पिक्चर खत्म हुई दोस्त, अब बस यादों में रह जाएगी रीगल सिनेमा की याद
रीगल के बाहर चाय, समोसे गुलाब जामुन के साथ यदि रात में कोई भोजन करना चाहे तो रोटी भी मिलती थी। यह लोगों के लिए कुतुब मीनार, लाल किला की तरह एक धरोहर था।
नई दिल्ली [अभिनव उपाध्याय]। दिल्ली के तमाम सिनेमाहाल के बीच रीगल की अपनी पहचान थी। इससे कई लोगों की यादें जुड़ी हैं। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक कुलदीप नैयर बताते हैं कि रीगल पहले अंग्रेजी फिल्में दिखाता था। हम फिल्में देखने वहीं जाते थे। बाद में हिंदी फिल्में दिखानी शुरू की।
रीगल के बाहर चाय, समोसे गुलाब जामुन के साथ यदि रात में कोई भोजन करना चाहे तो रोटी भी मिलती थी। यह लोगों के लिए कुतुब मीनार, लाल किला की तरह एक धरोहर था। जो लोग कनॉट सर्कल नहीं भी जाते थे वह रीगल सिनेमा जाते थे। मैं यहां कई अभिनेताओं और अभिनेत्रियों से मिला।
वैजयंतीमाला, नरगिस, सायरा बानो सहित कई लोगों से मिला। इसके बंद होने का बहुत दुख है। इसकी याद हमेशा रहेगी। सौ साल तक इसे चलाया जाना चाहिए था। यह एक लैंड मार्क हो जाता। इसे जारी रखने के लिए सरकार से भी मदद ली जा सकती थी।
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छात्र जीवन में रीगल सिनेमा से जुड़ाव को याद करते हुए लेखक व पूर्व राजनयिक पवन कुमार वर्मा कहते हैं कि जब हम लोग बड़े हो रहे थे तब यह हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा था। फिल्म देखने के बाद स्टैंडर्ड रेस्तरां में कॉफी पीने जाते थे। रीगल सिनेमा में मैंने गर्म हवा फिल्म देखी थी।
फिल्म देखने जाना इवेंट होता था। छात्र जीवन में फिल्म समीक्षक भी था। यहां राजकपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर और दिलीप कुमार की राम और श्याम देखी थी। सिनेमा हाल का माहौल तब काफी बेहतर था। रीगल के बंद होने के साथ एक युग का अंत हो गया, लेकिन यह हमारे जेहन में रहेगा।
लेखिका और संस्कृतिकर्मी कामना प्रसाद कहती हैं कि रीगल से जुड़ी कुछ रूमानी यादें भी हैं। वह जमाना और था जब हम छोटी-छोटी बातों पर खुश हो जाते थे। फिल्म देखने जाने की बात से ही खुशी हो जाती थी। रीगल के बंद होने से बहुत तकलीफ हुई।
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नेशनल स्कूल ऑफ ड्रॉमा के जनसंपर्क अधिकारी अनूप बरुआ कहते हैं कि शादी के बाद पत्नी के साथ रीगल में फिल्म देखने गया था। वहां के मालिक प्रसाद जी शायद ही एनएसडी का कोई नाटक छोड़ते हो, इसलिए उनसे अच्छा परिचय था। मुझे देखते ही टिकट वापस कराकर बाक्स की व्यवस्था थी। रीगल सिनेमा में फिल्म देखने का अपना मजा था।