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दारा होता सम्राट कुछ और होता इतिहास ! फिर चर्चा हुई शुरू

शलीमार बाग स्थित शीशमहल के सुंदरीकरण की खबरों के बाद औरंगजेब और दाराशिकोह पर चर्चा फिर शुरू हो गई है

By Pooja SinghEdited By: Published: Sat, 22 Feb 2020 05:03 PM (IST)Updated: Sat, 22 Feb 2020 05:03 PM (IST)
दारा होता सम्राट कुछ और होता इतिहास ! फिर चर्चा हुई शुरू
दारा होता सम्राट कुछ और होता इतिहास ! फिर चर्चा हुई शुरू

नई दिल्ली [संजीव कुमार मिश्र]। शलीमार बाग स्थित शीशमहल के सुंदरीकरण की खबरों के बाद औरंगजेब और दाराशिकोह पर चर्चा फिर शुरू हो गई है। सोचिए यदि कट्टरपंथी औरंगजेब की जगह उदारवादी दाराशिकोह सम्राट होते तो क्या इतिहास कुछ और होता? हालांकि इस सवाल पर इतिहासकारों के अलग विचार हो सकते हैं।

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बहरहाल शीशमहल के सुंदरीकरण की योजना पर तो सियासी घमासान क्यो मचा?

भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता प्रवीण शंकर कपूर ने तो ना केवल सुंदरीकरण की प्रक्रिया पर ही सवाल उठाए वरन पार्क का नाम शालीमार बाग से बदलकर परमवीर चक्र विजेता वीर अब्दुल हमीद रखने की सिफारिश तक कर डाली। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने करीब ढाई करोड़ रुपये से शीशमहल को विकसित करने की योजना बनाई है। शीशमहल का निर्माण मुगल बादशाह शाहजहां ने कराया था, 1658 में यहीं औरंगजेब की ताजपोशी भी हुई थी। इन सबके बीच दाराशिकोह की कब्र ढूंढने के लिए भी केंद्र सरकार ने सात सदस्यी पुरातत्वविदों की टीम गठित की हुई है। टीम हुमायूं के मकबरे के आसपास कब्र की तलाश शुरू कर चुकी है। यहां 140 कब्र हैं लेकिन इन कब्रों में दाराशिकोह की कब्र खोजना आसान नहीं है। 

शाहजहां के प्रिय का जन्म

इतिहासकार व लेखक अवीक चंदा की किताब ‘दाराशिकोह : द मैन हू वुड र्भी किंग’ किताब में लिखते हैं कि

यह सोमवार का दिन था। सूरज अस्त हो चुका था और अजमेर की झील के किनारे प्रकाश भी ढल रहा था। हर तरफ शांति थी। सैनिक पहरा दे रहे थे। मुमताज महल बहुत बेचैन थीं और उधर अपने महल में शाहजहां भी इधर-उधर टहल रहे थे। और जब रात 12 घड़ी और 42 पल गुजरी थीं जब बेटा पैदा हुआ। शाहजहां बेटा ही चाहते थे। बेटे की चाह में मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर भी गए थे। उनकी दुआ आखिरकार कुबूल हो गई। इस तरह 20 मार्च 1615 इतिहास में दर्ज हो गई। बेटा पैदा होने की खुशी में उत्सव मनाया गया। जिसमें बादशाह ने अतिथियों के साथ बैठकर भोजन किया। हालांकि यह भोजन अतिथियों एवं मुगल बादशाह तक पहुंचने से पहले कुक एवं फिर इम्पीरियल फूड टेस्टर से होकर गुजरता था। यह इसलिए किया जाता था ताकि खाने में जहर ना मिला होे। जन्म का यह उत्सव अगले सात दिन तक जारी रहा था। प्रतिदिन दीवान-ए-आम में संगीत-नृत्य की प्रस्तुति होती एवं फिर ये कलाकार आम लोगों के बीच जाकर प्रस्तुति देते। ऐसा ही था शाहजहां के पुत्र दाराशिकोह के

जन्म का उत्सव।

धूमधाम से हुआ था दारा का विवाह :

दाराशिकोह का विवाह नादिरा बानो से हुआ था। जो कि मुगल समाज के शाही विवाह आयोजनों में भी दर्ज है। अवीक चंदा कहते हैं कि दाराशिकोह का विवाह 1 फरवरी 1633 को हुआ था लेकिन जश्न 8 फरवरी तक बदस्तूर जारी रहा था। रात में जमकर आतिशबाजी होती थी। पटाखे, लाइटों की रोशनी से रात का एहसास ही नहीं होता था। ऐसा भी कहा जाता है कि विवाह के दिन पहने गए दुल्हन के जोड़े की कीमत ही उस समय आठ लाख रुपये थी। अपनी पत्नी मुमताज की मौत के बाद शाहजहां ने पहली बार जिस सार्वजनिक समारोह में हिस्सा लिया वो

