जानिये अब कैसे 'हलाला' नहीं होने देगा 'भगवान दास'
हलाला सिर्फ परिवेश से उपजी कोई रीति नहीं है। यह तो मुस्लिम समुदाय की हर स्त्री की व्यथा है। किसी भी गलत रीति की बेड़ियों में कब तक बंधा जाए किसी को तो पहल करनी ही होगी।
नई दिल्ली (जेएनएन)। तत्काल तलाक को कैबिनेट से मंजूरी मिलने के बाद मुस्लिम महिला आबादी में एक रोशनी की किरण जगी है। एक आस बंधी है हलाला पर भी कुछ हल निकलने की। किसी भी गलत रीति की बेड़ियों में कब तक बंधा जाए किसी को तो पहल करनी ही होगी। 'हलाला' उपन्यास के लेखक भगवानदास मोरवाल भी इसे वक्त की जरूरत बताते हैं। उपन्यास के नाट्य रूपांतरण के बारे में लेखक भगवान दास से वरिष्ठ संवाददाता मनु त्यागी की विस्तार से बातचीत हुई। प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश :
1. आपके उपन्यास 'हलाला' का नाट्य रूपांतरण हो रह है। इसे कैसे देखते हैं?
- दोनों ही अलग विधा हैं। महत्व भी अलग है। जहां नाटक को आप डेढ़ घंटे में देख लेंगे वहां उपन्यास में 150 पेज पढ़ेंगे, लेकिन महत्व कम नहीं होता। उपन्यास में हम उसके मर्म को गहराई से जाकर समझते हैं। नाटक में चुनौती होती है कम समयमें अधिक चीजों को कहना, गढ़ना। इस नाटक में सिर्फ स्त्री के साथ हलाला के नाम पर हो रहे शोषण को प्रस्तुत करने की बेहतर कोशिश की जा रही है। यह तो ऐसा मौजूदा विषय है अब नाटक से आगे इस पर फिल्म बनाने के लिए चर्चा हो रही है।
2. नाटक के पात्रों को रिहर्सल में सहयोग किया तो उसके कुछ अनुभव?
-हां, नाटक में अमूमन सभी पात्र दिल्ली से हैं। मेवात के परिवेश को वहां की भाषा को समझना उनके लिए चुनौती पूर्ण था। उनकी रिहर्सल के दौरान मैं हर दिन जाता था। मुझे भी बहुत अच्छा लगा, उन सब को डायलॉग के हिसाब से मेवाती भाषा सिखाना। उस परिवेश को महसूस कराना। निश्चित ही लोगों को मंच पर पात्रों के अभिनय में हलाला का वही सशक्त संदेश दिखेगा।
3. हलाला जैसा उपन्यास क्यों लिखा?
- 'हलाला' सिर्फ मेवात के परिवेश से उपजी कोई रीति नहीं है। यह तो मुस्लिम समुदाय की हर स्त्री की व्यथा है। मैं चूंकि मेवात में पला-बढ़ा तो उसकी रग-रग को महसूस कर पाता हूं। बहुत सी घटनाओं को वहां घटते देखा है। 'हलाला' बजरिए नजराना सीधे-सीधे पुरुषवादी धार्मिक सत्ता और एक पारिवारिक-सामाजिक समस्या को धार्मिकता का आवरण ओढ़ा, स्त्री के दैहिक को बचाए रखने की कोशिश का आख्यान है। मैंने सिर्फ छोटी सी कोशिश की है आजादी के बाद मुस्लिम परिवेश को केंद्र में रखकर उपन्यास लिखने की। इसमें नियाज, डमरू, नजराना जैसे पात्रों से स्त्री-पुरुष के आदिम संबंधों, लोक के गाढ़े रंगों को सामने रखने की। और अब तो सरकार भी इस पर संज्ञान ले रही है। फिलहाल तत्काल तलाक पर हल निकला है तो 'हलाला' पर भी जरूर हल निकलेगा।