सशक्त संसाधन ही हैं स्वच्छ शहर की पहचान, इन सुधारों से बनेगी बात
स्वच्छता शब्द के शुरुआत के दो शब्द स्व हैं। यानी यह स्वयं से शुरू होने वाला विषय है। जिस प्रकार से हम अपने घर दफ्तर या कार्यस्थल को स्वच्छ रखते हैं उस प्रकार ही शहर को स्वच्छ रखा जा सकता है। आवश्यकता है जागरूकता की।
नई दिल्ली। स्वच्छता शब्द के शुरुआत के दो शब्द स्व हैं। यानी यह स्वयं से शुरू होने वाला विषय है। जिस प्रकार से हम अपने घर, दफ्तर या कार्यस्थल को स्वच्छ रखते हैं, उस प्रकार ही शहर को स्वच्छ रखा जा सकता है। आवश्यकता है जागरूकता की। शहर को स्वच्छ रखने में वहां के रहने वाले नागरिकों की भूमिका अहम है। नागरिक अगर गंभीरता से स्वच्छता के विषय को लें तो काफी हद तक समस्या का समाधान हो जाता है। गाड़ियों के शीशे खोल लोग आसानी से चिप्स या नमकीन के खाली रैपर फेंकते हुए दिख जाते हैं, जबकि इसे निश्चित कूड़ेदान में डालना कोई कठिन कार्य नहीं है।
इसी प्रकार हम जब घर के गीले व सूखे कचरे को अलग-अलग करें तो इससे प्रशासन का कार्य काफी सरल हो जाता है। सालिड वेस्ट मैनेजमेंट नियम 2016 में भी गीला-सूखा कूड़ा अलग-अलग करने पर जोर देने की बात है। गीले कूड़े को अलग-अलग करके हम खाद बना सकते हैं और अपने ही घर के पेड़ पौधों को संतुलित आहार प्रदान कर सकते हैं।
इसी तरह सूखे कचरे को जब हम अलग करते हैं तो यह कचरा लैंडफिल पर न जाकर रिसाइकिल यूनिट में जाता है। जिससे लैंडफिल की ऊंचाई घटाने के हम नागरिक भागीदार बनते हैं। रही बात दिल्ली-एनसीआर की स्वच्छता रैंकिंग में सुधार न होने में गतिरोध की तो इसकी बड़ी वजह यहां की बढ़ती आबादी है।
भारत में शायद दिल्ली-एनसीआर ही ऐसा क्षेत्र है जिसकी अपनी आबादी तो कम है लेकिन यहां रोजगार के अवसर और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र होने की वजह से लोग विभिन्न कारणों से प्रतिदिन बड़ी संख्या में आते हैं जबकि स्थानीय निकाय और प्रशासन के पास संसाधन पुरानी जनसंख्या के हिसाब से हैं।
दिल्ली के ही नगर निगमों की बात करें तो जितने स्वीकृत पद दिल्ली में पांच से छह हजार टन प्रतिदिन निकलने वाले कूड़े का निस्तारण करने के लिए थे उतने ही आज हैं। हैरानी की बात है कि इन पदों पर जिस हिसाब से नई नियुक्तियां होनी चाहिए वह तो नहीं हो रही हैं बल्कि स्वीकृत पदों की अपेक्षा में 50 प्रतिशत कर्मियों की क्षमता के साथ निगम के कर्मी कार्य कर रहे हैं। लेकिन जिस हिसाब से शहर की जनसंख्या है उसके हिसाब से कर्मियों की संख्या काफी कम है। रिक्त पदों को भरने के साथ हमें स्वीकृत पदों की संख्या बढ़ाने की दिशा में कार्य करना होगा।
इसके अलावा शहर को स्वच्छ रखने के लिए संसाधनों की भी आवश्यकता है। कर्मचारी पूरे उत्साह के साथ कार्य करते हैं लेकिन संसाधनों की कमी के साथ दो से तीन माह देरी से कर्मियों को वेतन मिलता है। इससे उनका मनोबल तो टूटता ही है। वहीं, फंड के अभाव में निगम चाहकर भी मशीनरी समय से नहीं खरीद पाते हैं। स्वच्छता के लिए हमें जब संसाधन की आवश्यकता होती है तो फंड के इंतजाम करने के लिए सोचना पड़ता है। कभी कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) के जरिये फंड का इंतजाम करना पड़ता है तो कभी दूसरे तरीकों से।
उदाहरण के लिए हम एक मैकेनिकल स्वीपिंग मशीन खरीद लें मशीन खरीदना ज्यादा कठिन काम नहीं है वह तो एक बार में होने वाला व्यय है लेकिन उसके संचालन में आने वाला व्यय अधिक होता है। ऐसे में इन व्यय के लिए अत्याधिक फंड की आवश्यकता होती है।
इन सुधारों से बनेगी बात
- 95 प्रतिशत वार्ड से गीले व सूखे कूड़े का अलग-अलग संकलन हो
- सिंगल यूज प्लास्टिक जैसे प्लास्टिक की बोतल, पाइप ढक्कनों और गिलास का उपयोग प्रतिबंधित करें और जुर्माना लगाएं
- सार्वजनिक स्थानों की सफाई दिन में दो बार करें
- सभी सफाई कर्मचारियों को संसाधन उपलब्ध कराएं
- स्नेत पर ही कचरे का निस्तारण हो और लैंडफिल पर कूड़ा न डले
- कूड़े के निस्तारण पर जितना खर्च हो रहा है, उसका खर्चा सरकारी प्रशासन से न हो, बल्कि जनता से ही यूजर चार्ज लेकर पूरा किया जाए
(उत्तरी निगम की पूर्व उपायुक्त संगीता बंसल की संवाददाता निहाल सिंह से बातचीत पर आधारित)