FB-Whatsapp बिना भी भारतीय चुनाव में रंग जमा देती थीं ये चीजें, पढ़िए- यह रोचक स्टोरी
इतिहासकार आरवी स्मिथ बताते हैं कि जिसे अब लाउडस्पीकर कहा जाता था पहले इसे सभी भोंपू कहकर थे। प्रचार के दिनों में बेहद काम की चीज होता था ये भोंपू।
नई दिल्ली [संजीव कुमार मिश्र]। नेता जी अब गांव-गली-मुहल्ले और सोसायटी के स्टेटस को, मिजाज को भांप रहे हैं। वहां की नब्ज टटोल रहे हैं। कुछ इतिहास और गणित समझ रहे हैं। तब जाकर प्रचार के लिए उसी हिसाब की वेशभूषा धारण कर फलां जगह पहुंच रहे हैं। यूं तो तकनीकी युगीन नेताओं में सोशली होने की भी पुरजोर कोशिश और होड़ जारी है। इन सभी तौर तरीकों के बीच हम लोकतंत्र के प्रथम उत्सव से अब तक के चुनावी प्रचार रंगों से तौर तरीकों से रूबरू होंगेः-
राजनीतिक चर्चा। चुनावी बिसात। शह-मात। प्रचार-प्रसार। ऊंट किस करवट। जनता का मूड। नेता जी कहिन।रैलियों का शोर। प्रचार पर जोर। डोर टू डोर। नारा बुलंद करने का। कुछ चिकनी चुपड़ी बातें करके दर-दर जनता को लुभाने का। सोशल मीडिया पर किच-किच और टिक-टिक। दिल्ली की गली- गलियारों में ये बयार गर्मी का तापमान और चढ़ा रही है। अब तो चुनाव में क्रांतिकारी बदलाव लाजिमी है। लेकिन एक दौर था जब चुनाव प्रचार के तौर तरीके बिलकुल जुदा होते थे।
अद्भुत होते थे जलसे
पुरानी दिल्ली के 80 वर्षीय अब्दुल करीम हंसते हुए कहते हैं कि मैं तो हमेशा तैयार रहता था। प्रधान जी जोर से नाम लेकर बुलाते थे एवं मैं तपाक से उनके पास पहुंच जाता था। सन् 1905 में लाहौरी गेट के पास दो मेगावाट का डीजल सेट लगा था। जिसके बाद 1939 में दिल्ली सेंट्रल इलेक्ट्रीसिटी पॉवर ऑथोरिटी का लाल किला के आसपास व अन्य कॉलोनियों में बिजली की सुविधा प्रदान करने के लिए गठन किया था। हालांकि, उस समय हर घर में बिजली नहीं थी। यही कारण था कि वर्ष 1952 में पहले लोकसभा चुनावों के बाद हर लोकसभा चुनावों में बिजली का ही मुद्दा छाया रहता था। हम अपने यार दोस्तों संग नेताओं की सभाओं में जाते एवं उन्हें ध्यान से सुनते थे। ये सभाएं रात के समय ही अक्सर होती थीं। इसे जलसा भी कहा जाता था। अद्भुत नजारा होता था। चंद फासलों पर विभिन्न दलों के नेता जलसा करते थे एवं लोग ध्यान से सुनकर यह तय करते थे कि वोट किसे देना है। विक्रम नगर निवासी 90 वर्षीय बुजुर्ग की मानें तो उन्होंने एक दो बार प्रचार के सिलसिले में यहां आए नेहरू जी से भी मुलाकात की थी।
बैलगाड़ी-घोड़ागाड़ी से प्रचार
इतिहासकार आरवी स्मिथ पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि उन दिनों की बात ही निराली थी। तब इतना शोर शराबा नहीं था, आबादी दूर-दूर थी। शहर खुला-खुला था। ऐसी जकड़न सी नहीं थी शहर में। तब तो पुरानी दिल्ली को छोड़ दें तो डिफेंस कॉलोनी, लाजपत नगर, करोल बाग सरीखे इलाकों में भीड़ थी। ब्रह्मप्रकाश सरीखे नेता भी बैलगाड़ी से प्रचार करते थे। उन दिनों बैलगाड़ी पर नेता अपने समर्थकों के साथ बैठ जाते थे। सुबह सफर शुरू होता था एवं दिन भर प्रचार होता था। साथ में चना वगैरह लेकर चलते थे एवं पानी पीते-चना खाते प्रचार होता रहता था। चुनाव के दिन तो मानों मेला सा माहौल हो जाता था। खूब सजी संवरी औरतें बैलगाड़ी पर बैठकर बूथ तक पहुंचती थीं।
