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यहां पढ़िए- अप्रतिम अमृता की अद्वितीय कहानी, चर्चा में रही उनकी लव स्टोरी

लेखिका अमृता प्रीतम जब तक जीवित रहीं तो उनकी रचनाओं को लेकर उनके जीवन को लेकर विरोध होता रहा उनके निधन के बाद उनके प्यार के चर्चे होते रहे।

By JP YadavEdited By: Published: Sat, 31 Aug 2019 09:39 AM (IST)Updated: Sat, 31 Aug 2019 01:30 PM (IST)
यहां पढ़िए- अप्रतिम अमृता की अद्वितीय कहानी, चर्चा में रही उनकी लव स्टोरी
यहां पढ़िए- अप्रतिम अमृता की अद्वितीय कहानी, चर्चा में रही उनकी लव स्टोरी

नई दिल्ली [अनंत विजय]। अभाजित भारत में पैदा हुई अमृता को साहित्यिक संस्कार विरासत में मिले। उनके पिता एक साहित्यिक पत्रिका के संपादक थे और माता शिक्षिका। जब ये महज 11 साल की थीं तो इनकी मां का निधन हो गया इसके बाद किताबों को ही अपना दोस्त बना लिया था और पिता के साथ लाहौर चली गई थीं। अमृता को नजदीक से जानने वालों का मानना है कि मां के असमय निधन की वजह से उनके स्वभाव में विद्रोह के बीज पड़ गए। जब भारत-पाकिस्तान का विभाजन हुआ तो वो लाहौर से दिल्ली आईं विभाजन की त्रासदी और दर्द ने उनके विद्रोह को और हवा दी। तब तक उनकी शादी प्रीतम सिंह से हो चुकी थी।

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लाहौर में रहते हुए अमृता प्रीतम रेडियो में काम करने लगी थीं। उनका रेडियो में काम करना उनके परिवार को रास नहीं आ रहा था। एक दिन उनके एक बुजुर्ग रिश्तेदार ने उनसे पूछा कि तुम्हें रेडियो में कितने पैसे मिलते हैं तो अमृता ने कहा दस रुपये प्रतिमाह। बुजुर्ग ने तपाक से कहा कि वो रेडियो की नौकरी छोड़कर घर में रहा करें और वो उनको हर महीने बीस रुपये दिया करेंगे।

डरा हुआ बच्चा डरे हुए समाज का निर्माण करता है
तब अमृता प्रीतम ने साफ मना कर दिया और कहा कि उनको अपनी आजादी और आत्मनिर्भर होना पसंद है। अमृता प्रीतम ने एक जगह लिखा भी है कि कई बार बच्चों के मां-बाप उनको डरा कर रखना चाहते हैं लेकिन वो नहीं जानते कि डरा हुआ बच्चा डरा हुआ समाज का निर्माण करता है। इसी सोच के साथ अमृता सृजन करती थीं। मात्र सत्रह साल की उम्र में इनकी पहली रचना प्रकाशित हो गई थी। फिर ये सिलसिला थमा नहीं था और वो निरंतर लिखकर भारतीय समाज में व्याप्त रुढ़ियों को चुनौती देती रहीं। उनका लिखा और उनके आजाद ख्याल समाज के ठेकेदारों को चुनौती देते थे, लिहाजा उनका विरोध भी होता था।

बता दें कि नामी लेखिका अमृता प्रीतम जब तक जीवित रहीं तो उनकी रचनाओं को लेकर उनके जीवन को लेकर विरोध होता रहा, उनके निधन के बाद उनके प्यार के चर्चे होते रहे, पहले सज्जाद हैदर के साथ, फिर साहिर के साथ और बाद में इमरोज के साथ। इन्हें ज्ञानपीठ सम्मान, साहित्य अकादमी पुरस्कार और पद्मश्री से भी नवाजा गया। लेकिन यह साहित्य की विडंबना ही कही जाएगी कि अमृता की रचनाओं पर उतना काम नहीं हुआ जितने की वो हकदार थीं। उनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ बेहतरीन कृति है जिसमें बहुत बेबाकी और साहस के साथ अमृता पाठकों को अपनी जिंदगी के उन इलाकों में लेकर भी गईं जहां आमतौर पर लेखक जाने से हिचकिचाते हैं या जाते ही नहीं हैं। उनके पाठक उनकी रचनाओं से बेइंतहां मोहब्बत करते थे। लेकिन उनके समकालीन लेखकों को उनके साथी रचनाकारों को उनकी कामयाबी रास नहीं आती थी। इन सबसे बेफिक्र वे अपने लेखन में और इमरोज के साथ प्यार में डूबी रही थीं।

