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मशहूर लेखक लक्ष्मीशंकर वाजपेयी का दिल्ली में लगा दिल, लेकिन प्रदूषण ने जकड़ लिया

वरिष्ठ कवि लक्ष्मीशंकर वाजपेयी ने गजल के साथ लेख व्यंग्य व बालसाहित्य की विधाओं में सृजन किया। तमिल पंजाबी डोगरी उर्दू जापानी अंग्रेजी आदि भाषाओं में कविताओं का अनुवाद किया।

By Pooja SinghEdited By: Published: Thu, 03 Oct 2019 11:42 AM (IST)Updated: Thu, 03 Oct 2019 11:42 AM (IST)
मशहूर लेखक लक्ष्मीशंकर वाजपेयी का दिल्ली में लगा दिल, लेकिन प्रदूषण ने जकड़ लिया
मशहूर लेखक लक्ष्मीशंकर वाजपेयी का दिल्ली में लगा दिल, लेकिन प्रदूषण ने जकड़ लिया

नई दिल्ली जेएनएन। वरिष्ठ कवि लक्ष्मीशंकर वाजपेयी ने गजल के साथ लेख, व्यंग्य व बालसाहित्य की विधाओं में सृजन किया। तमिल, पंजाबी, डोगरी, उर्दू, जापानी, अंग्रेजी आदि भाषाओं में कविताओं का अनुवाद किया। काव्यमंचों पर भी व्यापक स्तर पर भागीदारी की। दिल्ली आकाशवाणी से बतौर निदेशक सेवानिवृत हुए। साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृति संस्थाओं में कई सम्मान भी मिले। पेश है उनकी जिंदगी के अनुभव, मनु त्यागी से बातचीत पर आधारित। 

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आज प्रसंग को याद करता हूं दिल्ली के प्रति अपने उस प्यार को याद करता हूं तो अपने बचपने पर हंसी आती है। यह बात 1972 की है मैं अपने दोस्तों के साथ दिल्ली अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेला देखने के लिए पहली बार दिल्ली आया था, लेकिन घर पर बताया था कि हम कॉलेज की तरफ से मेला देखने जा रहे हैं। हम पांच दिन तक रेलवे स्टेशन पर ही रहे। वहां लॉकर में सामान रख देते और पूरा दिन मेले में घूमते थे। वहीं खाते और सो जाते थे। कुछ बात तो थी कि मैं रहता तो यहां से लगभग 500 किलोमीटर दूर कानपुर में था, लेकिन दिल्ली मेरे दिल में बचपन से ही बसती थी। यहां आने की हुड़क हमेशा रहती थी। मैंने दिल्ली को जानने के लिए छठी कक्षा से ही अखबार पढ़ना शुरू कर दिया था।

आकाशवाणी में लगी जॉब

हमारे मोहल्ले में ही एक छोटा सा पुस्तकालय होता था, जहां अखबार आते थे। मेरे इसी लगाव का परिणाम रहा कि अंतत: 1988 में दिल्ली में आकाशवाणी के राष्ट्रीय चैनल में मेरी नौकरी लगी और मैं तब से दिल्ली का ही हो गया। रहने की सुध-बुध भी नहीं थी। आकाशवाणी में साक्षात्कार के दौरान भी मुझसे यही सवाल पूछा गया था कि इस महानगर में कैसे रह पाओगे? मैंने कहा सब हो जाएगा। शुरुआत में पांच महीने हॉस्टल में रहा बाद में किसी ने बता दिया तो लक्ष्मीनगर में एक कमरा ले लिया। फिर गगन विहार में रह लिए। ज्यादा वक्त दफ्तर में ही बीतता था। वहीं परिवार जैसा महसूस होता था। 1994 में सरोजनी नगर में अपना सरकारी आवास मिल गया। बहरहाल उस जमाने में आयोजित होने वाली साहित्यक गोष्ठियों के बारे में बताता हूं। कॉफी हाउस उस जमाने के सभी साहित्यकारों की सबसे प्रिय जगह कही जा सकती है। हर बड़ा साहित्यकार वहां जरूर आकर बैठता था 