मन की बात करती थी चिट्ठी
उन दिनों आबादी कम एवं दूर-दूर थी। लिहाजा, नेताओं का सभी तक पहुंचना संभव नहीं हो पाता था क्योंकि इतने साधन नहीं थे, लेकिन एक चीज थी जो नेता और वोटर के बीच सेतू का काम कर रही थी और वो था पोस्टकार्ड। आजादी के बाद हुए कुछ लोकसभा चुनावों में पोस्टकार्ड पर हाथ से लिखी चिट्ठी प्रचार का बड़ा माध्यम हुआ करती थी। इसके जरिए उम्मीदवार अपनी बात सीधे मतदाताओं से कर पाते थे। लोकसभा चुनाव क्षेत्र का विस्तार काफी होता था और उम्मीदवार हर मतदाता तक नहीं पहुंच पाते थे, इसलिए चिट्ठी का इस्तेमाल किया जाता था। इसमें नेता एक तरह से अपना विजन प्रस्तुत करते थे।
झंडे, बैनर और पोस्टर
चुनाव में कुछ सालों पहले तक झंडे, बैनर, पोस्टर का जमकर इस्तेमाल होता था। उम्मीदवार जगह जगह चौक चौराहों पर पार्टी का झंडा लगा देते थे। कार्यकर्ता भी बड़े उत्साह से झंडा हाथ में लेकर प्रचार करते थे। इस तरह चुनाव में खड़े प्रत्याशी अपनी बात, विचारधारा, वायदे आदि मतदाता तक पहुंचाते थे। टीएन शेषन के कार्यकाल के बाद इन माध्यमों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
भोंपू था बड़े काम की चीज
आरवी स्मिथ बताते हैं कि जिसे अब लाउडस्पीकर कहा जाता था, पहले इसे सभी भोंपू कहकर थे। प्रचार के दिनों में बेहद काम की चीज होता था, ये भोंपू। प्रत्याशी इसके जरिए एक ही जगह बैठकर पूरा गांव कवर कर लिया करते थे। और तो और गांव में साइकिल, रिक्शा पर भी इस भोंपू को बांधकर उस पर दिनभर प्रत्याशियों
का प्रचार बजता था। पार्टी के कार्यकर्ता गाना गाते हुए प्रचार करते थे। ये जहां से गुजरते थे, उनके आसपास भीड़ लग जाती थी। लेकिन अब चुनाव प्रचार में भोंपू इतिहास बन गया। इसका उपयोग बैठकों से लेकर रैलियों तक में जम कर किया जाता था। चुनाव आयोग ने इसे भी प्रतिबंधित कर दिया था।
बिल्ले और बैच का दौर
याद करिए, छोटे-छोटे बिल्ले, जिन्हें शर्ट के बटन या फिर जेब के ऊपर लगाकर कार्यकर्ता बड़े शान से घूमते थे। यही नहीं ये बिल्ले और बैच गांवदेहात में खूब बांटे जाते थे। दिल्ली के सदर बाजार में ये थोक में मिलते थे, अब भी मिलते हैं, लिहाजा यहां सबसे ज्यादा प्रयोग भी इन्हीं का होता था। वर्ष 1996 से पहले के चुनाव में बिल्ले और बैच का सभी राजनीतिक पार्टियां खूब उपयोग करती थीं। इन बिल्ले और बैचों पर चुनाव चिह्न और प्रत्याशी की फोटो छपी होती थी। बच्चों को बेहद पसंद आने वाले ये बिल्ले और बैच प्लास्टिक या टीन से बनाए जाते थे। अब इनका इस्तेमाल नहीं होता।
दीवारों पर लिखे और छपे नारे
दीवार लेखन या दीवार पर छपाई काफी समय पहले तक चुनाव प्रचार का एक अच्छा माध्यम मानी जाती थी। राजनीतिक पार्टियां अपने नेता, चुनाव चिन्ह और नारों को इस माध्यम से जनता तक पहुंचाती थीं, लेकिन इनसे दीवारें गंदी हो जाती थीं, जिसकी वजह से दीवार लेखन और छपाई को प्रतिबंधित कर दिया गया।
मुखौटे के पीछे कौन
