देश की इस लोकसभा सीट से चुने जाते थे 2 सांसद, एक सामान्य तो दूसरा आरक्षित
पहले दोनों चुनावों में सामान्य वर्ग से जीते थे सी कृष्ण नायर और आरक्षित सीट से विजय मिली थी नवल प्रभाकर को। उनका सरनेम जजौरिया था जो वे लिखते नहीं थे।
नई दिल्ली [विवेक शुक्ला]। दिल्ली में 1952 से अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित सीट बदलती रही है। यानी इस समाज के लिए एक ही सीट आरक्षित नहीं रही। पहले और दूसरे लोकसभा चुनाव जो 1952 और 1957 में हुए, उसमें बाहरी दिल्ली सीट से दो उम्मीदवार निर्वाचित किए जाने की व्यवस्था थी। एक सामान्य और दूसरा अनुसूचित जाति से। पहले दोनों चुनावों में सामान्य वर्ग से जीते थे सी कृष्ण नायर और आरक्षित सीट से विजय मिली थी नवल प्रभाकर को। उनका सरनेम जजौरिया था, जो वे लिखते नहीं थे। ये दोनों स्वाधीनता आंदोलन के नपे हुए नेता थे।
करोल बाग में रेगर बिरादरी का खास असर था
अब हम 1962 के लोकसभा चुनाव में आते हैं। इस चुनाव में करोल बाग के रूप में एक नई आरक्षित सीट सामने आती है। इस बार फिर से कांग्रेस ने नवल प्रभाकर को अपना उम्मीदवार बनाया और वे जीते भी। वे करोल बाग से ही थे। करोलबाग क्षेत्र के वरिष्ठ भाजपा नेता और 1993 में मदन लाल खुराना की कैबिनेट में मंत्री रहे सुरेन्द्र रातावाल बताते हैं कि नवल प्रभाकर रैगर बिरादरी से थे। करोल बाग में रेगर बिरादरी का खास असर होता था, है। ये सब लोग मूल रूप से राजस्थान से थे। हो सकता है कि राजधानी की नई पीढ़ी को मालूम ना हो कि करोल बाग क्षेत्र से दलितों और पिछड़ों के नायक डॉ. भीमराव आंबेडकर का भी करीबी संबंध रहा है। वे जब नेहरु की कैबिनेट में थे और उसे छोड़ने के बाद भी करोल बाग के टैंक रोड और रैगरपुरा जैसे इलाकों में अपने परिचितों से मिलने जुलने के लिए जाना पसंद करते थे। यहां चमड़े का काम करने वाले दलितों की घनी बस्तियां थीं।
1967 में लगी कांग्रेस की सीट में सेंध
बहरहाल करोल बाग जिसे कांग्रेस का गढ़ समझा जाता था, में भारतीय जनसंघ ने 1967 में सेंध लगा दी। तब यहां से राम स्वरूप विद्यार्थी ने ये सीट निकाल ली। इसकी मुख्य रूप से वजह ये थी कि करोलबाग में राजेन्द्र नगर और पटेल नगर जैसे बड़े इलाके थे, जहां पर देश के विभाजन के बाद आकर बसे शरणार्थी पंजाबी भारी संख्या में रहने लगे थे। ये भारतीय जनसंघ की विचारधारा से अपने को अधिक करीब मानते थे। फिर भारतीय जनसंघ के शिखर नेता बलराज मधोक का भी इस सीट पर व्यक्तिगत असर था। वे न्यू राजेन्द्र नगर में ही रहते थे। इन वजहों के चलते विद्यार्थी जी चुनाव जीत गए। 1971 में कांग्रेस के टी सोहन लाल ने ये सीट भारतीय जनसंघ से छीन ली। दरअसल उस चुनाव में सारे देश में इंदिरा गांधी के पक्ष में माहौल था, इसलिए सोहन लाल आराम से सीट निकालने में कामयाब रहे।
आपको मालूम हो कि 1977 का चुनाव इमरजेंसी के हटने के बाद हुआ था। सारा विपक्ष एक हो गया था। तब करोल बाग सीट से शिव नारायण सरसूनिया जीते थे। वे भी जनसंघ की ही विचार धारा से प्रभावित थे। लेकिन 1980 में इधर से कांग्रेस के विवादास्पद नेता धर्मदास शास्त्री जीते। उनके ऊपर 1984 में सिख विरोधी दंगों को भड़काने के भी आरोप लगे थे। इधर से 1984 में एक बार फिर से प्रभाकर परिवार की वापसी हुई। उस चुनाव में नवल प्रभाकर की पत्नी सुंदरवती नवल प्रभाकर को कांग्रेस ने उतारा। उन्होंने सुरेन्द्र रातावाल को हरा दिया। चूंकि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वो चुनाव हो रहा था, इसलिए तब कांग्रेस के उम्मीदवारों के सामने कोई टिक ही नहीं पा रहा था। यहां से 1989 और 1991 में भारतीय जनता पार्टी के कालका दास और 1996 और 1998 में कांग्रेस की टिकट पर मीरा कुमार भी जीतीं। हालांकि उन पर बाहरी होने के आरोप भी लगते रहे। ये सीट 2004 तक कांग्रेस और भाजपा के बीच आती जाती रही। 2008 में संसदीय क्षेत्रों के परिसीमन में करोल बाग सीट हिस्सा बन गई नई दिल्ली सीट का। अब राजधानी की आरक्षित सीट बनाया गया उत्तर पश्चिम दिल्ली सीट को। ये संसदीय क्षेत्र दिल्ली के सबसे घनी आबादी वाले इलाकों में से एक है, जिसमें प्रति वर्ग किलोमीटर 8,254 निवासियों की जनसंख्या घनत्व और 36,56,539 लोगों की आबादी का अनुमान है। 2009 में इस सीट से कांग्रेस की कृष्णा तीरथ जीती थीं। कृष्णा ने भाजपा की मीरा कांवरिया को मात दी थी। 2014 के चुनाव में भाजपा के उदित राज ने आम आदमी पार्टी की राखी बिरला को शिकस्त दी थी।
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