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100 years Of Delhi University: दिल्ली विश्वविद्यालय की स्वर्णिम गाथा सुनाएगी काफी टेबल बुक

100 years Of Delhi University दिल्ली विश्वविद्यालय की स्वर्णिम गाथा सुनाती काफी टेबल बुक तो दिलचस्प होगी ही आखिर उसमें एक विश्वविद्यालय का संघर्ष स्वावलंबन और स्वाभिमान जो छलकेगा। इसमें कई ऐसी जानकारी भी होगी जिसे हम और आप नहीं जानते हैं।

By Jp YadavEdited By: Published: Fri, 27 May 2022 04:35 PM (IST)Updated: Sat, 28 May 2022 05:04 AM (IST)
100 years Of Delhi University: दिल्ली विश्वविद्यालय की स्वर्णिम गाथा सुनाएगी काफी टेबल बुक
दिल्ली विश्वविद्यालय की स्वर्णिम गाथा सुनाती काफी टेबल बुक

नई दिल्ली [संजीव कुमार मिश्र]। दिल्ली विश्वविद्यालय सौ साल का हो चुका है। इस सफर का जश्न पूरे साल मनाया जाएगा। वर्ष पर्यंत कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। अपने स्वर्णिम सफर को दस्तावेजों में संरक्षित भी कर रहा है, जल्द ही काफी टेबल बुक के रूप में ये सफर आपके सामने होगा। सफर बहुत दिलचस्प भी है। स्थापत्य का खतरा भी बना रहा और एक विश्वविद्यालय इतिहास भी रचता रहा, औरों के लिए नजीर भी पेश करता रहा। शुरुआती दौर की चुनौतियों को पार कर 1922 से एक स्थाई ठौर की तलाश हुई तो वह भी बेहद दिलचस्प थी। जब लुटियन नई दिल्ली की योजना बना रहे थे तो विश्वविद्यालय के लिए वर्तमान कस्तुरबा गांधी मार्ग के पास जगह चिह्न्ति की थी।

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दिल्ली थ्रू द एज पुस्तक में प्रो. अपर्णा बसु लिखती हैं कि पुरानी दिल्ली के विभिन्न इलाकों में किराए के मकान में विश्वविद्यालय चला। सन 1922 से 1924 तक यह कश्मीरी गेट स्थित रिट्ज सिनेमा भवन से संचालित हुआ। इस इमारत में काफी छोटा हिस्सा दिया गया था, जबकि इसका मुख्य प्रशासनिक कार्य अंडरहिल हाउस से होता था।

अक्टूबर 1924 में विश्वविद्यालय अलीपुर रोड स्थित कर्जन हाउस में आ गया। वर्ष 1924 में विधि संकाय शुरू हुआ। 1926 में सेंट्रल लेजिस्टलेटिव असेंबली बिल्डिंग का एक हिस्सा मासिक किराए 350 रुपये पर दिया गया। इस दौरान डीयू ने एक साइट कमेटी भी गठित की। जिसे कश्मीरी गेट इलाके में आवासीय विकल्प तलाशने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। 1927 में डीयू वायस रीगल लाज में शिफ्ट हुआ।

प्रो. अपर्णा बसु लिखती हैं कि यहां एक समस्या थी। इसी भवन में 1912 में लार्ड हार्डिंग पर बम फेंके जाने के मामलों की जांच के लिए गठित कमेटी का भी कार्यालय था। आठ अप्रैल, वर्ष 1929 को भगत ङ्क्षसह और बीके दत्त ने दिल्ली में केंद्रीय विधानसभा में बम फेंका था और वह गिरफ्तार कर लिए गए। 1933 में वायस रीगल लाज 3,480 रुपये किराए पर डीयू को दिया गया। डीयू का कार्यालय और लाइब्रेरी पहले पहल यहां शिफ्ट किया गया।

डीयू दस्तावेजों की मानें तो पहले वायस रीगल लाज का इतिहास काफी पुराना है। ब्रिटिश कंटोनमेंट का हिस्सा रहा, फिर सर्किट हाउस बना। वायसराय का आवास भी रहा। यहीं 1931 में गांधी-इरविन की बैठक हुई थी। वायस रीगल लाज में एक प्रेम कहानी भी खूब चर्चा में रही।

एडविना एशले अपनी मौसी के साथ यहां आती रहती थी। इसी दौरान लेफ्टिनेंट लुई माउंटबेटन से दिल लगा बैठी। लाज के जिस कमरे में आज कुलसचिव का कार्यालय है, कभी उसी कमरे में माउंटबेटन ने एडविना को शादी का प्रस्ताव दिया था। तब किसी को नहीं पता था कि लार्ड माउंटबेटन वायसराय (1947) और एडविना भारत की प्रथम महिला होंगी।

