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शाहजहां मानसून में सावन-भादो मंडपों के तले बैठकर मुमताज महल को किया करते थे याद

वर्षा ऋतु का पवन जो कदंब सर्ज अर्जुन केतकी वृक्षों को झकझोरता है वन उनके पुष्पों के सौरभ से सुगंधित है..मेघों के सीकरों से शीतल है वह किसे सुहावना नहीं लगता।

By Mangal YadavEdited By: Published: Mon, 03 Aug 2020 02:10 PM (IST)Updated: Mon, 03 Aug 2020 02:10 PM (IST)
शाहजहां मानसून में सावन-भादो मंडपों के तले बैठकर मुमताज महल को किया करते थे याद
शाहजहां मानसून में सावन-भादो मंडपों के तले बैठकर मुमताज महल को किया करते थे याद

नई दिल्ली [मनु त्यागी]। सावन को विदा कर..आज भादो ने ली अंगड़ाई..अब देखो कैस बीते मौसम झमाझम बारिश आई या..उमस में पसीना बहाई..। मुझे तो बस कालिदास का ऋतुसंहार याद आता है..जो सावन-भादो यानी वर्षा ऋतु का वर्णन कुछ ऐसा करते हैं, ‘यह मौसम एक राजसी ठाठ-बाट से आता प्रतीत होता है। राजा का वाहन यदि हाथी होता है तो वर्षाकाल का वाहन मेघ है। राजा के आगे-आगे ध्वज पताकायें फहराती हैं तो यहां बिजली की पताकाएं। राजा की यात्र में नगाड़े बजते हैं तो यहां वज्रपात के शब्द नगाड़े की कमी को पूरा करते हैं।

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वर्षा ऋतु का पवन जो कदंब, सर्ज, अर्जुन, केतकी वृक्षों को झकझोरता है, वन उनके पुष्पों के सौरभ से सुगंधित है..मेघों के सीकरों से शीतल है, वह किसे सुहावना नहीं लगता। वृक्ष लता वल्लरी आदि का मित्र है और प्रेमियों का तो मानो प्राण ही है..।’ यूं तो ये दो माह..साल में बारह मास में घूमकर एक ही बार आते हैं, पर दिल्ली के सावन-भादो तो बारह मास ही रहते हैं। आप सोच रहे होंगे कैसे? वो ऐसे कि दरअसल यहां सावन-भादो नाम से दो मंडप हैं। लाल किला के भीतर मोती मस्जिद के बगल में हयात बख्श नाम का मुगल बाग है न, इसी के उत्तर और दक्षिण में दो संगमरमर के भव्य मंडप हैं। इन्हीं के नाम हैं

सावन-भादो। अब आप सोच रहे हैं कि ऐसे नाम क्यों? यह संयोग मात्र नहीं है, इन मंडपों के नाम तो ऋतुओं के अनुकूल ही अंकित किए गए थे। और माहौल भी वैसा ही वर्षा ऋतु वाला रोमांचकारी होता था। इन मंडपों से जुड़े प्रमाण दिल्ली के इतिहास से जुड़ी कई किताबों में विस्तार से मिलते हैं। पुरातत्व विभाग भी इसकी पुष्टि करता है।

लाल किला में बादशाह और सावन भादो का होना

सावन-भादो मंडपों का निर्माण 1638 से 1648 के बीच मुगल बादशाह शाहजहां ने करवाया था। देखने में जुड़वां दिखने वाले ये मंडप आज भले सादे से दिखते हैं, लेकिन कभी यहां कालीदास की इस ऋतु को लेकर की गई व्याख्या सहज ही माहौल में बहती थी। इतिहासकार स्वप्ना लिडल अपनी किताब ‘दिल्ली 14: हिस्टोरिक वॉक्स’ में लिखती हैं कि उत्तरी दिशा का मंडप सावन है और दक्षिण दिशा का भादो। दोनों की कलाकृति में पानी की प्राथमिकता झलकती है।

इसकी रूपरेखा भी ऐसी है कि मंडप के किनारे तक, आलेदार दीवार पर झरने की तरह जलधार बहती रहती थी। कल्पना कीजिए इतिहास के उन पलों की, जब यहां सावन-भादो के इर्दगिर्द राजा की महफिल सजा करती थी। फूल से लदे फूलदान, उन पर आलों में जलते दीये की रोशनी शबाब पर है और झर..झर झरने सा गिरता पानी..बादशाहों को सराबोर कर रहा है। दोनों मंडपों का निर्माण भी ऐसा है कि एक-दूसरे के सामने दिखते हैं और बीच में बड़ा सा तालाब होता था। यहीं बैठकर तो 1842 में मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर द्वितीय ने लाल पत्थरों का मंडप बनवाया था, वही मंडप जिसे आप जफर महल के नाम से जानते पहचानते हैं।

अद्भुत बनावट और झूले की निशानी

इतिहासकार आरवी स्मिथ ने दिल्ली पर आधारित अपनी किताब दिल्ली: हिस्टारिकल ग्लिम्पसेज में लिखा है, ‘शाहजहां मानसून के महीनों में अमूमन सावन-भादों मंडपों तले बैठकर अपनी बेगम मुमताज महल के बिछड़े के गम से भरे दिल को सुकून देते थे। एक और खास बात थी कि जैसे आज सावन का अंतिम दिन है और कल से भादो होगा..तो बादशाह सावन वाले मंडप से भादो में चले जाते थे और वहीं बारिश की रिमङिाम फुहारों का आनंद उठाते थे।’

दिल्ली के इतिहास से जुड़े विषयों पर लिखते रहे अभिषेक स. मंडप की बनावट पर कहते हैं, ‘यहां का फर्श, दीवारें और छत संगमरमर की बनी हैं, बेजोड़ कारीगरी है। भादो के बीचोंबीच एक जलकुंड है और सावन से नहर निकलती है। आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर तो खासतौर से बरसात के दिनों में यहीं महफिल जमाकर, दिल्ली घराने की हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत परंपरा के संस्थापक और दरबारी संगीतकार उस्ताद तानरस खान के राग सुनकर अपना दिल बहलाते थे।’


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