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International Yoga Day 2021: योग से पनपे करुणा व मैत्री भाव को अपनाकर मिटा दें मन के विकार

हरिद्वार के देव संस्कृति विश्वविद्यालय के डीन डा. ईश्वर भारद्वाज ने बताया कि यदि आपका चित्त प्रसन्न है आप सकारात्मक सोच को लेकर आगे बढ़ रहे हैं मानसिक भावनात्मक बौद्धिक रूप से संतुलित हैं तो चट्टान जैसी मुसीबतों को भी सागर की लहरों की तरह टक्कर दे सकते हैं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 17 Jun 2021 01:59 PM (IST)Updated: Thu, 17 Jun 2021 01:59 PM (IST)
International Yoga Day 2021: योग से पनपे करुणा व मैत्री भाव को अपनाकर मिटा दें मन के विकार
जीवन को संतुलित रखने में योग मार्गदर्शक है।

यशा माथुर। आज सत्तर फीसद लोग मानसिक रूप से परेशान हैं। कुछ लोगों को किसी दूसरे ने मुश्किलें नहीं दी हैं बल्कि उन्होंने स्वयं अपनी स्थिति कष्टदायक कर ली है। जब हमारे मन में आने लगता है कि हमारा पड़ोसी हमसे अच्छा क्यों है तो हम ईष्र्या करने लगते हैं। यह ईष्र्या हमारे मानसिक संतुलन को खराब कर सकती है। महत्वपूर्ण प्रश्न तो यह है कि चित्त कैसे प्रसन्न रहे? हर कोई चाहता है कि वह प्रसन्न रहे लेकिन रह नहीं पाता। इसके लिए आपको पड़ोसी से पनपे ईष्र्या भाव को मित्रता भाव में परिवर्तित करना पड़ेगा, नहीं तो आप हमेशा दुखी ही रहेंगे। कोई सुखी है तो उसे देखकर हमें खुश होना चाहिए।

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जब मैत्री भाव आ जाएगा तो हम दूसरों से मित्रता अनुभव करेंगे और उसके अनुरूप ही व्यवहार करेंगे। इसी तरह हमारे मन में करुणा का भाव होना चाहिए। दूसरे का दुख देखकर हम उसकी मदद के लिए सोचें, उसके कष्ट दूर करने के बारे में सोचें। ऐसी स्थिति में जब करुणा हमारे भीतर बहेगी तो मन का सारा मैल बाहर आ जाएगा। आप देखिए, अगर आप किसी दिन किसी की मदद कर देते हैं तो अपके भीतर कितना आनंद का भाव जागता है। करुणा का भाव हमें निर्मल बनाता है और मन जितना निर्मल होता है हम परमात्मा के निकट पहुंचते जाते हैं। मन को निर्मल करने के लिए सत्य का आचरण करें। उसको अपनाएं। सत्य से मन शुद्ध होता है। बुद्धि को शुद्ध करना है तो ज्ञान चाहिए। इन भावनाओं को साथ लेकर चलें तो मन के विकार मिट जाएंगे।

सकारात्मक सोच की है आवश्यकता: योग का सिद्धांत है कि जो स्वस्थ है वह स्वस्थ बना रहे। यह बचावकारी स्थिति है। अगर कोई रोगग्रस्त हो जाए तो रोग से निवारण हो जाए। इसमें उपचारात्मक अवस्था सम्मिलित है। योग दोनों तरीके से काम करता है। शरीर का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक दृष्टि से विकास करता है। सामाजिक संरचना ठीक करने में योग कारगर है। हमारे जीवन में संतुलन की समस्या को ठीक करने में भी योग मार्गदर्शक है। नैतिक उन्‍नति के लिए सहायक है। हम दूसरे की टांग खींच कर आगे न बढ़ें, बल्कि दूसरे को साथ लेकर आगे बढ़ते रहें। वेदों के अनुरूप आचरण करना, वैदिक दिनचर्या का पालन करना और योग के विकास द्वारा बेहतर जीवन जीना ही योग का संदेश है। जब कोई दानी दान करता है तो हम उसमें कमी निकालने की कोशिश करते हैं। हम तो दान करते नहीं, लेकिन उसके दान से उसे जो महत्ता हासिल हो रही है उससे हम जलन महसूस करते हैं जबकि हमें उस पुण्यशाली के कार्य में खुशी महसूस करनी चाहिए। मान लीजिए किसी ने अस्पताल बनवाया है तो लोगों के भले के लिए ही तो काम किया लेकिन हम कहते हैं कि उसने अपने पिता के लिए उनके नाम से अस्पताल बनवाया या काले धन को यहां लगाया है। यहां हमने समाज के भले के लिए काम करने की मंशा को नहीं देखा बल्कि उसकी आलोचना की। इस परिस्थिति में हमें सकारात्मक सोच की आवश्यकता है।

