Prayagraj Kumbh नहीं आ पा रहे तो क्या हुआ, चीन-पाकिस्तान के लोग लगा रहे डिजिटल डुबकी
Prayagraj Kumbh चीन के शंघाई और गुआंगझांग रीजन में भी लोग कुंभ में गोते लगाते रहे। शंघाई में भी उत्सुकता का स्तर सौ फीसद तक था। बीजिंग में भी लोग इस बारे में जानकारी लेते रहे।
नई दिल्ली (सुधीर कुमार पांडेय)। Prayagraj Kumbh दिसंबर में 70 देशों के प्रतिनिधियों के साथ चाहे भले ही पाकिस्तान और चीन के राजनयिक तीर्थराज प्रयाग न गए हों, लेकिन इन दो देशों में भी कुंभ को लेकर दिलचस्पी कम नहीं है। वे भी साइबर जगत के जरिये कुंभ में पुण्य की डुबकी लगा रहे हैं। 630 ईसवी के आसपास चीनी बौद्ध भिक्षु ह्वेनसांग भारत आया था। वह कन्नौज में सम्राट हर्षवर्धन की दानशीलता, धर्मों के प्रति उनकी उदारता को देखकर काफी प्रभावित हुआ था। यह भारतीय संस्कृति ही थी कि उसने ह्वेनसांग को करीब पंद्रह वर्षों तक भारत में रोके रखा। जब वह वापस गया तो अपने साथ सैकड़ों हस्तलिखित पांडुलिपियां भी ले गया। यह भारतीय संस्कृति का ही आकर्षण है कि कई देशों के नागरिक आज भी यहां खिंचे चले आते हैं। कुंभ के प्रति उनके मन में गहरी आस्था है। गूगल ट्रेंड की मानें तो सात समंदर पार भी तीर्थराज प्रयाग की महिमा और कुंभ की चर्चा हो रही है।
मकर संक्रांति पर मंगलवार को कुंभ के पहले शाही स्नान की बात करें तो दोपहर बाद तीन बजे से शाम साढ़े सात बजे के बीच पाकिस्तान के सिंध, पंजाब, इस्लामाबाद, खैबर पख्तूनख्वा में लोग कुंभ की जानकारी को लेकर काफी उत्सुक थे। उन्होंने की वर्ड के जरिये जानकारी हासिल की। सिंध में तो उत्सुकता का स्तर सौ फीसद और पंजाब (पाकिस्तान) में 93 फीसद तक रहा।
वहीं चीन के शंघाई और गुआंगझांग रीजन में भी लोग कुंभ में गोते लगाते रहे। शंघाई में भी उत्सुकता का स्तर सौ फीसद तक था। बीजिंग में भी लोग कुंभ मेले के बारे में जानकारी लेते रहे। संयुक्त अरब अमीरात, सिंगापुर, मलेशिया, आयरलैंड, नीदरलैंड, कनाडा, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, ब्रिटेन, स्विट्जरलैंड, जर्मनी, फ्रांस, इटली, ब्राजील में भी महाकुंभ मेला, कुंभ के चार स्थान, ड्यरेशन आफ कुंभ (कुंभ की अवधि) आदि की वर्ड से कुंभ के बारे में जानकारी हासिल की गई।
छोटी-छोटी संस्कृतियां वृहद संस्कृति की ओर करती हैं गमन
संस्कृतियों का गहराई से अध्ययन करने वाले मानवशास्त्री डॉ. आलोक चांटिया कहते हैं कि जहां तक मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण का प्रश्न है तो उसके अनुसार कुंभ का मेला मानव का प्रकृति के साथ कुछ समय तक साथ रहने का एक प्रवास था, जिसमें प्रकृति पूजा को महत्व दिया गया। भारतीय संस्कृति में सिंधु घाटी सभ्यता में कहीं पर भी किसी तरह के देवालय आदि का वर्णन नहीं है बल्कि उसकी जगह पर लोग नदियों की, वृक्षों की, जानवरों की पूजा करते थे।
इस प्रकार से मानव जीवन के लिए पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए सिर्फ मानव और वातावरण के बीच के संबंध को ही नहीं बल्कि जीव-जंतुओं और प्राकृतिक स्रोतों के साथ क्या संबंध हैं और उस संबंध के आधार पर पृथ्वी पर मानव जीवन कैसे व्यवस्थित किया जा सकता है, इसी का नाम भारतीय संस्कृति में संक्षिप्त और छोटे रूप में मेला कहलाया और वृहद रूप में कुंभ।
कुंभ का मेला भारत को और भारत की विभिन्न संस्कृतियों को एक जगह पर लाने का भी कारण रहा है। इस तरह से देश भर में फैली हुई छोटी-छोटी स्थानीय संस्कृतियां एक वृहद हिंदू संस्कृति की ओर गमन करती हैं और उस वृहद हिंदू संस्कृति के अंतर्गत नदियों के किनारे लगने वाले मानव के संगम में स्थानीय संस्कृतियां वृहद संस्कृतियों से सीखती हैं। इस प्रकार से समरसता का एक दृष्टिकोण भी उत्पन्न करती हैं जो जैविक आधार पर मानव को सांस्कृतिक आधार पर भी जोडऩे का कार्य करती हैं।
कुंभ का मेला राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बनाए रखने में भी अपने योगदान को स्थापित करता है, क्योंकि देश की दो छोरों पर रहने वाले लोग अर्ध कुंभ और कुंभ मेले पर मिलकर सांस्कृतिक आर्थिक और सामाजिक संबंधों के जाल को विस्तृत अवस्था में स्थापित करने का काम करते हैं।
मानव शास्त्र में संस्कृति का अध्ययन इसीलिए किया जाता है ताकि हम यह जान सकें कि मनुष्य का संपूर्ण जीवन जीने का तरीका क्या है और कुंभ के मेले से इस बात का आसानी से अर्थ निकाला जा सकता है की हर छोटी-छोटी और स्थानीय संस्कृति में कुछ ऐसे सांस्कृतिक प्रतिमान होते हैं जो सामान्यतया एक समय विशेष के बाद अपने प्रभाव को स्थापित करते हुए एक विशाल संस्कृति को स्थापित करते हैं। जैसा कि हम हिंदू संस्कृति और उससे प्रभावित छोटी-छोटी सैकड़ों स्थानीय संस्कृतियों के बीच सांस्कृतिक प्रवाह को देखकर समझ सकते हैं। इस सांस्कृतिक प्रवाह को ही स्थापित करने का काम कुंभ जैसे विशाल मेले करते हैं।
इस बार लेना होगा प्रण
नदियों के संरक्षण के लिए काम कर रहे गोपी दत्त आकाश कहते हैं कि तीर्थराज प्रयाग में संत हर 12 साल और 6 साल बाद आते है और चले जाते हैं। लेकिन इस बार आप मां गंगा को देख कर नहीं जा सकते, अब आपको कुछ करना है। यहां से एक शुरुआत हो सकती है। सभी संत यह निर्णय लें कि हमे नदियों को गंदा नहीं होने देना है। पूजा सामग्री नदियों में नहीं विसर्जित करना है। समाज में जो लोग पूजा समग्री निस्तारण पर काम कर रहे है उनके जरिये विसर्जित की जाए। इस समय देश में करीब 52 संस्थाएं इस विषय पर काम कर रही हैं। इससे करीब सात लाख लोगों को रोजगार भी। एक फोन पर हम आपके घर से पूजा सामग्री ले सकते है। देश की एक महत्पूर्ण समस्या का समाधान हो जाएगा।