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अभिनेता वीरेंद्र सक्सेना ने कहा- हिंदी थियेटर का दुर्भाग्य है कि उसके पास दर्शक नहीं है

दिल्ली ने कैसे बनाया कलाकार और क्यों खास है यह शहर इस पर अभिनेता वीरेंद्र सक्सेना से मनु त्यागी ने विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश

By Pooja SinghEdited By: Published: Fri, 08 Nov 2019 11:57 AM (IST)Updated: Fri, 08 Nov 2019 11:57 AM (IST)
अभिनेता वीरेंद्र सक्सेना ने कहा- हिंदी थियेटर का दुर्भाग्य है कि उसके पास दर्शक नहीं है

नई दिल्ली, जेएनएन। न चाहते हुए भी मैं दिल्ली से थियेटर छोड़ मुंबई चला तो गया, लेकिन मेरी एक्टिंग में चाहे टीवी हो या फिल्म हमेशा थियेटर की छाप रही। दिल्ली के थियेटर का खासकर हिंदी थियेटर का दुर्भाग्य है कि उसके पास दर्शक नहीं है वरना मुंबई, कोलकाता, चेन्नई कहीं भी यहां जैसा क्रिएटिव थियेटर नहीं मिलेगा। यहां थियेटर को जीने के बाद आप कहीं और मंचन नहीं करना चाहेंगे। दिल्ली ने कैसे बनाया कलाकार और क्यों खास है यह शहर इस पर अभिनेता वीरेंद्र सक्सेना से मनु त्यागी ने विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश 

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दिल्ली कैसे आना हुआ? और कब लगा कि आप थियेटर के लिए बने हैं?

मैं 1976 में राजा महेंद्र प्रताप सिंह का सेक्रेटरी बनकर दिल्ली आया था। खान मार्केट के पास उनका आशियाना था। वहीं मुझे भी बढ़िया सा कमरा मिला हुआ था, अच्छा खाना मिल जाता था। उनके लिए चिट्ठी लिखने का काम था। मेरी लेखनी बहुत सुंदर थी। उन दिनों मुझे 100 रुपये वेतन मिला करता था। तभी अनंत चौधरी जो मेरे सीनियर थे उनसे मुलाकात हुई, उन्होंने ही मुझे नाट्य दुनिया में कदम रखने को प्रेरित किया और एक नाटक में अभिनय का अवसर दिया। उन्होंने ही मेरी मुलाकात एमके रैना से कराई। फिर हमने थियेटर का ‘प्रयोग’ ग्रुप बनाया। बाद में मैंने नाट्य संस्कारों का अनुसरण करने के लिए 1979 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ज्वाइन कर लिया। यहीं मैं नाट्य अभिनय को समर्पित हो गया।

...तो फिर मुंबई क्यों चले गए, क्या एक बड़े नाट्य कर्मी का वहां जाना जरूरी होता है?

मेरी मुंबई जाने की बिल्कुल इच्छा नहीं थी। वहां जाने के लिए खुद को बेचना आना चाहिए, खरीदार भी बढ़िया होना चाहिए। 1986 की बात है मुझे दूरदर्शन पर ‘तमस’ जैसे टीवी सीरियल में महत्वपूर्ण रोल मिल गया था। तमस अपने समय का बेहद लोकप्रिय नाटक रहा। साथ में थियेटर भी कर रहा था, लेकिन आगे बढ़ने के लिए कुछ कमी महसूस हो रही थी और न चाहते हुए भी जिंदगी और परिस्थिति मुझे मुंबई के सफर पर ले जा रही थी। वहां जाकर मुझे नए सिरे से ही शुरुआत करनी पड़ी, क्योंकि पहले आप कितने भी बड़े धुरंधर क्यों न रहे हों, मुंबई जाते ही शुरुआत एबीसीडी से ही करनी होगी।

आप कह रहे हैं मुंबई जाकर एबीसीडी से शुरुआत करनी पड़ी, लेकिन आपकी हाल ही में आई फिल्म सुपर-30 तक में तो आपके अभिनय में थियेटर ही झलकता है?

दरअसल, जो थियेटर को एक बार जी लेगा, उसके जीन से उसके संस्कारों से फिर वो जाता नहीं है। आप दूसरे प्लेटफार्म पर पहचान बना लेंगे, नई शुरुआत कर लेंगे लेकिन काम वही थियेटर के संस्कार आते हैं। नाटक के बहुत सारे मंच हैं उसमें दिल्ली की नाट्य अकादमी को किस तरह देखते हैं? दिल्ली का थियेटर बहुत कलात्मक रहा है। अभूतपूर्व प्रयोग हुए हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि यहां नाटक को प्यार करने वाले दर्शक हमेशा ही कम रहे। खासकर्र हिंदी थियेटर के साथ। पहले ट्रेडिशनल थियेटर था लेकिन, अब वो बात नहीं रही। वहीं आप मुंबई, चेन्नई,कोलकाता को देखिए वहां का थियेटर उतना क्रिएटिव नहीं है, लेकिन वहां दर्शक हैं। दिल्ली में आप नाटक के दम पर सर्वाइव नहीं कर सकते।

एक आपके दौर का मंचन था और एक आज का दौर है, इस पर क्या कहेंगे?

