वीर बालिका कल्पना दत्त ने 14 साल की उम्र में ओजस्वी भाषण से लोगों में कराया शक्ति का आभास
1929 में क्रांतिकारी कल्पना की उम्र महज चौदह वर्ष थी जब उन्होंने चटगांव के विद्यार्थी सम्मेलन में भाषण दिया। इस भाषण में लोगों को उनके भीतर छिपी शक्ति का आभास हुआ। असहयोग आंदोलन के समय उनके दो चाचा उसमें भाग ले रहे थे
नई दिल्ली। 1929 में क्रांतिकारी कल्पना की उम्र महज चौदह वर्ष थी, जब उन्होंने चटगांव के विद्यार्थी सम्मेलन में भाषण दिया। इस भाषण में लोगों को उनके भीतर छिपी शक्ति का आभास हुआ। उनका वहां गरजता हुआ संबोधन था, 'अगर दुनिया में हमें गर्व से सिर ऊंचा करके जीना है तो अपने माथे पर से गुलामी का यह कलंक मिटा देना होगा। साथियो, अंग्रेजों के चंगुल से छुटकारा पाने के लिए शक्ति का संचय करो, क्रांतिकारियों का साथ दो और अंग्रेजों से भिड़ जाओ। कल्पना दत्त का जन्म 27 जुलाई, 1914 को चटगांव में हुआ था। बचपन से ही उन्हें साहसी कहानियां सुनने का शौक था। हाईस्कूल में पढ़ते समय ही उन्होंने कहानियों की अनेक पुस्तकें और क्रांतिकारियों की जीवनियां पढ़ डालीं थीं। वह पढ़ाई में अच्छी थीं। बचे समय में तैराकी सीखतीं और व्यायाम करतीं, ताकि बहादूरी का काम करने के लिए शरीर को मजबूत बनाया जा सके।
असहयोग आंदोलन के समय उनके दो चाचा उसमें भाग ले रहे थे। एक चाचा ने कल्पना की रुचि देखकर उन्हें क्रांति संबंधी कुछ ऐसे साहित्य लाकर दिए, जिससे उनका संकल्प और मजबूत होता गया। 18 अप्रैल, 1930 को क्रांतिकारियों ने चटगांव शस्त्रागार पर भारी हमला कर उसे लूट लिया। इस अचानक हमले से अंग्रेज हक्के-बक्के रह गए। चटगांव के क्रांतिकारियों पर मुकदमा चल रहा था। कल्पना पर भी मुकदमा चला। वह जेल से जमानत पर छूट गयीं पर उनके घर पर सशस्त्र पुलिस का पहरा बिठा दिया गया। वह कहीं आ-जा नहीं सकती थीं। यह स्थिति कल्पना के लिए अहसनीय थी। वह मौका देखते ही भाग गईं और क्रांतिकारी सूर्यसेन के साथ भटकने लगीं। इस दौरान उन्होंने कारतूस बनाना भी सीखा।
16 फरवरी,1933 को सूर्यसेन और कल्पना रात का खाना खाकर किसी काम से निकले तो रास्ते में पुलिस से मुठभेड़ हो गयी। सूर्यसेन गिरफ्तार हो गए लेकिन कल्पना अंग्रेजों पर गोली चलाती हुई भागने में सफल रहीं। पुलिस कल्पना की तलाश कर रही थी पर वह पूरी नौकरशाही को नचा रही थीं। आखिरकार मई 1933 में कल्पना को हथियार डाल देना पड़ा। सूर्यसेन को फांसी और उन्हें उम्र कैद की सजा हो गयी। पर उन्नीस वर्षीय कल्पना हताश नहीं हुईं। जेल में उनका संघर्ष जारी रहा। कल्पना दत्त मिदनापुर जेल में गांधी जी से भी मिली थीं। अपनी पुस्तक,'चटगांव शस्त्रागार आक्रमण के संस्मरण' में वह लिखती हैं, 'जेल में गांधी जी मुझसे मिलने आए। वे मेरी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण नाराज थे। पर उन्होंने कहा मैं फिर भी तुम्हारी रिहाई के प्रयत्न करूंगा।' स्वाधीनता संग्राम में कल्पना दत्त का नाम क्रांतिकारियों की अग्रिम पंक्ति में लिया जाता है।
(प्रभात प्रकाशन की पुस्तक 'क्रांतिकारी किशोर' से साभार संपादित अंश)