चरित्र को करें शिक्षित: योग का मतलब केवल आसन और प्राणायाम करना मात्र नहीं है जबकि लोग ऐसा ही समझते हैं। योग के आठ अंग है। अष्टांग योग में यम, नियम,आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि का समावेश है। यम में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह पांच विभाग हैं। इन्हें जैन धर्म में महाव्रत कहा गया है। यदि इनमें से एक का भी पालन कर लेंगे तो आपका जीवन सफल है। अहिंसा का मतलब है किसी को भी कष्ट नहीं पहुंचाना। न मन से, न वाणी से और न शरीर से। आप सिर्फ अहिंसा का पालन करेंगे तो सभी का पालन हो जाएगा। सत्य का आचरण करेंगे तो बाकी का भी आचरण हो जाएगा। ये सभी एक-दूसरे से जुड़े हैं। जब हम जीवन में इन यमों का पालन कर लेंगे तो हमें सत्य का मार्ग हासिल हो जाएगा। यम और नियम आपस में जुड़े हैं। अगर हम इनका पालन करें तो अपने देश का प्राचीन गौरव प्राप्त कर सकते हैं। मनुस्मृति में कहा गया है कि हमारे भूमंडल में उत्पन्न हुए विद्वान लोगों की संगति और सान्‍निध्य से अपने चरित्र को शिक्षित करें यानी उनके चरित्र और आचरण को देख कर अपनाने का प्रयत्न करें। सभी अपनाएंगे, तभी मनुष्य वास्तव में मनुष्य कहलाने का अधिकारी होगा। मनुष्य और पशु में सिर्फ विवेक का अंतर है। बाकी सब चीजें वही हैं। धर्म का अर्थ भी कर्तव्य व कर्म करना है। कर्तव्य ही धर्म है। जब तक आप कर्तव्य पूरे नहीं करेंगे तब तक आप मनुष्य कहलाने के अधिकारी नहीं हैं। केवल आपको मनुष्य का शरीर मात्र मिला है।

मानें मानव धर्म को: नियम के पांच विभाग हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान। शौच का अभिप्राय शुचिता यानी पवित्रता से है। इसका अर्थ बाहरी पवित्रता जैसे साबुन से नहा लेना, धुले हुए वस्त्र पहन लेना नहीं है बल्कि यहां आंतरिक शुचिता की यानी मन की पवित्रता की बात आती है। सत्य के आचरण से मन पवित्र होगा। धर्म के दस लक्षण हैं। जिनमें यह है वह धार्मिक कहलाएगा और जिसमें नहीं है वह अधार्मिक। आज समय की मांग है कि हम मानव धर्म को मानें। योग मानव धर्म का ही संदेश देता है। यहां कोई भेद-भाव नहीं रह जाता है। जैसे सूर्य सभी को धूप, गर्मी और रोशनी देता है, वायु सभी को समान रूप से प्राप्त होती है, वैसे ही परमात्मा ने सब चीजें सभी के लिए समान रूप से बनाई हैं। बस मनुष्य के कल्याण का भाव लेकर उनका उपयोग करें तो ज्यादा लाभकारी रहेगा। इसी तरह से वेद व योग सबके लिए समान रूप से हैं। हम मानव चेतना के विकास की बात करते हैं। हम मानव चेतना के उस स्तर तक पहुंच सकते हैं जहां किसी बात का भेदभाव न रहे।

