बच्चों को सिखाएं पैसे की अहमियत, तय करें सभी जायज और नाजायज मांगों को नहीं मानेंगे
आज के जमाने में बच्चों को सही राह दिखाने के लिए सबसे पहले हमको यह निर्णय करना होगा कि बच्चों की सभी जायज और नाजायज मांगों को नहीं मानेंगे। उनके लिए जो जरूरी है वह जरूर उपलब्ध कराएं लेकिन नाजायज मांगों के लिए न बोलना बहुत जरूरी है।
[डा. अनिल सेठी ] हमारे समाज में सभी माता-पिता अपने बच्चों को सबसे बेहतर सुख-सुविधाएं देना चाहते हैं। चाहे वह समाज में किसी भी स्तर पर हों लेकिन बच्चों के लिए वह कुछ भी करने के लिए तत्पर रहते हैं। ऐसे में जब बच्चों को सबकुछ आसानी से या बिना मेहनत के मिलने लगता है, तो वे अक्सर पैसे के लिए माता-पिता का संघर्ष और पैसे की सही अहमियत समझ नहीं पाते हैं।
एक पुरानी कहावत है- पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत कपूत तो क्यों धन संचय। कहने का आशय यह है कि अगर हम अपने बच्चों को सही समझ, सही संस्कार नहीं दे पा रहे, तो अन्य सब कुछ व्यर्थ है। आज महानगरों में माता-पिता दोनों जॉब करते हैं और बच्चों को अपना समय न दे पाने के बोझ से दबे होते हैं और उसके बदले बच्चों को पैसे या गैजेट्स आदि देकर अपने को अपराध बोध से मुक्त करने का प्रयास करते हैं। लेकिन यह भूल जाते हैं कि बचपन में अगर बच्चे को सही संस्कार न मिले, तो उसकी जीवन की बुनियाद ही गलत हो जाएगी। फिर उसके ऊपर बनने वाली बिल्डिंग में भी कभी मजबूती नहीं आएगी।
समय का सुदपयोग
मुझे बचपन में दादाजी द्वारा सुनाई गई एक कहानी याद आ रही है। कहानी ऐसे है कि एक लड़का बहुत शरारती था। स्कूल की छुट्टियां चल रही थीं और उसका सारा दिन तरह-तरह की शरारतों की योजना बनाने और उनके द्वारा लोगों को तंग करने में गुजरता था। सारे मोहल्ले वाले उससे परेशान थे और रोजाना उसकी शिकायत करने आते रहते थे। रोज-रोज की उसकी शरारतों से तंग आकर उसके पिताजी ने एक दिन शाम को उसको बुलाया और कहा कि कल से अगर शाम तक कुछ पैसे कमा कर नहीं लाया, तो उसको घर में खाना नहीं मिलेगा। अगला दिन गुजरा, शाम को जब घर जाने का समय हुआ, तो उसको पिताजी की शर्त याद आई और तुरंत ही वह अपने चाचाजी के पास गया और उनसे कुछ पैसे मांगे और वह लेकर घर पहुंच गया। जब पिताजी ने पूछा कि क्या कमाया, तो उसने पैसे उनको दिखा दिए।
पैसे की अहमियत समझ में आ गई
पिताजी ने कहा इस पैसे को कुएं में फेक दो। वह दौड़ता हुआ गया और पैसे कुएं में फेक दिए, उसके बाद खाना खाया और सो गया। अगले कुछ दिनों तक दिनचर्या ऐसे ही चली। वह किसी अंकल-आंटी से पैसे लाता रहा। अब रोज-रोज कब तक लोग उसको पैसे देते। आखिर वह दिन भी आ गया, जब किसी ने उसको पैसे नहीं दिए। उस दिन उसको काम करने के बाद 25 पैसे मिले और जब शाम को पिताजी ने उसको कुएं में फेंकने को कहा, तो उसने कहा-मैं नहीं फेंक सकता, क्योंकि मुझे आज पैसे की अहमियत समझ में आ गई है। अब मैं खूब पढूंगा और अपनी मेहनत से कुछ बन कर दिखाऊंगा। उसने पिछली गलतियों के लिए माफी मांगी और जीवन में आगे अग्रसर हो गया।
जायज-नाजायज मांगों की पहचान
आज के जमाने में भी इसी का संशोधित प्रारूप बच्चों को सही राह दिखाने में काम आ सकता है। सबसे पहले हमको यह निर्णय करना होगा कि बच्चों की सभी जायज और नाजायज मांगों को नहीं मानेंगे। उनके लिए जो जरूरी है वह जरूर उपलब्ध कराएं, लेकिन नाजायज मांगों के लिए न बोलना बहुत जरूरी है। आज जब स्कूल-कालेज बंद हैं और बच्चों के पास समय है, तो उनको अपने बिस्तर को ठीक से लगाने, बुक्स आदि को ठीक से रखने, घर की सफाई, अपने कपड़े खुद धोने और घर के अन्य कामों में मदद के लिए कुछ पैसे तय कर दें और उनके कमाए हुए पैसे को उनकी इच्छानुसार खर्च करने की सुविधा प्रदान करें।
छोटे प्रयास से सुनहरे भविष्य की बुनियाद बन सकती है
ऐसा करने से उनको किसी भी काम को छोटा-बड़ा समझने की परेशानी नहीं होगी और पैसे को समझदारी से व्यय करने की आदत भी पड़ेगी। अगर आपको ऐसा लगता है कि यह ज्यादती है, तो जरा याद कीजिये। जब आप छोटे थे, तो क्या आप घर का छोटा-बड़ा काम नहीं करते थे? तब अपने माता-पिता को कभी किसी काम के लिए न नहीं कह सकते थे। तब के मुकाबले बदले हुए परिवेश में यह तो बहुत आसान है। मेरे विचार से पुराने जमाने में गुल्लक भी हम सबको बचत की अहमियत समझने में मदद करने वाली प्रथा थी। कुल मिलाकर, हमारे ऐसे छोटे-छोटे प्रयास से उनके सुनहरे भविष्य की बुनियाद बन सकती है।
(लेखक- मोटिवेटर एवं लाइफ कोच हैं)