शरणार्थियों के लिए बदले नियम

अब आते हैं आजादी के बाद का दौर...1947 में देश आजाद हुआ। दिल्ली विभाजन की विभीषिका झेल रही थी। बड़ी संख्या में शरणार्थी दिल्ली आए थे। डीयू ने हालात को देखते हुए दाखिला नियमों में बदलाव किया, शरणार्थियों को दाखिला दिया गया। रामजस कालेज पहला ऐसा कालेज था जिसने दो पाली में कक्षाएं प्रारंभ की, ताकि छात्रों को एडजस्ट किया जा सके। सुबह की कक्षा में डीयू के छात्र पढ़ते थे एवं शाम की पाली में पंजाब यूनिवर्सिटी के छात्र। पश्चिमी पंजाब के छात्रों के लिए कैंप स्कूल भी शुरू किया गया। इस समय तक डीयू से छह कालेज संबद्ध थे।

हर कुलपति की मिलेगी जानकारी

डीयू के अब तक के सभी कुलपतियों के बारे में भी जानकारी सहेजी जा रही है। डीयू काफी टेबल बुक और किताबों में भी इनकी फोटो संरक्षित की जाएगी। डीयू के पहले कुलपति डा. सर हरि सिंह गौड़ थे। इनका जन्म मध्यप्रदेश के सागर में हुआ था। पिता छोटा मोटा काम करते थे, बड़े भाई को एक फेलोशिप मिलती थी। जिससे घर का खर्च चलता था। दस साल की उम्र में हरि सिंह को दो रुपये की एक स्कालरशिप मिलती थी, जिससे पढ़ाई की। 18 साल की उम्र में ये कैंब्रिज यूनिवर्सिटी गए पढऩे। यहां एक घटना से व्यथित हो गए।

दरअसल, एक प्रतियोगिता में इन्होंने भाग लिया, जिसका परिणाम जारी नहीं हुआ। इन्हें पता चला कि पहला स्थान इनका ही था। चूंकि ये अश्वेत थे इसलिए इन्हें पुरस्कृत नहीं किया गया। डीयू प्रशासन ने बताया कि सभी कुलपतियों के बारे में सचित्र जानकारी छात्र प्राप्त कर सकते हैं।

गोल्ड मेडल में मिलता था पांच तोला सोना

दिल्ली विश्वविद्यालय का पहला दीक्षा समारोह मार्च 1923 में आयोजित हुआ। डीयू छात्रों की आर्थिक मदद करता था। कला और विज्ञान में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले छात्रों गोल्ड मेडल भी दिया जाता था। मूलनारायण बृजमोहनलाल ने डीयू को चार हजार का बांड दिया था। जिससे अपने पिता राय बहादुर बृजमोहन लाल के नाम पर गोल्ड मेडल का पुरस्कार देना शुरू किया। राय बहादुर देश के पहले डिस्ट्रिक ट्रैफिक सुपरिटेंडेंट थे।

गोल्ड मेडल चार-पांच तोला सोना का होता था। इसी तरह असिस्टेंट ट्रैफिक सुपरिटेंडेंट पूरनचंद ने डीयू को पांच हजार रुपये का बांड जारी किया था। जिससे वो ङ्क्षहदू खत्री छात्रों को पूरनचंद खत्री और तुलसीरानी हरिश्चंद्र स्कालरशिप देते थे। इसके तहत छात्रों को प्रतिमाह 12 रुपये दिए जाते थे। हाई कोर्ट के वकील बहेश्वरनाथ गोयल ने भी छह हजार रुपये बांड जारी किया था।

इसके सफर की कहानी ही इतनी दिलचस्प है। स्थापना के वर्ष से अब तक हर अवधि एक यात्रा है। कलकत्ता (अब कोलकाता), बांबे (अब मुंबई) और मद्रास विश्वविद्यालय की स्थापना 1854 में हुई थी। दिल्ली में कोई विश्वविद्यालय नहीं था। दिल्ली के पुराने कालेजों की बात करें तो सेंट स्टीफंस (1881), हिंदू कालेज (1859), रामजस (1917) हैं। ये तीनों कालेज पंजाब विश्वविद्यालय से संबद्ध थे।

1911 में राजधानी कलकत्ता (अब कोलकाता) से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा हुई। 1917 में कलकत्ता (कोलकाता) विश्वविद्यालय में सुधार, विस्तार आदि के लिए एक कमीशन का गठन किया गया। कमीशन को नई राजधानी में शिक्षा व्यवस्था पर भी मंथन करना था। कमीशन के अध्यक्ष लीड विश्वविद्यालय के सर माइकल ई सैडलर थे।

