ओडियाभाषी को पुकार रहा है ओडीशा पर्व
- परंपरा की रंगत को संरक्षण दे रहा है आयोजन - अपनी-अपनी खासियत के साथ मौजूद हैं शिल्प की कई
विकास पोरवाल, नई दिल्ली :
¨हदुस्तान की सरजमीं में खास बात है कि बाशिंदा कहीं भी चला जाए उसे अपनी मिंट्टी की याद हर जगह सताती है। यह सताना कभी-कभी दुख में तब्दील हो जाता है और इतिहास गवाह है कि सबसे खूबसूरत कृतियों के रंग कहीं न कहीं दुख के आंसू में भीगे होते हैं। इंडिया गेट लॉन परिसर में सजा ओडीशा महापर्व अपनी मिंट्टी का याद में समर्पित उत्सव है, जिसमें लोक परंपरा के रंग समाए हुए हैं तो व्यवस्था का आधुनिकीकरण इसे दोनों हाथों से संरक्षण दे रहा है।
भवन-मंडपनुमा बने प्रवेश द्वार में भगवान जगन्नाथ की प्रतिकृति विराजमान है, जो एक ओडीशावासी में यहां पहुंचते ही दैवीय और अपनेपन का अहसास जगा देती है। परिसर में पहला कदम रखते ही सामने उसका अपना ओडीशा सजा होता है। एक तरफ क्रांति की झांकियां इतिहास से रूबरू कराती हैं तो दूसरी तरफ लोकनृत्य परंपरा के धागे में कसकर बांधते चलते हैं। मांझी गीत, छऊ नृत्य इन सभी को देखना मनोरम है।
30-35 किलो के हैं परिधान
छऊ नृत्य के विषय मुख्यत: पौराणिक आख्यान पर आधारित होते हैं। इसमें पुरुष नर्तक देवी-देवताओं की भारी-भरकम पोशाक पहनकर किरदार के आधार पर नृत्य करते हैं। पर्व मृदंग वादकों का समूह एकताल में थाप देते हुए उमंग बढ़ा रहा है और दर्शकों का जमावड़ा परंपरा के इस हस्ताक्षर को देखने उमड़ आया है। नृत्य करती काली कभी रक्तबीज का हनन करती हैं, कहीं दुर्योधन की जंघा टूटती है तो कभी लक्ष्मण मेघनाद का वध कर देते हैं। प्रसंग लगातार जारी हैं और किरदार इनमें लीन हैं। 30-35 किलो के भारीभरकम आवरण व पोशाक पहनकर दिनभर एक ही ऊर्जा और एक ही गति के साथ नृत्य करना देखने वालों को अंगुलियां दांतों तले दबाने को मजबूर कर देता है। काली का किरदार निभा रहे गोवर्धन राज ने कहा कि 17 साल की उम्र से इस छऊ नृत्य का हिस्सा हूं, अब आदत हो चुकी है। एक प्रस्तुति के बाद आराम के लिए समय मिलता है, उस दौरान लोग इसी पोशाक में सेल्फी लेना चाहते हैं। उनके इस प्रेम की अनदेखी नहीं की जा सकती है।
दाना-दाना जोड़कर..
धन-धान्य से भरा-पूरा प्रदेश है ओडीशा। इसकी विस्तृत झलक हस्त शिल्प के एक विशेष स्टॉल (पैडी क्रॉफ्ट) पर मिलती है, जहां धान के दाने जुड़ते चले जाते हैं और कोई कलाकृति सामने आ जाती है। धान के दानों कर धागे से बांध कर मंगलकलश, मगरमच्छ, अश्व युग्म, गणपति जैसे कई सजावटी और आकर्षक शिल्प का निर्माण किया गया है। लोग इन्हें पसंद कर रहे हैं। पैडी का तात्पर्य धान से है।
बहुत खूबसूरत हैं ये राह के रोड़े
जिन पत्थरों को अक्सर राह की बाधा समझ कर हटा दिया जाता है, संजीब कुमार की कलाकारी उन्हें अनमोल बना देती है। पत्थरों पर बहुत ही बारीक काम करते हुए उनपर कृतियां व आलेखन उकेरे गए हैं। किसी पर प्रकृति का चित्रण है तो किसी पर कलात्मक वाक्य लिखे हैं।
ये भी हैं खास
पर्व में सजा हर स्टॉल अपनी खासियत के साथ उपस्थित है। आदिवासी परंपरा के आभूषण बनाने वाली कला ढोकरा रासायनिक धातुकर्म से परिचित कराती है। पिप्पली चांदुआ की छाप कपड़ों, छतरियों या फिर दैनिक वस्तुओं पर नजर आ जाती है। साड़ियों पर बखूबी सजाए गए पटचित्र किसी ओडीशावासी को बरबस ही पास बुला लेते हैं। तीन दिवसीय यह मेला ओडीशा में फैले किसी सागर तट की तरह है, लहरों की आवाज हर उस ओडियाभाषी के कानों में पुकार बनकर गूंज रही है। मजबूरी में माटी से दूर हुआ वह बाशिंदा यहां आए और अपनेपन की हवा में कुछ पल की सांस ले सके।