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मानवता की ‘अमर सेवा’ का प्रतिफल है ‘पद्मश्री’, कुछ ऐसी है एस. रामाकृष्णनन की कहानी

अमर सेवा संगम संस्थान के माध्यम से रामाकृष्णनन ने तीन दशक में तिरुनेलवेली जिले के 800 गांवों के छह लाख दिव्यांग व जरूरतमंद बच्चों को शिक्षित किया।

By Mangal YadavEdited By: Published: Sun, 23 Feb 2020 11:28 AM (IST)Updated: Sun, 23 Feb 2020 11:28 AM (IST)
मानवता की ‘अमर सेवा’ का प्रतिफल है ‘पद्मश्री’, कुछ ऐसी है एस. रामाकृष्णनन की कहानी
मानवता की ‘अमर सेवा’ का प्रतिफल है ‘पद्मश्री’, कुछ ऐसी है एस. रामाकृष्णनन की कहानी

नई दिल्ली [मनु त्यागी]। तमिलनाडु में अमर सेवा संगम का संचालन कर रहे 60 वर्षीय दिव्यांग एस. रामाकृष्णनन को मानसिक व शारीरिक रूप से दिव्यांगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए हाल ही में पद्मश्री सम्मान दिया गया।

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अमर सेवा संगम संस्थान के माध्यम से रामाकृष्णनन ने तीन दशक में तिरुनेलवेली जिले के 800 गांवों के छह लाख दिव्यांग व जरूरतमंद बच्चों को शिक्षित किया और रोजगार के योग्य व आत्मनिर्भर बनाया।

जिंदगी कभी रुकती नहीं

रामाकृष्णनन के संघर्ष की कहानी भी कम प्रेरक नहीं है। वर्ष 1976 की बात है, वह वायु सेना में भर्ती होना चाहते थे, लेकिन बेंगलुरु में शारीरिक परीक्षा के दौरान काफी ऊंचे पेड़ से गिर गए, जिस वजह से चोट इतनी गंभीर आई कि उनके हाथों से लेकर नीचे तक का हिस्सा हमेशा के लिए पैरालाइज्ड हो गया। तभी से उनकी जिंदगी व्हीलचेयर पर है। दैनिक जागरण से फोन पर हुई बातचीत में उन्होंने कहा, मैं इस घटना के बाद कमजोर तो पड़ा था, लेकिन जब ईश्वर ने कष्ट दिया तो रास्ता भी वही देता है। मेरी अक्षमता को ही मैंने संबल बनाया। पहले एक प्रिंटिंग प्रेस खोलने की कोशिश की, लेकिन लोगों से सहयोग नहीं मिला। तब मुङो एहसास हुआ मेरे जैसे बहुत लोग हैं, वे कैसे जीवन यापन करते होंगे। तभी तय किया कि भले शरीर साथ न दे, दिल और दिमाग तो है।

1992 से शुरू की सेवा

वह बताते हैं, 1992 में अमर सेवा संगम और सहयोगी रमन के साथ जुड़े। सेवा संगम के माध्यम से एक ही लक्ष्य था कि जिस तरह से हमारे परिवार ने हमारी अक्षमता में हमारा मनोबल बढ़ाया, उसी तरह हम किसी भी दिव्यांग को कमजोर न पड़ने दें। दरअसल, दिव्यांगता को कभी राह में अड़चन नहीं मानना चाहिए। आप यदि तय कर लें तो अपना जीवन संवारने के साथ ही समाज में भी अपना योगदान दे सकते हैं।

पांच बच्चों से हजारों बच्चों तक पहुंचा सिलसिला

एस रामाकृष्णनन कहते हैं, इस संस्थान में शिक्षा और रोजगार मुहैया कराने का प्रयास हम करते हैं। तीन दशक पूर्व सबसे पहले तिरुनेलवेली जिला के ही अलग-अलग गांवों से पांच बच्चे आए थे, जो बचपन से ही दिव्यांग थे। हमने सबसे पहले बच्चों को शारीरिक रूप से मजबूत बनाने का प्रयास किया। शुरू में मैं और संकर रमन ही इसे संभाल रहे थे, हम दोनों ही उन बच्चों को उनकी ग्रोथ के हिसाब से शारीरिक व्यायाम कराते थे। फिर धीरे-धीरे आसपास के लोग हमारे साथ इस काम में जुड़ने लगे। अब हजारों दिव्यांग बच्चे यहां शिक्षित भी हो रहे हैं, जिस बच्चे की जैसी दिव्यांगता है, उसके अनुकूल ही उसे दक्ष बनाया जाता है। बच्चों की थैरेपी, व्यायाम के लिए डॉक्टर भी जुड़े हुए हैं।

पद्मश्री से पुरस्कृत एस. रामाकृष्णनन ने बताया कि बीते तीन दशकों में अमर सेवा संगम तकरीबन छह लाख लोगों के जीवन को संबल दे चुकी है। हालांकि हमारा लक्ष्य लोगों की गिनती करना नहीं बल्कि उन्हें आत्मनिर्भरता होते देखना है। अब तो यह बच्चे कुछ सालों में यहीं अपने जैसे दूसरे दिव्यांग बच्चों के लिए प्रेरणा भी बनते हैं और उन्हें सक्षम भी बनाते हैं।


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