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शौर्य गाथाः आशाराम त्यागी ने पीठ पर नहीं सीने पर खाई थी गोलियां

1962 में चीन से युद्ध में मेजर आशाराम त्यागी ने अपने शौर्य का परिचय दिया। उनकी स्फूर्ति और बहादुरी को देखते हुए आशाराम त्यागी चंद दिनों में ही अफसरों की निगाह में चढ़ गए थे। 1963 के आसपास सीमा पर तनाव की स्थिति बनने पर उनको बार्डर पर भेजा गया।

By Mangal YadavEdited By: Published: Sun, 01 Aug 2021 04:38 PM (IST)Updated: Sun, 01 Aug 2021 04:38 PM (IST)
शौर्य गाथाः आशाराम त्यागी ने पीठ पर नहीं सीने पर खाई थी गोलियां
आशाराम त्यागी ने पीठ पर नहीं सीने पर खाई थी गोलियां

नई दिल्ली/मोदीनगर [अनिल त्यागी]। मेजर आशाराम त्यागी का नाम आते ही हर किसी का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। बचपन से ही आशाराम तेज तर्रार, स्फूर्तिवान, निडर थे। परिवार के साथ बाहर के लोग भी उनके अंदर की प्रतिभा को पहचानते थे और कहते थे कि एक दिन आशाराम परिवार का नाम रोशन करेंगे। अंत में हुआ भी यही। दो जनवरी 1939 को फतेहपुर जैसे छोटे गांव में पैदा हुए आशाराम त्यागी महज 20 साल की उम्र में 1959 में सेना में भर्ती हो गए। उनके पिता का नाम सगुवा सिंह था।

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1962 में चीन से युद्ध में मेजर आशाराम त्यागी ने अपने शौर्य का परिचय दिया। उनकी स्फूर्ति और बहादुरी को देखते हुए आशाराम त्यागी चंद दिनों में ही अफसरों की निगाह में चढ़ गए थे। 1963 के आसपास सीमा पर तनाव की स्थिति बनने पर उनको बार्डर पर भेजा गया। गनीमत रही कि उस समय स्थिति को नियंत्रण में कर लिया गया और युद्ध के हालात टल गए। देखते ही देखते 1965 का समय आ गया। पाकिस्तान सीमा पर हालात दिनोदिन बिगड़ रहे थे।

पाकिस्तान की ओर से लगातार हमले किए जा रहे थे। स्थिति बिगड़ती देख अफसरों ने आशाराम त्यागी को युद्ध पर भेजा। बतौर कैप्टन आशाराम त्यागी सैनिकों से आगे चलते थे। करीब 15 किलोमीटर की पाक सीमा में घुसकर उन्होंने कई पाकिस्तानी सैनिकों को ढेर कर दिया। भारी नुकसान पाकिस्तान को पहुंचा।

आशाराम त्यागी ने 10 से ज्यादा टैंक तोड़े और पाकिस्तानी सीमा के ढोगराई गांव पर कब्जा कर आगे बढ़ गए। 21 सितंबर 1965 को बंकर में छिपे पाकिस्तानी सैनिकों की गोलियों ने आशाराम त्यागी के सीने को छलनी दिया। उन्हें कई गोलियां लगीं, इसके बावजूद वे लड़ते रहे। अफसरों को इसकी सूचना देकर जब उनके साथियों ने उनको अस्पताल पहुंचाया तो अंतिम समय तक वे युद्ध के बारे में जानकारी करते रहे। आशाराम त्यागी के बड़े भाई परशुराम त्यागी बताते हैं कि अंतिम सांस लेने से पहले उन्होंने अफसरों और उपचार कर रही डाक्टरों की टीम से कहा था कि उनके घर से जो भी आए, उसको सूचना देना कि आशाराम त्यागी ने पीठ पर नहीं, सीने पर गोलियां खाई हैं। इसलिए दुख मनाने की जरूरत नहीं है। उन्होंने यह भी कहा था कि ये बात उनकी मां बसंती देवी को भी बता दी जाए। उनका पार्थिव शरीर चार दिन बाद फतेहपुर गांव आया तो उनके अंतिम दर्शनों के लिए हूजूम उमड़ पड़ा। जिसने भी आशाराम त्यागी की शौर्यगाथा सुनी, उसका सीना गर्व से चौड़ा हो गया। उस वक्त आशाराम त्यागी की शादी को महज तीन माह ही हुए थे। गांव के प्रवेश द्वारा पर उनकी प्रतिमा स्थापित की गई।

इच्छानुसार जब उनकी मां बसंती देवी का शरीर पूरा हुआ तो उनकी समाधि भी बेटे आशाराम त्यागी की प्रतिमा के निकट ही स्थापित कराई गई। आते जाते लोग उनकी दर्शन कर खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। गांव के पूर्व प्रधान नवीन त्यागी कहते हैं कि मेजर आशाराम त्यागी ने फतेहपुर ही नहीं, पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश व देश का नाम रोशन किया है। उनकी शहादत पर सबको फक्र है। उनके छोटे भाई श्यामसुंदर त्यागी भी भाई पर गर्व करते हैं। मेजर आशाराम त्यागी की याद में दो जनवरी को रेलवे रोड मोदीनगर में समारोह आयोजित कराया जाता है। इसमें तमाम राजनीतिक और सामाजिक लोग हिस्सा लेते हैं। रेलवे रोड पर आशाराम त्यागी की प्रतिमा भी स्थापित कराई गई है। ज्ञात हो कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सैकड़ों गांवों में मेजर आशाराम त्यागी के नाम से प्रवेश द्वार बनाए गए हैं।


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