दाराशिकोह का विवाह समारोह ही था।

तालीम में नहीं थी कोई कमी 

पांच वर्ष की उम्र में इतिहासकार अब्दुल हामिद लाहौरी के सान्निध्य में दारा की प्रारंभिक तालीम शुरू हुई थी। दारा हर अध्यापक के प्रिय थे, क्योंकि वो उनकी बातों को सुनने के साथ ही अनुसरण भी करते थे। शाहजहां ने दारा की प्रगति की समीक्षा के लिए एक नहीं, कई अध्यापक लगाए थे। जो नित्य प्रति नित्य रिपोर्ट सौंपते थे। ये अध्यापक भी उस समय के मशहूर शिक्षाविद् थे। इसमें अब्दुर राशिद, अब्दुल लतीफ सुल्तानपुरी आदि शामिल थे। इन्होंने कैलीग्राफी आदि की भी शिक्षा दी। जिसका परिणाम यह निकला कि बहुत जल्द दारा अपने पिता की तरह ही कैलीग्राफी करने लगे। अवीक लिखते हैं कि दारा का पसंदीदा विषय साहित्य था। महज 12 वर्ष की उम्र तक दारा ने उस समय के सभी प्रसिद्ध साहित्यकारों को पढ़ लिया था। इसमें हकीम अबुल कासिम फिरदौसी, शेख सादी और जलालुद्दीन रूमी भी शामिल थे। दारा मुस्लिम और्र हिंदी मनीषियों से ज्ञान लिए और इनके ज्ञान से प्रभावित भी हुए उन्हें आत्मसात भी किया। शायद यही वजह थी कि दाराशिकोह को शाहजहां बहुत पसंद करते

थे। इस कदर कि उन्हें सैन्य अभियानों में भी बहुत कम भेजते।

शाहजहां महज 16 साल की उम्र में ही औरंगजेब को सैन्य अभियान पर भेजदेते थे लेकिन दाराशिकोह को भेजने से कतराते थे हालांकि वो चाहते थे कि दारा ही उनका उत्तराधिकारी बने। शायद इसीलिए उन्होंने एक बार दरबार में आयोजन कर दारा को ‘शाहे बुलंद इकबाल’ का खिताब दे दिया। शहजादे को शाही खजाने से दो लाख रुपये एकमुश्त एवं प्रतिदिन एक हजार रुपये दैनिक भत्ता भी मिलता था। इस तरह उन्होंने यह जता दिया था कि उनके बाद दारा शिकोह ही हिंदुस्तान की गद्दी पर बैठेंगे। दारा को शाहजहां किस कदर पसंद करते थे। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दारा, शाहजहां के लिए गोपनीय पत्र भी लिखते थे। दारा शासन संबंधी पत्रोंं को पिता के आदेश पर पढ़ते थे और जवाब भी लिखते थे। इसके अलावा मंत्रियों द्वारा सौंपे जाने वाले दस्तावेज, पत्रों को भी दारा पढ़ते थे।

किताब लिखने का जुनून

1638 की वो सर्द शाम थी। संदेशवाहक ने संदेश दिया कि पर्सिया का शाह, कंधार पर दोबारा कब्जे की कोशिश

करने वाला है। 8 फरवरी 1639 को दारा को एक शक्तिशाली सेना का मुखिया बनाकर इस समस्या के समाधान के लिए भेजा गया। औरगंजेब उस समय दक्कन के अभियान का मुखिया था। इसलिए यह समय दारा को खुद

को साबित करने का भी था। दारा निकले तो उनका यह मानना था कि सेना को धीरे धीरे कूच करना चाहिए। ऐसा इसलिए कि जल्दी पहुंचने पर दुश्मन सतर्क हो जाएगा और युद्ध नहीं होगा। मुगल सेना 18 मई को काबुल पहुंची।

यहां दारा ने सेना को 15 दिन आराम करने का आदेश दिया। यहां से फिर मुख्य सेना ने गजनी की तरफ प्रस्थान किया जबकि कमांडर किलिच खान को कंधार भेजा। ताकि वो यह पता लगा सके कि परसियन सेना क्या कर रही