दिल्ली की गलियों में प्रेम कहानी
अमृता विभाजन के बाद दिल्ली आ गईं और अपने अंतिम दिनों तक वो हौज खास की अपनी कोठी में रहीं। दिल्ली में उनकी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण कालखंड बीता, संघर्ष और सम्मान का कालखंड। यहीं अमृता और इमरोज का प्यार परवान चढ़ा। एक ऐसा रिश्ता जिस पर हजारों पन्ने लिखे गए लेकिन उस प्रेम को कोई परिभाषा नहीं मिली। शुरुआत में जब इमरोज दक्षिण पटेल नगर में रहते थे और उर्दू की मशहूर पत्रिका ‘शमां’ में काम करते थे तो कई बार अमृता उनसे मिलने के लिए उनके दफ्तर पहुंच जाती थीं। इमरोज ने दफ्तर में अपने बैठने की जगह के आसपास कई महिलाओं के चित्र बनाकर रखे हुए थे, वो पत्रिका के लिए भी महिलाओं के चित्र बनाते थे। एक दिन अमृता ने इमरोज से पूछा कि वो औरतों के चित्र तो बनाते हैं, उनके अपनी कूची से उनके चेहरे में इस तरह से रंग भर देते हैं कि वो बेहद खूबसूरत दिखाई देती हैं लेकिन क्या कभी ‘वूमन विद ए माइंड’ चित्रित किया है? इमरोज के पास इसका कोई जवाब नहीं था।

इमरोज ने कला के इतिहास को खंगाला लेकिन उन्हें इस तरह की औरत का कोई चित्र नहीं मिला, तब जाकर उनकी समझ में आया कि अमृता ने कितनी बड़ी बात कह दी, औरतों को सदियों से जिस्म ही समझा गया उनके मन को समझने की कोशिश नहीं हुई। इमरोज और अमृता का जो प्यार था उसमें एक खास किस्म का बौद्धिक विमर्श भी दिखता है जिसको व्याख्यायित करने की कोशिश की जानी चाहिए। 1958 का एक प्रसंग है उन दिनों दोनों ही पटेल नगर इलाके में रहते थे। दोनों मिलते और पैदल ही घूमा करते इसकी एक बानगी उमा त्रिलोक ने अपनी किताब, अमृता इमरोज में पेश की है। इमरोज ने उनको बताया- ‘हम घूमते रहे, घूमते रहे हालांकि हमें जाना कहीं नहीं था। धरती पर बिखरे फूलों की तरह हम भी उन पर बिखर गए। आसमान को कभी खुली आंखों से देखते तो कभी बंद करके। पुरानी इमारतों की सीढ़ियों पर चढ़ते उतरते हम एक ऐसी इमारत की छत पर पहुंच गए, जहां से यमुना दिखाई देती थी।

अमृता ने मुझसे पूछा क्या तुम पहले किसी और के साथ यहां आए हो? मैंने कहा मुझे नहीं लगता कि मैं कभी भी कहीं भी किसी के साथ गया हूं। हम घूमते रहे और जहां भी दिल चाहा, रुक कर खा पी लेते सबकुछ खूबसूरत था।’ फिर समय का चक्र चला और इमरोज और अमृता एक साथ रहने लगे। अमृता के दो बच्चे थे जिन्हें इमरोज स्कूटर पर स्कूल छोड़ने जाते थे लेकिन आए दिन पुलिस उनको पकड़ लेती और चालान काट देती थी। फिर दोनों ने तय किया कि वो एक कार खरीद लेते हैं। दोनों ने पांच-पांच हजार रुपये लगाए और दस हजार रुपये में फिएट कार खरीद ली। जब रजिस्ट्रेशन करवाने गए तो दोनों के नाम से रजिस्ट्रेशन का आवेदन दिया। अफसर ने पूछा कि दोनों के बीच रिश्ता क्या है तो उनको बताया गया कि दोनों दोस्त हैं। वो ये मानने को तैयार नहीं था कि एक महिला और एक पुरुष दोस्त भी हो सकते हैं। खैर किसी तरह से रजिस्ट्रेशन संभव हुआ।

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