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दिल्ली कभी नहीं भुला पाएगी 72 साल पहले पाकिस्तान से आई तबाही को, पढ़िए- पूरी स्टोरी

बंटवारे के चलते पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान से आने वाले हिंदू-सिख शरणार्थी और पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों को इस सांप्रदायिक हिंसा का सर्वाधिक खामियाजा भुगतना पड़ा।

By JP YadavEdited By: Published: Sat, 10 Aug 2019 04:10 PM (IST)Updated: Sat, 10 Aug 2019 04:10 PM (IST)
दिल्ली कभी नहीं भुला पाएगी 72 साल पहले पाकिस्तान से आई तबाही को, पढ़िए- पूरी स्टोरी

नई दिल्ली [नलिन चौहान]। अगस्त, 1947 में भारत के विभाजन से समूचे देशवासी मानो शैतानी जकड़न का शिकार हो गए थे। खासकर पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान से आने वाले हिंदू-सिख शरणार्थी और पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों को इस सांप्रदायिक हिंसा का सर्वाधिक खामियाजा भुगतना पड़ा। इनमें भी विशेष रूप से असंख्य महिलाएं और लड़कियां अपहरण, दुष्कर्म और हिंसा का शिकार हुईं। बाद में सरकार और सामाजिक संगठनों के प्रयास से ऐसी अगवा की गईं महिलाओं को बचाया गया, उनको लेकर तत्कालीन समाज का दृष्टिकोण सहज और मानवीय नहीं था। 1951 की दिल्ली की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार, यहां पर बंटवारे के बाद कुल 4,59,391 शरणार्थी आएं, जिनमें 229,712 महिलाएं थीं।

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पूर्व प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने अपनी आत्मकथा ‘मैटर्स ऑफ डिसक्रिशन में लिखा है कि दोनों देशों में 15 अगस्त को आजादी के उत्सव के चार दिन के भीतर ही अराजकता का माहौल बन गया। अकेले लाहौर में 70 हजार मुसलमान पहुंचे, जबकि हिंदू और सिखों ने शहर से पलायन किया। अप्रैल 1947 में जहां लाहौर में हिंदू-सिख आबादी तीन लाख थी जो कि अगस्त 1947 में घटकर मुश्किल से दस हजार रह गई। ऐसे में यह मानना व्यर्थ था कि बदले की भावना की आग दूसरी तरफ नहीं फैलेगी। विभाजन रेखा के दोनों तरफ हुए भयानक दंगों ने दो मित्रवत देशों के संबंध के सपने और सभी उम्मीदों को पूरी तरह ख़त्म कर दिया।’

29 अगस्त, 1947 को सरदार पटेल ने जवाहरलाल नेहरू को भेजे अपने एक तार में कहा, भारत में हमें लोगों को नियंत्रण में रखना अत्यंत कठिन मालूम हो रहा है। दिल्ली तथा अन्य स्थानों में आने वाले निराश्रित अत्याचारों और बर्बरता की मर्मभेदी कहानियां सुनाते हैं। यदि पश्चिम पंजाब की वर्तमान स्थिति तुरंत न सुधरी तो भारत की स्थिति नियंत्रण से बाहर जा सकती है और उसकी प्रतिक्रिया अत्यंत व्यापक और विनाशकारी होगी।

यहां प्राप्त हुई जानकारी यह संकेत करती है कि तुरंत ही डेरा इस्माइल खान की भयंकर घटनाएं दोहराई जाने की संभावना है या सामुदायिक हत्या, आगजनी और दुष्कर्म, धर्म-परिवर्तन की घटनाएं दोहराई जाएंगी। इतना ही नहीं, सितंबर 1947 में करोलबाग में करीब पांच हजार मेवों की भीड़ में रात को सड़कों पर प्रदर्शन करने से स्थिति विस्फोटक बन गई।

सैन्य दल के आने के कारण मेव लोग तो बिखर गए पर उस क्षेत्र की गैर-मुस्लिम जनता में आक्रमण का भारी डर बैठ गया। इस घटना का संज्ञान लेते हुए राजेंद्र प्रसाद ने पांच सितंबर 1947 को सरदार पटेल को एक पत्र लिखा। उन्होंने कहा यदि एक बार शहर (दिल्ली) में उपद्रव फूट पड़ा, तो उसे रोकना कठिन होगा। निराश्रितों से भिन्न शहर के हिंदुओं की यह मांग है कि उन्हें (शहर के निवासियों) को हथियार दिए जाने चाहिये, ताकि वे आत्मरक्षा कर सकें।

इस पत्र के जवाब में पटेल ने लिखा कि पिछले छह या आठ महीनों में हम गैर मुस्लिम प्रार्थियों को उदारतापूर्वक हथियार देते रहे हैं। लेकिन दिल्ली की वर्तमान अशांत परिस्थितियों में अधिक उदार नीति अपनाना असंभव होगा, क्योंकि आज के अविश्वास, संदेह और पश्चिमी पंजाब की करूण घटनाओं के लिए मुसलमानों के खिलाफ शिकायतों से भरे वातावरण में हम निश्चित रूप से यह नहीं कह सकते कि इन हथियारों का उपयोग आक्रमण करने में नहीं होगा, जिसका परिणाम होगा अव्यवस्था और अराजकता का माहौल।

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