है। यह प्रक्रिया लंबी चली। इस बीच दारा अपनी किताब लिखने में भी व्यस्त रहे। किसी तरह वक्त निकाल वो लिखते पढ़ते। इस दफा तो युद्ध नहीं हुआ। कमांडर ने यह रिपोर्ट सौंपी कि परसियन सेना की कोई गतिविधि नहीं है। दारा अपनी सेना के साथ लौट गए थे।

हारकर दिल्ली लौटे दारा 

एक बार दारा को असफल भी होना पड़ा था। दरअसल, एक बार ऐसा भी हुआ था कि औरंगजेब कंधहार से

नाकामयाब होकर वापस लौटे, तब दाराशिकोह खुद पेशकश करते हैं कि इस अभियान का नेतृत्व करेंगे और शाहजहां इसके लिए राजी भी हो जाते हैं। लाहौर पहुंच कर दारा 70 हजार लोगों की सेना तैयार करते हैं जिसमें 110 मुस्लिम और 58 राजपूत सिपहसालार होते हैं। इस फौज में 230 हाथी, 6000 जमीन खोदने वाले, 500 भिश्ती और बहुत से तांत्रिक, जादूगर और हर तरह के मौलाना और साधू भी साथ होते हैं। अपने सिपहसालारों से सलाह लेने के बजाय दारा इन तांत्रिकों और नजूमियों से सलाह लेकर हमले का दिन निर्धारित करते हैं। उनके ऊपर वो बहुत पैसा भी खर्च करते हैं। उधर फारसी सैनिकों ने बहुत ही जानदार रक्षण योजना बनाई हुई थी। कई दिनों तक घेरा डालने के बाद भी दारा को असफलता ही हाथ लगी और उन्हें खाली हाथ ही दिल्ली वापस लौटना

पड़ा। कटे सिर दिल्ली की सड़कों पर घुमाया था दारा को : फ्रांसिसी इतिहासकार बर्नियर ने अपनी किताब ‘ट्रेवल्स इन द मुगल इंडिया’ में लिखा है कि दारा को एक छोेटी हाथिनी की पीठ पर बैठाया गया।

दुनिया के सबसे अमीर राज परिवार का वारिस फटे हाल कपड़ों में था। अपनी जनता के सामने बेइज्जती झेल रहा था। ऐसा कहा जाता है कि 31 अगस्त 1659 को औरंगजेब ने आदेश दिया कि दारा के सिर से अलग हुए धड़ को हाथी पर रख कर एक बार फिर दिल्ली के उन्हीं रास्तों पर घुमाया जाए जहां उनकी पहली बार परेड कराई गई थी। दिल्ली के लोग जैसे ही ये दृश्य देखते हैं तो दंग रह जाते हैं, औरते घर के अंदर जा कर रोने लगती हैं। दारा के इस कटे हुए धड़ को हुमायूं के मकबरे के प्रांगण में दफना दिया जाता है। यहां हैं नाम और निशान : दाराशिकोह ने 1640 में अपने लिए एक भव्य महल बनवाया था।

इसे मंजिल ए निगम नाम दिया गया। यह उस समय करीब चार लाख रुपये की कीमत से बनाया गया था। लाल किला के बाद यह उस समय की सबसे खूबसूरत इमारत थी। इसमें बेसमेंट भी था। कमरे हवादार थे। यही बाद में पुस्तकालय के रूप में बचा रह गया। 1803 में पंजाब के वायसराय ओक्टरनोली के आवास तथा नगर निगम का दफ्तर खोले जाने के कारण इसे बंद कर दिया गया। 1857 में इसे गदर भवन भी कहा जाने लगा। बाद में यहां दिल्ली कॉलेज स्थानांतरित किया गया फिर जिला स्कूल और फिर यहां नगर निगम बोर्ड का स्कूल चला। इस समय इस इमारत का अधिकतर भाग खाली है और एक भाग में दिल्ली सरकार के पुरातत्व विभाग का दफ्तर भी है। इसके अलावा दिल्ली में दाराशिकोह के नाम पर एक मार्ग भी है। डलहौजी रोेड का नाम 2017 में बदलकर दाराशिकोह मार्ग किया गया। लॉर्ड डलहौजी साल 1848 से 1856 तक गवर्नर जनरल ऑफ इंडिया थे। सांसद मीनाक्षी लेखी ने कहा था किर् हिंदुओं और मुसलमानों को एक साथ लाने के लिए दाराशिकोह का सम्मान करते हुए उनके नाम से काउंसिल ने सड़क का नाम बदलने का फैसला लिया है।


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