टीवी सीरियल्स की शुरुआत हमारे दौर में ही हो गई थी। लेकिन, तब तक भी हम थियेटर को पूरी तरह समर्पित थे। हमारा पूरा दिन उसी में बीत जाया करता था। लेकिन, आज थियेटर को सिर्फ एक सीढ़ी के तौर पर अपनाया जाता है। लोग सोचते हैं कि यदि आगे धारावाहिक या सिनेमा की दुनिया में जाना है तो उसके लिए थियेटर से थोड़ी बहुत एक्टिंग आ जाएगी, लेकिन थियेटर के प्रति उनमें वो समर्पण नहीं दिखता। हां, नाटक बन रहे हैं लेकिन हिंदी

थियेटर तो बहुत उदास हो चुका है।

आपने थियेटर, टीवी सीरियल, फिल्म सब जगह काम किया। सबसे सहज कहां महसूस किया?

मेरी पत्नी ने एक प्ले लिखा था ‘जाना था रोशनपुरा, पहुंच गई 45 बंगलो’, उसमें एक बात बहुत अच्छी कही गई कि हम जिंदगी में निकलते कहीं के लिए हैं लेकिन पहुंच कहीं और जाते हैं। मैंने भी सोचा था थियेटर करूंगा, लेकिन देखिए आज कहां से कहां पहुंच गया। लेकिन एक सच्चाई यह भी है थियेटर से फिल्म में आना भी जरूरी है। ताकि आप अपनी कला ज्यादा से ज्यादा लोगों को दिखा सकें। थियेटर में हैपनिंग होती है और फिल्म विशुद्ध मेकिंग होती है। दोनों में फर्क देखिए फिल्म में मेकिंग में हैपनिंग क्रिएट की जाती है, जबकि थियेटर में हैपनिंग में मेकिंग होती है।

दिल्ली शहर ने आपको कैसे बनाया आपने इस शहर को कैसे जिया?

मैं जब दिल्ली आया तब 100 रुपये मासिक वेतन था। जब राजा साहब की नौकरी छोड़ दी और सिर्फ नाटक करने लगा तो एक मित्र थे जो बहुत रईस थे उनके घर में पनाह मिल गई। मुझे उनका खाना भी बनाना होता था। बड़े भैया हर महीने 100 रुपये भेज दिया करते थे। बाकी मैं दो रुपये प्रति पोस्टर बनाया करता था। जो भी

पोस्टर बनवाने आता मैं उनसे कह देता कि ब्रश और पेपर आप ले आइए और मैं पोस्टर बना देता था। इसी तरह दिल्ली ने मेरे भीतर के कलाकार को मंच देना शुरू कर दिया था।

एनएसडी के आसपास की दिल्ली, कहां घूमते थे।

हमारे पास घूमने के लिए बहुत ज्यादा कुछ तो नहीं था, हां सिनेमा देखने का शौक था सो, प्रगति मैदान के पास शाकुंतलम सिनेमा हॉल था वहां दो रुपये में फिल्म देखने जाया करते थे। उसके लिए पैसे जुटाने पड़ते थे। इसके

अलावा तो हर समय पढ़ना, देखना, सुनना, जीना सब थियेटर ही था। मुंबई में आप बगैर फोन किए किसी के घर नहीं जा सकते, लेकिन दिल्ली में तो हम कभी भी किसी के घर चले जाते, भूख लगी होती तो खाने के लिए कह देते

थे। आज भी मेरा छोटा शहर हमेशा मेरे साथ होता है। जब-जब मैं चालाक होकर कोई काम करता हूं तो वहां मेरे मुंबई वाले अनुभव काम आते हैं और जब कोई काम दिल से करता हूं तो मेरे छोटे शहर मथुरा और दिल्ली के थियेटर के अनुभव काम आते हैं।

और अब वेब सीरीज की तरफ भी जा रहे हैं?

हां, फादर्स वॉल्यूम-2 की वेब सीरीज एमएक्स और टीवीएफ प्लेयर पर आई है। वाकई ये आज के समय में बहुत

अच्छा शो है। इसकी स्टोरी बिल्कुल जुदा है। हम हमेशा चाहते हैं बच्चे हमारी तरह जिएं और बच्चे चाहते हैं हम अपनी तरह जिएं। इस शो में तीन ऐसे मां-बाप हैं जो खुश रहने की आर्ट को नहीं, बल्कि उसकी फाइन आर्ट को जानते हैं, इसलिए वो बच्चों के साथ हमेशा कदम से कदम मिलाकर चलते हैं और खुश रहते हैं। 

दिल्ली की कौन सी जगहों पर जाना पसंद करते थे, आज भी यहां आते हैं तो कहां का खाना पसंद करते हैं?

पहले तो समय नहीं मिला था दिल्ली घूमने का, लेकिन कुछ साल पहले जब ओलंपिक थियेटर में आया तब लाल किला घूमा, पुरानी दिल्ली की हवेलियों में घूमा। अब जब भी आता हूं सोचता हूं एक-एक कर सभी जगहों पर जाऊं। मुझे किताबें पढ़ने का बहुत शौक है। अभी मैंने द लास्ट मुगल बुक पढ़ी तब से और भी ज्यादा दिल्ली को घूमने का मन होता है। बंगाली मार्केट के पीछे शंकर मार्केट में इकलौता ढाबा है उसे भी बहुत मिस करता हूं।

एक पप्पू का ढाबा दिल्ली आइआइटी के पास था। वो बंदा मेरे लिए हमेशा खाना रखता था। मैं कितनी भी देरी से पहुंचता, लेकिन मुझे खिलाकर ही जाता था। मैं उससे अब भी मिलने जाता हूं। 


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