सभी गोष्ठियों में लेते थे हिस्सा

गोष्ठियों में भी शिरकत किया करते थे। विष्णु प्रभाकर नियमित आया करते थे। घंटों बीत जाते थे। मुझे हालांकि नौकरी के कारण उतना वक्त नहीं मिलता था लेकिन साहित्य में बेहद रुचि थी इसलिए कैसे भी वक्त निकालकर कई सारी संस्थाओं की गोष्ठियों में जरूर जाया करता था। एक संस्था अंग्रेजी के साहित्यकारों की भी थी। उसका दिन रविवार और समय 11 बजे तय होता था। बहुत नियम से होती थी यहां अंग्रेजी वाले ज्यादा आया करते थे। हर बड़ा नाम इससे जुड़ा हुआ भी था और सब आते भी थे। मुझे एक उर्दू की संस्था भी याद आती है हल्का-ए-तश्न-गाने अदब। उर्दू का हर बड़ा नाम इस आयोजन में शिरकत करता था। मुंबई तक से लोग आते थे। ऐसा नहीं कि इसमें सिर्फ उर्दू वाले ही आते थे हिंदी वाले भी खूब बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते थे। इस संस्था की अब तक 500 से ज्यादा गोष्ठी हो चुकी हैं। इसके आज भी सुचारु संचालन की एक बड़ी वजह है यह आज भी कहीं किसी

के घर में आयोजित कर ली जाती है।

इन सभी गोष्ठियों में आत्मीयता होती थी, लेकिन आज के परिवेश में बात करें तो संस्था तो बहुत हैं, लेकिन उनमें वो साहित्यिक माहौल नहीं मिलेगा। सभी दूसरे को सुनने को नहीं बल्कि सिर्फ अपनी रचना सुना भर देने पर उतारू रहते हैं। आकाशवाणी के मेरे अनुभव भी बहुत यादगार रहे हैं। दफ्तर या कहीं भी जाने के लिए बसों का स्टैंड पर इंतजार करते हुए मैंने बहुत सारे उपन्यास पढ़े भी हैं और लिखे भी हैं। कई बार बस भी आकर चली जाती थी और मैं किताब में डूबा रह जाता था। और कई बार बसों में लटक कर भी जाना पड़ता था, लेकिन दिल्ली की बसों से मेरी खासी मित्रता रही। बसों में जो मुझे मिला वो सफर का आनंद कहीं नहीं मिला। मैंने कभी गाड़ी नहीं खरीदी। अब भी मेरी नहीं है बेटे के पास जरूर गाड़ी है। उन दिनों तो वैसे भी ऑटो में जाना भी लग्जरी लगता था। हां, 2003 में जब दिल्ली के आकाशवाणी स्टेशन का निदेशक बन गया तब सुरक्षा के लिहाज से गाड़ी जरूर मिल गई, लेकिन उससे सिर्फ दफ्तर  ही जाता था। अपने निजी काम के लिए बसों से ही जाता था।

दिल्ली को प्रदूषण ने जकड़ा

एक और प्रसंग साझा करना चाहता हूं मैं एक बार मलेशिया की राजधानी कुआलालंपुर गया था। उस जगह को देखकर सोचता था कि काश अपनी दिल्ली में भी यहां जैसा विकास हो। मेट्रो हो। ऊंची इमारते हों। यह सब मिला तो, लेकिन प्रदूषण जैसी बला ने जकड़ लिया। हालांकि यह सिर्फ अभी नहीं है आप 1990 में सीएनजी की व्यवस्था से पहले वाली दिल्ली याद कीजिए तब भी बहुत प्रदूषण होता था। मैं एक बार बीमार पड़ा तो डॉक्टर ने मेरा एक्सरे देखकर पूछा कि क्या आप सिगरेट पीते हैं? मैंने कहा नहीं। मतलब मेरे फेफड़ों तक प्रदूषण जमा था। दरअसल, हम यमुना पुल पर घंटों खड़े रहते थे। मेरा मित्र फॉरेस्ट ऑफिसर था। उसके साथ यमुना के पुल पर खड़ा हुआ तो उसने एहसास दिलाया कि तुम्हे कुछ जलन सी महसूस नहीं हो रही है? मेरी आंखे जल रही हैं। मैंने कहा नहीं। दरअसल, हमे ऐसी आदत हो गई थी और मेरा मित्र साफ वातावरण से आया था।

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