देश में चुनाव प्रचार में नेताओं के मुखौटों का अब खूब इस्तेमाल होने लगा है। पहले नेताओं के मुखौटों की संस्कृति अमेरिका या यूरोपीय देशों में ही दिखती थी, लेकिन अब भारतीय राजनीति में भी इसका खूब प्रयोग होता है। आपको याद हो तो भाजपा ने 2014 में इसका खूब उपयोग किया था। इसी तरह इस चुनाव में भी मुखौटों को प्राथमिकता दी जा रही है। नरेंद्र मोदी की अधिकतर रैलियों में लोग मुखौटों के साथ देखे जा सकते हैं। कांग्रेस भी इसका उपयोग कर रही है।
अब मिस्डकॉल भी लो
देश की राजनीतिक पार्टियां अपने सदस्य बनाने के लिए पहले भी अभियान चलाती रही हैं, लेकिन वर्तमान में संचार के बेहतर साधनों की वजह से इसमें तेजी देखी गई है। अब तो मिस्ड काल के जरिए लोगों को ना केवल पार्टी से जोड़ा जा रहा है बल्कि उन्हें पार्टी के बड़े नेताओं की सभाओं को लाइव सुनने के लिए यूट्यूब लिंग भी साझा किया जाता है। यह तरीका इस समय लगभग सभी पार्टियां अमल में ला रही हैं।
सोशल मीडिया की तो बात ही निराली
भारत में स्मार्टफोन धारकों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। ऐसे में डिजिटल दौर में सोशल मीडिया और मोबाइल एप बड़े प्रचार साधन के रूप में उभरे हैं। स्मार्टफोन उपयोग करने वाले अधिकतर युवा हैं और राजनीतिक पार्टियां इन्हें लुभाने का मौका भला कैसे छोड़ सकती हैं। वे स्मार्टफोन उपयोगकर्ताओं तक पहुंचने के लिए मोबाइल एप का सहारा ले रही हैं। यही नहीं ट्विटर, फेसबुक पर बकायदा पेज बनाकर प्रचार किया जाता है।
नुक्कड़ नाटक की बुलंद आवाज
आजादी के बाद हुए कुछ चुनावों में नुक्कड़ नाटक भी प्रचार का बढ़िया माध्यम रहा। इससे लोगों तक सीधे बात पहुंचानी आसान होती थी, पर अब प्रचार में नुक्कड़ नाटक का इस्तेमाल पहले से काफी कम हो गया है। हालांकि अब भी कई ऐसे दल हैं जो जनता से जुड़े मसलों पर लोगों को जागरूक करने के लिए नुक्कड़ नाटक का सहारा लेते हैं। बिजली, पानी, अपराध, कृषि समेत अन्य ज्वलंत मसलों पर नाटक किए जाते हैं।
वेशभूषा बदलना भी जरूरी
यह बहुत ही भावनात्मक चुनाव प्रचार है। आपने कई बार बड़े नेताओं को संबंधित जगह के अनुरूप ड्रेस पहने देखा होगा, खासकर चुनावी रैलियों में। जैसा देश-वैसा भेष की तर्ज पर नेता इस तरह लोगों को भावनात्मक रूप से जोड़ते हैं। चुनाव के वक्त जब प्रचार के लिए पार्टी के स्टार प्रचारक निकलते हैं तो वे जिस क्षेत्र में जाते हैं, वहां के सांस्कृतिक पहनावे को अपनाते हैं। पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक इस तरीके को अपनाते रहे हैं। जनता पर और बेहतर प्रभाव बनाने के लिए वहां की भाषा का भी खूब इस्तेमाल करने का प्रयास किया जाता रहा है।
दर-दर जाओ वोट पाओ
प्रचार का यह माध्यम काफी पहले चुनावों में इस्तेमाल होता था, लेकिन कुछ समय से इस तरह के प्रचार में कमी देखी जा रही थी। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के अर्रंवद केजरीवाल ने डोर टू डोर माध्यम को नए सिरे से हथियार की तरह उपयोग किया। उसे पुनर्जीवन दिया। इससे दिल्ली में आम आदमी पार्टी को आश्चर्यजनक नतीजे मिले थे। इस बार भी लोकसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी के नेता इसे अचूक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। हालांकि भाजपा भी इस बार इस पर अमल कर रही है। मनोज तिवारी के झुग्गी प्रवास को इसी नजरिए से देखा जा रहा है।