दिल्ली-NCR के 2 करोड़ से अधिक लोगों को राहत देने वाली पहाड़ियां खुद संकट में
दिल्ली- एनसीआर में भूकंप की तीव्रता और मरुस्थलीकरण को रोकने में ढाल बनने वाली अरावली पहाड़ी की हरियाणा क्षेत्र में स्थिति ठीक नही है। हालात लगातार बिगड़ते जा रहे हैं।
गुरुग्राम [सत्येंद्र सिंह]। मैं घायल अरावली हूं, कभी मैं हरी-भरी थी और मेरे आंगन में हजारों लाखों पेड़ पौधों की हरियाली और जीव जंतु समाए हुए थे। मेरी कद्र जानने वाले लोग मुझे राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली, गुरुग्राम, नूंह, रेवाड़ी, फरीदाबाद और आसपास के प्रमुख शहरों के लोगों की जीवनदायिनी मानते हैं। कुछ स्वार्थी लोगों ने सफेदपोशों के साथ मिलकर मेरा सीना छलनी कर दिया है। अब हरियाली तो गई पक्षी व पशु भी मर रहे हैं। जो बचे हैं वह जीवन के लिए बस्ती में पहुंच रहे हैं। मैं आपको अपनी व्यथा सुना रही हूं। इस बार ऐसे जन प्रतिनिधि चुनना जो मेरी रक्षा कर सकें। मैं बचूंगी तभी एनसीआर में जीवन सुरक्षित रहेगा।
छह साल में छह वर्ग किलोमीटर ही बढ़ सकी हरियाली
दिल्ली- एनसीआर में भूकंप की तीव्रता और मरुस्थलीकरण को रोकने में ढाल बनने वाली अरावली पहाड़ी की हरियाणा क्षेत्र में स्थिति ठीक नही है। प्रदेश के छह जिलों में करीब साढ़े छह हजार वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैली इन पहाड़ियों में पेड़-पौधों का क्षेत्र केवल 78 वर्ग किलोमीटर ही है। वन विभाग छह साल में छह वर्ग किमी हरियाली क्षेत्र ही बढ़ा पाया है। यह रहस्योद्घाटन पिछले साल भारतीय वन्यजीव संस्थान देहरादून की सर्वे रिपोर्ट से हुआ है। रिपोर्ट भारतीय वन्यजीव संस्थान के एनिमल इकॉलोजी एंड कंर्जेवेशन बायोलॉजी विभाग के डॉ. बिलाल हबीब, गौतम तालूकदार, परिधि जैन व आंचल भसीन ने तैयार की है। रिपोर्ट के अनुसार अरावली सबसे प्राचीन पर्वत माला है।
विलायती बबूल बना नासूर
करीब 25 साल पहले बगैर सोचे समझे हरियाली बढ़ाने के चक्कर में वन विभाग की ओर विलायती बबूल के बीज अरावली में हेलीकाप्टर से बिखेर दिए गए थे। जिसके पेड़ आज अरावली के लिए नासूर बन चुके हैं। अच्छे पौधे गायब हो चुके हैं। यहां तक कि घास भी गायब हो गई। पर्यावरण विशेषज्ञ कहते हैं अगर इसे समय रहते नहीं मिटाया गया तो देशी पेड़-पौधों की रही-सही प्रजातियां भी खत्म हो जाएंगी। यही नहीं अरावली क्षेत्र में जल संकट और गहरा सकता है, वायु प्रदूषण भी बढ़ जाएगा।
करोड़ों की धनराशि हुई खर्च, हालात नहीं सुधरे
दक्षिणी हरियाणा मे नूंह, गुरुग्राम, नारनौल, रेवाड़ी व भिवानी जिलों में फैली अरावली की पहाड़ियों को हराभरा करने के लिए विलायती बबूल उगाए गए। विश्व बैंक से करीब 600 करोड़ रुपये की सहायता ली गई थी। वन विभाग के अधिकारियों ने पानी देने की परेशानी से बचने के लिए इस वनस्पति को ही लगाकर पूरा पैसा खर्च कर दिया।
ओपन फॉरेस्ट दो फीसद से भी कम
अरावली में ओपन फॉरेस्ट केवल 119 वर्ग किमी है, जो कुल क्षेत्र का दो फीसद भी नहीं है। कृषि योग्य भूमि भी लगातार घटती जा रही है। 16 साल पहले इसमें कृषि योग्य भूमि 5495 वर्ग किलोमीटर थी जो कि अब घटकर 5235 वर्ग किलोमीटर रह गई है। घास-फूंस का क्षेत्र भी काफी कम हो गया।
केंद्रीय मंत्री व मुख्यमंत्री के दौरे भी हुए हवा-हवाई
हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने खुद करीब दो साल पहले मांगर से लेकर दमदमा व कादरपुर व मानेसर तक फैली अरावली का हवाई सर्वेक्षण किया था। तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण मंत्री ने डेढ़ साल पहले पहले गुरुग्राम व फरीदाबाद और मेवात में फैली अरावली पहाड़ियों का हवाई सर्वेक्षण किया था। पर उनके सर्वेक्षण के बाद भी कोई ठोस नीति नही बन पाई। इन हवाई दौरे के बाद अगर कोई योजना बनी भी होगी तो वह अभी कागजों से बाहर नही आ सकी है।
पक्षियों की 450 प्रजाति में से सिर्फ 85 ही रह गईं