दिल्ली विश्वविद्यालय कैलेंडर 1923-24 के अनुसार, समिति ने सिफारिश की कि कलकत्ता विश्वविद्यालय और भारत के अन्य विश्वविद्यालय लंदन विश्वविद्यालय के माडल पर स्थापित किए जाएं। विशुद्ध रूप से संघीय और जांच निकायों के रूप में, पुनर्गठित किया जाना चाहिए, और यह कि भारत में विश्वविद्यालय, भविष्य में, एकात्मक शिक्षण और आवासीय प्रकार के होने चाहिए। दिल्ली विश्वविद्यालय के कैलेंडर 1923-24 में विस्तार से डीयू की स्थापना की कहानी बताई गई है।

कहा गया कि कमीशन ने पंजाब और कलकत्ता विश्वविद्यालय को नए सिरे से अपने संविधान में बदलाव पर बल दिया। दिल्ली में एक विश्वविद्यालय की आवश्यकता पर भी जोर दिया गया। दिल्ली विश्वविद्यालय एक्ट 1922, एक मई को अस्तित्व में आया।

दिल्ली के तीनों कालेज पंजाब विश्वविद्यालय से असंबद्ध किए गए। हालांकि डीयू की स्थापना के साल भर के अंदर ही बंद होने का भी खतरा मंडराने लगा। दरअसल, ब्रितानिया हुकूमत उन दिनों आर्थिक मोर्चे पर जूझ रही थी। आर्थिक खर्चे कम करने आदि के लिए लार्ड इंचकेप के नेतृत्व में 1923 में एक कमेटी गठित की गई।

इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि विश्वविद्यालय खोलने पर पुनर्विचार की जरूरत है। क्योंकि उत्तर भारत में विश्वविद्यालय की जरूरत नहीं है। वर्तमान आर्थिक हालात भी नया विश्वविद्यालय खोलने की इजाजत नहीं देते। इस रिपोर्ट पर डीयू में हड़कंप मच गया। डीयू को 75 हजार रुपये आवंटित किए जाने वाले थे, जिसे पहले 50 हजार एवं बाद में घटाकर 40 हजार कर दिया गया।

डीयू कुलपति प्रो. हरि सिंह गौड़ समेत तीनों कालेजों के प्राचार्य ने मार्च 1923 में एक बयान जारी किया। जिसमें विश्वविद्यालय खोलने के निर्णय को सही करार देने के पीछे तर्क दिए गए। कहा गया कि दो फरवरी तक 300 ग्रेजुएट हुए। जिसमें 200 ङ्क्षहदू, 47 मुस्लिम, नौ यूरोपियन, सात ईसाई, नौ सिख और एक पारसी था। शुल्क से ही 7,742 रुपये एकत्र किए गए। जबकि इसके पहले स्थापित लखनऊ विश्वविद्यालय से केवल 31 ग्रेजुएट निकले।

यह भी कहा गया कि लखनऊ वि. के कुलपति का सालाना वेतन 36 हजार, स्टाफ के वेतन पर 30 हजार खर्च करता है जबकि डीयू नाममात्र खर्च कर रहा है। बयान में कहा गया कि पंजाब विश्वविद्यालय से सेंट स्टीफंस व अन्य दो कालेज असंबद्ध हो चुके हैं। अब कोई और निर्णय छात्रों की पढ़ाई प्रभावित करेगा। खैर, इम्पीरियल लेजिस्लेटिव एसेंबली में मामला सुलझा। तय हुआ कि विश्वविद्यालय रहेगा।

डीयू से जुड़े प्रमुख घटनाक्रम

डीयू द्वारा तैयार दस्तावेजों में सौ साल के सफर पर विस्तार से जानकारी दी गई है। डीयू प्रशासन की मानें तो दस-दस साल की अवधि में बांटकर इतिहास को दर्शाया गया है।

1930 : कमर्शियल कालेज (वर्तमान श्रीराम कालेज आफ कामर्स) एक डिग्री कालेज बना।

1932-लेडी इरविन कालेज का उदघाटन।

1938-मोरिस ग्वायर को डीयू का कुलपति नियुक्त किया गया।

1942--वीकेआरवी राव और डीएस कोठारी पहले फुल टाइम प्रोफेसर नियुक्त हुए।

1944-तीन छात्राओं के साथ एनसीवेब शुरू हुआ।

1945 में दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ शुरू हुआ।

1950 में मोरिस ग्वायर ने कुलपति पद से इस्तीफा दिया।

1951 में एसजीबीटी खालसा कालेज की स्थापना।

1954-किरोड़ीमल कालेज शुरू हुआ।

1957-पीजीडीएवी कालेज।

1961 : शिवाजी और वेंकटेश्वर कालेज की स्थापना हुई।

1962 : स्कूल फार कारेस्पोंडेंस कोर्सेज की शुरुआत। यह देश में पहली बार था।

1970 : डीयू के पूर्व छात्र स्वरूप ङ्क्षसह की कुलपति के रूप में नियुक्त हुई।

1973 : दक्षिणी परिसर खुला।

1997 : स्थापना के 75 वर्ष पूरे होने पर डीयू ने अपना प्लेटिनम जुबली समारोह मनाया।


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