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जानें- राष्ट्रपति भवन के बारे में रोचक तथ्य, मारवाड़ के राजपूत शासकों से भी है रिश्ता

दर्ज तारीख 7 अगस्त, 1775। इस सनद से साफ है कि रायसीना गांव,जिस पर आज की नई दिल्ली बसी है, मुगल काल में मारवाड़ के शासकों की पैतृक जागीर थी।

By JP YadavEdited By: Published: Sat, 26 Jan 2019 02:55 PM (IST)Updated: Sun, 27 Jan 2019 08:56 AM (IST)
जानें- राष्ट्रपति भवन के बारे में रोचक तथ्य, मारवाड़ के राजपूत शासकों से भी है रिश्ता
जानें- राष्ट्रपति भवन के बारे में रोचक तथ्य, मारवाड़ के राजपूत शासकों से भी है रिश्ता

नई दिल्ली [नलिन चौहान]। आज यह बात जानकार हर किसी को हैरानी होगी कि आधुनिक भारतीय गणतंत्र का प्रतीक राष्ट्रपति भवन जिस रायसीना पहाड़ी पर शान से खड़ा है, कभी वहां पर रायसीना गांव हुआ करता था जो मारवाड़ के राजपूत शासकों की पैतृक जागीर थी। इतिहास के पन्नों में झांकने पर पता चलता है कि मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय (1728-1806) ने अपने शासन के 17वें साल के नौवें जमादी-उल-आखिर में मारवाड़ के महाराजा विजय सिंह (1752-1793) के पक्ष में इस जागीर के लिए एक सनद जारी की थी। बादशाह शाह आलम द्वितीय का असली नाम अली गौहर था जो आलमगीर द्वितीय का पुत्र था। उसने 24 दिसंबर, 1750 ई. से अपनी बादशाहत का साल शुरू किया था। इस सनद में दर्ज तारीख 7 अगस्त, 1775 की है। इस सनद में अरबी लिपि में एक शाही तुगरा और शाही मुहर के अलावा ठप्पा अंकित है। वजीर की मुहर पर अंकित है शाह आलम बादशाह गाजी। इसमें 1190 का हिजरी संवत और ताजपोशी का 17वां साल भी है। इससे पता चलता है कि यह मुहर आसफउदुल्लाह के समय की है। यह मोहर सनद के पीछे बाईं ओर नीचे की तरफ लगी है।

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1760 में रायसीना महाराजा विजय सिंह ईनाम में दिया गया गांव रायसीना राजधानी शाहजहांनाबादके हवाली (उपनगर) जिले में स्थित है। महाराजा बख्त सिंह की पुरानी जागीर, जो कि पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए मुहम्मद मुराद खान को दे दी गई, दूसरी बार साल 1760 में महाराजा विजय सिंह को बहाल की गई, पर उसके बाद हाल में ही उसे खालसा में शामिल कर लिया गया। इसी रायसीना के उनकी पैतृक जागीर होने के कारण खालसा से महाराजा विजय सिंह बहादुर और उनके वंशजों को पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए बतौर ईनाम दी गई। दर्ज तारीख 24 अगस्त, 1775 की।

700 रुपये किराए वाला रायसीना गांव

सनद के अनुसार, इस शुभ मुहूर्त में यह आदेश जारी किया जाता है कि राजधानी शाहजहांनाबाद (दिल्ली) के हवाली (उपनगर) परगना में 700 रुपये के किराए की कीमत वाले रायसीना गांव को महाराजाधिराज विजय बहादुर और उनकी पीढ़ियों को उनकी पुरानी जागीर, जिसे खालसा में मिला लिया गया, के बदले ईनाम में दी जाती है। यह (जागीर) भविष्य में होने वाले परिवर्तन से सुरक्षित और संरक्षित होगी। इससे किसी तरह की वसूली भी नहीं की जाएगी तथा यह जागीर सभी तरह के नागरिक और शाही वसूली से मुक्त होगी। दर्ज तारीख 7 अगस्त, 1775। इस सनद से साफ है कि रायसीना गांव,जिस पर आज की नई दिल्ली बसी है, मुगल काल में मारवाड़ के शासकों की पैतृक जागीर थी। जो कि महाराजा बख्त सिंह के शासनकाल (1751-52) तक नियमित रूप से उनके स्वामित्व में रहा, पर जोधपुर राजवंश में आपसी कलह होने के कारण मुगल बादशाह ने विरोधी दल के  कसाने पर उसे महाराजा विजय सिंह से जब्त करके मुहम्मद मुराद खान को सौंप दिया। बाद में जोधपुर राजवंश का आपसी विवाद समाप्त हुआ तो दोबारा यह गांव 1760 में महाराजा विजय सिंह को दे दिया गया। लेकिन उसके कुछ समय उपरांत जब बादशाह शाह आलम द्वितीय के साथ मराठों की नजदीकी बढ़ी तो गांव को एक बार फिर जोधपुर महाराजा से छीन लिया गया।

ऐसा प्रतीत होता है कि आखिरकार मारवाड़ में सभी प्रकार के प्रमुख विद्रोहों को दबाने के बाद महाराजा विजय सिंह ने बादशाह के दरबार (जिसकी सनद के पिछले हिस्से में केंद्रीय सत्ता की मुहर से पुष्टि होती है) में इस गांव (जो कि उनकी पैतृक जागीर थी) के लिए अपना दावा पेश किया था। मुगल बादशाह ने इस गांव को मारवाड़ के महाराजाओं की पैतृक जागीर होने के बतौर सुबूत देखा होगा क्योंकि इसका और कोई दूसरा सही दावेदार भी नहीं था। यही कारण होगा कि बादशाह ने महाराजा विजय सिंह के नाम पर यह सनद 1775 में जारी की। वैसे इस बात का अनुमान लगाना कठिन है कि कब और किन परिस्थितियों में यह जागीर मारवाड़ के शासकों के स्वामित्व से निकली। पर इस सनद से दो तथ्य तो साफ निकलते हैं। पहला यह कि रायसीना मारवाड़ के महाराजाओं की पैतृक जागीर थी और दूसरा कि जुब्दाह-राजा-ए-हिन्दुस्तानराज-राजेश्वर-महाराजाधिराज की पदवी मुगल सल्तनत के अंत तक मारवाड़ के महाराजाओं के नाम से साथ प्रयोग होती रही।

 (लेखक दिल्ली के अनजाने इतिहास के खोजी हैं)

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