सीखकर घर में ही करें योग: कोविड के परिप्रेक्ष्य में घर में योग करने की जरूरत बन गई है। लेकिन केवल टीवी में देखकर योग करने से आप पर उसका विपरीत प्रभाव भी हो सकता है। निर्देशानुसार योग ठीक से किया जाना चाहिए। घर में रहकर योग करेंगे तो कोविड के प्रभाव से बच जाएंगे। घर में योग लाभकारी है लेकिन इसे ठीक से किया जाना चाहिए। आनलाइन प्रशिक्षण ले लें और सही तरीके से प्रयोग करें। आनलाइन लेक्चर में हम पीपीटी भी बनाते हैं। प्रैक्टिकल के दौरान योग करते हुए भी दिखाते हैं। विद्यार्थी प्रश्नोत्तर भी कर सकते हैं। वर्ष 1982 से लेकर अब तक योग की शिक्षा देते हुए लगभग चालीस साल होने वाले हैं। अलग-अलग रोग के रोगी भी हमारे पास आए और स्वस्थ होकर गए। गलत अभ्यास करने वालों को भी हमने सही तरीका बताया।

मन खुश तो तन खुश: हम अपने जीवन में हमेशा असंतुष्ट रहते हैं। हमें जो भी प्राप्त हुआ है हम उसमें कमी ढूंढ़ते हैंं। जो मिला है उसी में हम संतुष्ट हों। आनंद की अनुभूति करें। जब हम दूसरे का सुख देखकर दुख महसूस करते हैं तो हमें अपने सुख की भी अनुभूति नहीं होती। हम तालमेल नहीं बिठा पाते तो अपने सोच से मानसिक रोगी बन जाते हैं। बेहतर बनने का प्रयास करते रहें और उससे जो प्राप्त हो उससे प्रसन्न रहें। अगर आप मानसिक रूप से संतुष्ट नहीं रहेंंगे तो शारीरिक तौर पर भी दुखी ही रहेंगे। मन व शरीर एक-दूसरे पर आश्रित है। मन खुश तो तन खुश। मन का प्रभाव शरीर पर, तन का प्रभाव है मन पर। मेरी उम्र 66 की होने जा रही है। मैं जीवन में योग को जीता हूं। मैं हर वक्त उन्मुक्त रहता हूं। अपने आप में स्वतंत्र। किसी बंधन में नहीं बंधा हूं। जिम्मेदारियां भी पूरी करता हूं और परमात्मा में भी लीन रहता हूं। परमात्मा मेरे निकट रहते हैं। मुझे मृत्यु का खौफ भी नहीं है। मैं अपने आप में संतुष्ट व्यक्ति हूं, जिसे कोई तनाव नहीं है।

योग आध्यात्मिक शास्त्र है: आयंगर की योग गुरु निवेदिता जोशी ने बताया कि योग जीवन जीने की शैली है। लोग सोचते हैं कि प्राणायाम और आसन ही योग है लेकिन ऐसा नहीं है। चित्त की प्रवृत्तियों का निरोध ही योग है। योग मेरे लिए संगीत की तरह है। अच्छा संगीत भी तो आत्मा का परमात्मा से मिलन कराता है और योग भी आत्मा का परमात्मा से मिलन कराता है। हर साधना परमात्मा से जोड़ती हैं लेकिन चूंकि योग साधना में आध्यात्मिक ज्ञान जुड़ा है इस कारण यह सर्वोपरि है। इसमें कायाकल्प की शक्ति है। योग ने मेरा जीवन तो पूरा बदल दिया और अब योग के जरिए मैं बाकी लोगों का जीवन भी बदल रही हूं। दुनिया में मैं अकेली ऐसी हूं, जिसने ब्रेल में योग पर किताब लिखी है। आयंगर योग को अपने जीवन का हिस्सा बनाकर मैं न केवल तन-मन से स्वस्थ हो सकी, बल्कि आज योग की सेवा कर रही हूं। खुद योग गुरु हूं। माइक्रोबायोलॉजिस्ट से योग शिक्षक बन गई हूं।


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