कि आमतौर पर इन्हें 500 साल तक संरक्षित करके रखा जा सकता है।

दरअसल, विकास के काल क्रम में पहले बोलकर ही कला-संस्कृति का प्रसार हुआ, लेकिन जैसे जैसे सभ्यता समृद्ध हुई, लिखने की कला विकसित हुई तो सबसे पहले ताड़ के पत्तों पर ही पांडुलिपियां लिखी गई। ताड़ के पत्ते पर पांडुलिपियां जो मिलती है, वो 8वीं शताब्दी से भी पुरानी है। 1700-1800 में ब्रिटिशन काल के भी अधिकतर रिकार्ड ताड़ के पत्तों पर ही मिलते हैं। दक्षिण भारत में ताड़ के पत्तों पर लेखन, जबकि उड़ीसी में लेखन के साथ चित्र भी बनाया जाता था। संरक्षण की जरूरत

अनिल द्विवेदी कहते हैं कि ताड़ के पत्तों पर लेखन को संरक्षित करने की आवश्यक है। आधुनिकता की दौड़ में पुरातन लेखन कलाओं को संरक्षित कर हम अपने धरोहर सहेज सकते हैं। वर्तमान में सिर्फ तमिलनाडु में ताड़ के पत्तों पर लेखन होता है, हालांकि इसकी संख्या भी कम होती जा रही है। इसलिए इस तरह के व्याख्यान आयोजित किए जा रहे हैं, ताकि छात्रों व शोधार्थियों को ही नहीं, अपितु आम लोगों को भी ताड़ के पत्तों पर लेखन के बारे में पता रहे। भविष्य में भी इस तरह के व्याख्यान आयोजित किए जाएंगे।


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