पाक महीना रमजानः इफ्तारी में घुल रही इंसानियत और मोहब्बत
कोई पत्नी के साथ है तो कोई दोस्त के साथ, आधुनिक विदेशी परिधानों से लेकर पैर से लेकर सिर तक ढके, लेकिन श्रद्धा का भाव किसी में भी कम नहीं।
नई दिल्ली (नेमिष हेमंत)। उमस से भरी दोपहर ढलान की ओर है। आकाश पीली चादर ओढ़ने लगा है। आकाश में छिड़े नीले और पीले रंगों के द्वंद्व देखने में अच्छे लग रहे हैं। निजामुद्दीन की ओर जाने वाले रास्ते के दोनों ओर की दुकानों में लाइटें जल गई हैं। चहल-पहल से भरे संकरे रास्ते पर चंद कदम आगे बढ़ते ही गुलाब के फूलों की महक जैसे नया जोश भर देती है।
गुलाब के फूल, चादर समेत अन्य पूजा सामग्रियों की दुकानों पर श्रद्धालु खरीदारी कर रहे हैं। कुछ दुकानें धर्म के प्रतीक चिन्हों और किताबों से भरी हैं। दुकानदार अपनी दुकान पर आने की मनुहार कर रहे हैं। लोग जूता-चप्पल दुकानों के सामने निकालकर हाथों में पूजा का सामान लिए आगे बढ़ रहे हैं। कोई पत्नी के साथ है तो कोई दोस्त के साथ, आधुनिक विदेशी परिधानों से लेकर पैर से लेकर सिर तक ढके, लेकिन श्रद्धा का भाव किसी में भी कम नहीं। दरगाह तक पहुंचते-पहुंचते गलियों के ऊपर से पीलापन लिए आकाश गायब हो जाता है।
जैसे किसी घर में चले आए हों। गली के किनारे अब मांग कर गुजारा करने वाले लोग व बच्चे आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं। इन सबसे पार करते हुए रास्ता एक खुले स्थान पर खुलता है। सामने जगमग निजामुद्दीन दरगाह। लोगों का कारवां बढ़ता चला आ रहा है। गुलाब की खुशबू में धूप और अगरबत्ती की भीनी-भीनी खुशबू घुल गई है। महिलाएं, बुजुर्ग, बच्चे और युवा सभी के हाथों में खाने-पीने का सामान है। इफ्तारी का समय हो गया है। दरगाह के आंगन में ही लोग कतारबद्ध एक साथ रोजा खोलने बैठ गए हैं।
15 घंटे से अधिक के भूख-प्यास से पार जाने में जब आध्यात्मिकता का संबल मिले और धर्म के बंटवारे की दीवार ढहने लगे तो दिल को सुकून मिलता है। कुछ लोग इस पल को स्मार्ट फोन में कैद करने में जुटे हुए हैं तो कोई सजदे में आंख बंद किए खामोश खड़ा है। दरगाह के एक कोने से इंसानियत और मोहब्बत को समर्पित रूहानी आवाज वाली कव्वाली की आवाज आ रही है। मैं, मीठी यादों के साथ फिर दुनिया की ओर लौट जाता हूं।