ढाबे के धुएं से भी प्रभावित हो रहा मानसून, अध्ययन में आई हैरान करने वाली बात
मानसून पर पड़ रहे वायु प्रदूषण के प्रभाव से आइआइटी (दिल्ली( भी सहमत है, इसलिए इसके वायुमंडलीय विज्ञान केंद्र की एक टीम इस पर अध्ययन भी कर रही है।
नई दिल्ली (संजीव गुप्ता)। बढ़ता वायु प्रदूषण मानसून को भी प्रभावित कर रहा है। इसमें चूल्हे एवं ढाबे का धुआं भी शामिल है। इनकी वजह से वातावरण में गर्म हवा और जहरीली गैसों का प्रभाव बढ़ रहा है। बादल ज्यादा देर तक टिक नहीं पाते और उन्हें बरसने की अनुकूल स्थिति भी नहीं मिल पाती।
हैदराबाद स्थित एडमिनिस्टिेटिव स्टाफ कॉलेज ऑफ इंडिया में 26-27 जुलाई को जलवायु परिवर्तन पर आयोजित दो दिवसीय कार्यशाला में इस पर विस्तृत चर्चा हुई। पर्यावरणविद् समर पी हलार्मकर ने बताया कि मध्य भारत में खासतौर पर मानसून प्रभावित हुआ है।
शहरों में जहां वाहनों और उद्योगों का धुआं इसका बड़ा कारण है, वहीं गांवों व कस्बों में जलने वाले चूल्हे का धुआं वातावरण में गर्मी उत्पन्न कर रहा है। उन्होंने बताया कि चूल्हे में ईंधन के रूप में मुख्यतया कोयला और गोबर के उपले जलाए जाते हैं। इससे मिथेन गैस निकलती है, जो कार्बन डाईऑक्साइड से भी अधिक गर्म होती है। वातावरण में बढ़ती गर्मी से ही ग्लोबल वार्मिंग की समस्या बढ़ रही है और मौसम चक्र प्रभावित हो रहा है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी), भुवनेश्वर में वायुमंडलीय विज्ञान के सहायक प्राध्यापक डॉ. विनोज वी ने बताया कि सूरज की किरणों का रेडिएशन हमेशा से रहा है, लेकिन अब तमाम गैसों का रेडिएशन भी बढ़ रहा है। इससे तापमान में इजाफा हो रहा है। तापमान बढ़ने से नमी उड़ रही है। जब नमी उड़ेगी तो बारिश भी कम होती जाएगी। दिल्ली में हरियाली कम होते जाने और अधिक मात्र में भवन निर्माण होने से स्थानीय स्तर पर भी नमी घट रही है।
आइआइटी में भी चल रहा है अध्ययन
मानसून पर पड़ रहे वायु प्रदूषण के प्रभाव से आइआइटी (दिल्ली) भी सहमत है, इसलिए इसके वायुमंडलीय विज्ञान केंद्र की एक टीम इस पर अध्ययन भी कर रही है। इस अध्ययन में यही देखा जा रहा है कि यह प्रभाव कितना है और किन क्षेत्रों में मानसून की बारिश ज्यादा प्रभावित हो रही है।
मौसम विभाग भी कर चुका है पुष्टि
मौसम विज्ञान विभाग की एक रिसर्च रिपोर्ट ‘ट्रेंड्स इन द रेनफाल पैटर्न ओवर इंडिया’ भी मानसून के घटते स्वरूप की पुष्टि करती है। इसके मुताबिक, पहले 80 से 90 दिन तक बारिश होती थी, जबकि धीरे-धीरे बारिश के दिन सिमटकर 40 से 60 ही रह गए हैं। अगर, 1994 का वर्ष छोड़ दें तो 1990 से लेकर 2017 तक किसी भी वर्ष सामान्य से ज्यादा बारिश दर्ज नहीं की गई।
आइआइटीएम पुणे ने 2017 में किया अध्ययन
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीटियोलॉजी (आइआइटीएम), पुणे के वैज्ञानिकों ने 2017 में इस बाबत एक अध्ययन किया है। इसमें बताया गया है कि बादलों के बरसने के लिए 80 फीसद तक नमी होनी चाहिए। अगर, तापमान सामान्य से अधिक रहता है तो यह नमी उड़ने लगती है।