एमिटी विश्वविद्यालय में पर्यावरण शोध के विभागाध्याक्ष डॉ कुशाग्र कहते हैं कि पहले अरावली की पहाड़ियों में करीब 450 तरह की पक्षियों ने अपना डेरा बसा रखा था। अब मात्र 85 ही रह गई हैं। जिनमें गौरैया, उल्लू, कौआ, चील, मैना, बुलबुल की संख्या गिनती में है। कोयल की कूक सुनाई नही देती है। गिद्ध कई साल पहले विलुप्त हो चुके हैं। जंगल से मोर भी गायब हैं गांवों में जरूर मोर नजर आते हैं। एनीमल वेलफेयर की सिर्फ बातें होती हैं। उनके लिए कुछ ठोस नहीं किया जाता है। वर्ष 2007-2012 की पशु गणना में उनकी संख्या में 15 फीसद की कमी आई थी। जंगल नष्ट हो रहे हैं कुत्ते और बंदर भी इस कारण आबादी वाले क्षेत्रों में आते हैं। वह लोगों को काटने भी लगते हैं। जब बंदरों को पकड़ कर अरावली में छोड़ा जाता है मगर उन्हें वहां खाना नहीं मिलता। इस कारण वह फिर से आबादी वाले क्षेत्रों में आ जाते हैं।
पर्यावरण विशेषज्ञ विवेक कांबोज का कहना है कि दक्षिणी हरियाणा में अरावली का लगभग 1,00,000 हेक्टेयर क्षेत्र है। हालांकि अरावली का दस फीसद हिस्सा भी वनक्षेत्र नहीं है। पिछले साल मई माह में वन विभाग की ओर से कराए गए सर्वे में भी यह बात सामने आई कि सोलह साल में छह फीसद भी वन क्षेत्र नही बढ़ा है। अवैध खनन अभी भी लुके-छिपे किया जा रहा है। प्रशासन बड़े खनन माफिया के गिरेबान में हाथ डालने के बजाय श्रमिकों के खिलाफ पत्थर चोरी का मामला दर्ज करता है। कुछ सफेदपोशों ने ही माफिया कां संरक्षण किया था।
पर्यावरण मंत्री राव नरबीर सिंह का कहना है कि पिछली सरकारों के दौरान अवैध खनन तथा अन्य कार्यों से अरावली की दशा बिगड़ती गई। इस पर्वत श्रृंख्ला को प्राचीनतम धरोहर के रुप में बचाने की आवश्यकता है। मुख्यमंत्री मनोहर लाल इस बात के लिए बेहद गंभीर है। अरावली की खराब हालत को देखकर ही देहरादून के संस्थान से सर्वे रिर्पोट तैयार कराई। जिसके बाद अरावली के सुंदर परिदृश्यों को बचाने के लिए ठोस कदम उठाए जा रहे हैं।
वहीं, पर्यावरण विशेषज्ञ राजेश वत्स का कहना है कि अरावली को किसी भी कीमत पर संरक्षित किया जाना चाहिए। यह हमारी जीवन रक्षक है। हम सिस्मिक जोन फोर में जो भूकंप के लिहाज से अति संवेदनशील माना जाता है। शुक्र है कि अरावली के चलते तीव्र क्षमता से दिल्ली व एनसीआर में भूकंप नहीं आ रहा है। धूल भरी आंधी से भी पहाड़ी बचाव करती है। अवैध खनन व पेड़ों की कटाई तथा जंगल क्षेत्र में फार्म हाउस बनाए जाने के वजह से अरावली का स्वरूप बिगड़ा, जिसके चलते ही राजस्थान से आने वाले धूल के गुबार आसानी से एनसीआर में पहुंच रहे हैं।
देश की राजधानी दिल्ली और इसके आसपास के प्रमुख शहरों को रिहायश ही नहीं बल्कि वाणिज्यिक और औद्योगिक गतिविधियों के लिए सबसे उपयुक्त माना गया है। पर्यावरणविद् स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती बताते हैं कि दिल्ली और इसके आसपास के क्षेत्र में खुशहाली का कारण यह नहीं है कि यह राष्ट्रीय राजधानी है और यहां समग्र विकास हुआ है। बल्कि इसका कारण यह है कि यहां मानव के अनुकूल सभी प्राकृतिक संपदाएं भी अनुकूल हैं। दिल्ली से यमुना गुजरती है इसलिए यहां पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध है। राजस्थान के नजदीक होने के बावजूद भी दिल्ली में कभी रेगिस्तान की आंधियां तबाही नहीं करती क्योंकि इन धूल भरी आंधियों से बचाव करने को प्राचीनतम अरावली पर्वतमाला यहां है। अरावली की हरियाली ही दिल्ली और आसपास के शहरों जैसे गुरुग्राम,फरीदाबाद, नोएडा, गाजियाबाद को भरपूर मात्रा में आक्सीजन मिलती है। स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती के अनुसार दिल्ली के विकास में अरावली का यह योगदान एक दिन का नहीं है बल्कि अंग्रेजों ने अरावली बचाने को एक ऐसा कानून बनाया हुआ है, जिसके कारण भू-माफिया की नजर कभी अरावली पर नहीं पड़ी।