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कैप्टन मोहन सिंह रावत के अदम्य साहस को नमन, 17 गोलियां लगीं फिर भी शौर्य नहीं हुआ कम

कैप्टन मोहन सिंह तीन पाकिस्तानी सैनिकों को ढेर कर चुके थे। आमने-सामने की जंग में पाकिस्तानी सेना के 15 सैनिक मारे गए, भारतीय सेना के दो जवान भी शहीद हो गए। इसी दौरान बारिश होने लगी।

By Amit MishraEdited By: Published: Sun, 29 Jul 2018 04:33 PM (IST)Updated: Sun, 29 Jul 2018 10:10 PM (IST)
कैप्टन मोहन सिंह रावत के अदम्य साहस को नमन, 17 गोलियां लगीं फिर भी शौर्य नहीं हुआ कम
कैप्टन मोहन सिंह रावत के अदम्य साहस को नमन, 17 गोलियां लगीं फिर भी शौर्य नहीं हुआ कम

गाजियाबाद [आयुष गंगवार]। रणभूमि में गोलियों की बौछार हो रही थी। पूरा शरीर जख्मी था, 15 गोलियां शरीर को छलनी कर चुकी थीं। दो गोलियां सीने में भी लगीं, लेकिन कारगिल के इस योद्धा का शौर्य कम नहीं हुआ था। जैकेट से हैंड ग्रेनेड निकालकर पाकिस्तानी सैनिक को ढेर कर दिया। हम बात कर रहे हैं कैप्टन मोहन सिंह रावत की जिनकी वीरता को देखते हुए उन्हें शौर्य चक्र से अलंकृत किया गया।

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सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है

कैप्टन मोहन सिंह रावत आज भी जब छह जुलाई 1999 का दिन याद करते हैं तो सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। वह बताते हैं कि घायल होने के बाद श्रीनगर अस्पताल, उधमपुर, दिल्ली आर्मी अस्पताल और पुणे में 13 माह तक उनका इलाज चला। देश के लिए बैसाखी थामने वाले कैप्टन मोहन के दोनों बेटे भी देश की सुरक्षा में डटे हुए हैं। वह बताते हैं कि वर्ष 1998 में 21वीं राष्ट्रीय राइफल में तैनात होने के अगले वर्ष ही कारगिल युद्ध हुआ।

पाकिस्तानी सेना के 15 सैनिक मारे गए

पांच जुलाई 1999 की देर रात दो बजे सूचना आई कि पाकिस्तानी सेना की एक टुकड़ी देश की सीमा में घुस आई है। वह बटालियन के साथ उसी समय निकले और चार घंटे लगातार पैदल चलने के बाद उनका सामना पाकिस्तानी सैनिकों से हुआ। छह जुलाई को सुबह छह बजे से दोनों ओर से गोलीबारी शुरू हो गई। शाम पांच बजे तक कैप्टन मोहन सिंह तीन पाकिस्तानी सैनिकों को ढेर कर चुके थे। आमने-सामने की जंग में पाकिस्तानी सेना के 15 सैनिक मारे गए, भारतीय सेना के दो जवान भी शहीद हो गए। इसी दौरान बारिश होने लगी, लेकिन फायरिंग नहीं रुकी। कुछ समय बाद पाकिस्तानी सेना ने गोलीबारी रोक दी।

धोखे से किया हमला

एक घंटे तक शांति रहने के बाद लगा कि पाकिस्तानी सेना पीछे हट गई है। कैप्टन आगे बढ़े, लेकिन कुछ समझने से पहले ही पेड़ों के पीछे छिपे एक पाकिस्तानी सैनिक ने एके-47 से उन पर हमला कर दिया। बाएं पैर और दाएं हाथ में 7-7, बाएं हाथ में एक और सीने में दो गोलियां लगीं। हाथ से उनकी एके-47 जमीन पर जा गिरी। इस हालात में भी उनका हौसला कम नहीं हुआ और उन्होंने जैकेट से हैंड ग्रेनेड निकालकर पाकिस्तानी सैनिक को ढेर कर दिया। उनके अदम्य साहस और वीरता के लिए अक्टूबर-2001 में राष्ट्रपति भवन में उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने शौर्य चक्र से अलंकृत किया था।

स्कूल से निकलते ही सरहद पर पहुंचे

कैप्टन मोहन सिंह के पिता चंदर सिंह रावत भी सेना में थे। इसीलिए महज 20 साल की उम्र में 12वीं की परीक्षा पास कर मोहन सिंह भी सेना में चले गए। मूलरूप से उत्तराखंड के पौढ़ी गढ़वाल निवासी कैप्टन मोहन सिंह सेक्टर-23 संजयनगर के डी ब्लॉक में पत्नी देवेश्वरी के साथ रहते हैं। बड़े बेटे मनोज कुमार नायब सूबेदार के रूप में फिरोजपुर में तैनात हैं, जबकि छोटे बेट संदीप कुमार गुरदासपुर में हवलदार हैं। कैप्टन मोहन सिंह रावत 19 साल से बैसाखी के सहारे चल रहे हैं, क्योंकि हादसे के बाद बाएं पैर ने काम करना बंद कर दिया। वह आज भी गर्व के साथ कारगिल की वीरगाथा सुनाते हैं। 


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