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एशियार्ड खेलों के बाद बदल गई राजधानी की सूरत, सजधज कर सड़कों पर दौड़ती थी फिटफिटिया

दिल्ली विश्वविद्यालय के गुरुतेग बहादुर खालसा कालेज में पढ़ाई के दिनों से राजनीति में सक्रिय भाजपा नेता व लेखक राज कुमार भाटिया का जन्म 1965 में हरियाणा के हिसार जिले में हुआ था। हाल में भाजपा केशवपुरम के जिलाध्यक्ष है।

By Prateek KumarEdited By: Published: Fri, 13 May 2022 05:26 PM (IST)Updated: Fri, 13 May 2022 05:29 PM (IST)
1982 में जब राजधानी में एशियार्ड हुआ, तब यहां की सूरत रही बदल गई।

नई दिल्ली [रितु राणा]। दिल्ली मेरे लिए बचपन...जवानी...सुख...दुख...अनुभव सब कुछ है। मेरे बचपन के समय दिल्ली का स्वरूप भी छोटा था, लेकिन जैसे-जैसे इसका स्वरूप बढ़ता गया, इसका मूल भी खोता चला गया। पहले यहां के लोग भी दिलदार हुआ करते थे। मैं स्कूली दिनों में बास्केट बाल का नेशनल प्लेयर था, इसलिए खेल के बहाने खूब घूमने को भी मिलता था। तब साधन और पैसे दोनों कम थे, इसलिए पैदल ही चार-पांच किलोमीटर चल लिया करते थे। उन दिनों की डबल डेकर बस भला किसकी पसंद नहीं होती थी। हमारा घर मोती नगर में था, वहां से इंद्रप्रस्थ डिपो तक 823 नंबर की बस चलती थी, जो कनाट प्लेस से होकर गुजरती थी। उसमें आधी टिकट 30 पैसे और पूरी टिकट 60 पैसे की थी।

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सजाकर चलाते थे फिटफिटया

साढ़े आठ रुपये का महीने का पास बना लेते थे और बस में खूब सैर करते थे। तब एक चार सीटर फिटफिटिया भी चलती थी, जो एनफील्ड बाइक पर होती थी। ज्यादातर फिटफिटिया चलाने वाले लोग गीता कालोनी के होते थे। वह लोग फिटफिटा को बहुत सजाकर रखते थे। उसमें रंग बिरंगे पर्दे , झालर लगे होते थे और टेपरिकार्डर होता था। उस दौर में तांगा और सवारी वाली टैक्सी भी खूब चलती थीं, जो आठ आने सवारी लेते थे। 1990 आते आते यह सब बंद हो गया। यह सब उस दौर की बहुत खुशनुमा यादें हैं।

नार्थ और साउथ कैंपस में बहुत फासला था

जब हम कालेज के दौर में थे, तब दिल्ली विवि के नार्थ और साउथ कैंपस के बीच बहुत फासला था। साउथ कैंपस के लोग नार्थ कैंपस में आने के लिए तरसते थे। दिल्ली विवि की अच्छी फैकल्टी नार्थ कैंपस में ही थीं, लेकिन 1990 के शुरुआत में कुछ फैकल्टी ने नियमित साउथ कैंपस जाना शुरू दिया क्योंकि तब कुछ नए कोर्स केवल साउथ कैंपस के कालेज को मिले थे। इसलिए छात्र भी कैंपस जाने लगे। कालेज के दिनों में हम सभी राजनीतिक दल के लोग एक साथ बैठा करते थे। तब आज जैसा हाल नहीं था। हमारे मतभेद तो होते थे, लेकिन मन भेद कभी नहीं हुए। कैंपस में एबीवीपी, समाजवादी, एनएसयूआइ के सभी लोग एक दूसरे के नजदीक थे।

सभी दलों के लोग शाम को एक साथ पीते थे चाय

शाम की चाय भी हम साथ बैठकर पीते थे। सबसे ज्यादा किरोड़ीमल कालेज के बाहर बैठते थे। इसके अलावा साउथ कैंपस में वेंक्टेश्वर कालेज, रामलाल आनंद कालेज, राउतुला राम कालेज हमारा अड्डा होता था। उन दिनों जेब में थोड़े पैसे आ जाते थे, तो हम बाबू बनकर घूमते थे। ज्यादातर खरीदारी लाल किले के पीछे चोर बाजार से करते थे। वहां से सेकेंड हैंड कपड़ों को दर्जी से सिलवाकर नया बनाकर हीरो बनकर घूमते थे। जब कभी ज्यादा पैसे आ जाते थे तो मोनेस्ट्र्री चले जाते थे, उसे पहले गोरखा मार्केट कहते थे।

दिल्ली की बदली तासीर, बनी मिनी भारत

1982 में जब राजधानी में एशियार्ड हुआ, तब यहां की सूरत रही बदल गई। दिल्ली को नई सड़कें, नए फ्लाईओवर, नई बसें और नए स्टेडियम मिले। लेन ड्राइविंग, सड़कों पर मार्किंग, चौराहे भी बने। आज जैसी दिल्ली दिखती है उसका प्रारूप उसी समय शुरू हुआ था। उसी दौरान दिल्ली में बाहर की लेबर आनी शुरू हुई और पूर्वांचल, बिहार व मध्य प्रदेश के लोग आकर यहां बसे। इससे दिल्ली की तासीर बदली और दिल्ली मिनी भारत हो गई। फिर यहां की संस्कृति भी बदलनी शुरू हो गई। 1980 से 90 के बीच यमुनापार में सभी विहार बन रहे थे। सबसे पहले विज्ञान विहार बसा, उधर जाने के लिए भी पहले इंद्रपुरी से 333 नंबर बस लेकर विवेक विहार जाना पड़ता था, फिर दो-तीन किलोमीटर पैदल चलकर विज्ञान विहार पहुंचते थे

मद्रास होटल यानी शिवाजी स्टेडियम

शिवाजी स्टेडियम की चाट बहुत मशहूर हुआ करती थी, आज वही सब स्ट्रीट फूड के नाम पर बिकती है। आज जिस जगह के हम शिवाजी स्टेडियम के नाम से जानते हैं, वह पहले मद्रास होटल से जानी जाती थी। जितनी भी बस वहां से जाती थीं, उसमें मद्रास होटल के नाम से टिकट कटती था। स्टेडियम के सामने मद्रास होटल था, जिसका डोसा बहुत प्रसिद्ध था। आज भी वहां वड़ा पाव और डोसा की दुकान है। वहां डेढ़ रुपये या दो रुपये का डोसा और 75 पैसे व एक रुपये में सांभर वड़ा की प्लेट मिलती थी।


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