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बचपन की यादों के खजाने को भर गया लॉकडाउन

कारोबारी सुरेश कुमार का अधिकांश वक्त इन दिनों अपने पोते पोतियों के बीच बीत रहा है। बच्चों के साथ खाना बातें करना टीवी देखना छत पर घूमना इन दिनों इनकी रोजमर्रा का हिस्सा है। लेकिन लॉकडाउन से पहले सुरेश कुमार की रोजमर्रा ऐसी नहीं थी। सुबह से लेकर देर रात तक इनका अधिकांश समय फैक्ट्री में बीतता था। सुरेश बताते हैं कि लॉकडाउन के दौरान जो वक्त बीता उसके कई आयाम हैं। एक ओर फैक्ट्री नहीं जाना अखरता था तो बच्चों के साथ बिताए पल ढलती उम्र में ताजगी भर रहे थे। उधर बच्चों की बात करें तो छह साल का रुद्रा 14 वर्ष का ध्रुव व इनकी छोटी बहन लावण्या के लिए लॉकडाउन यादों के खजाने को भर गया। दादा दादी के साथ बिताए गए पलों को ये बच्चे बयां करते वक्त इतने खुश होते हैं कि कई बार इनकी आंखों में आंसू छलक जाते हैं। बच्चे बताते हैं कि पहले स्कूल होमवर्क खेलकूद टीवी कंप्यूटर गेम इन्हीं सब चीजों में दिनचर्या बंटी थी। लेकिन अब ऐसी बात नहीं है।

By JagranEdited By: Published: Wed, 03 Jun 2020 11:04 PM (IST)Updated: Wed, 03 Jun 2020 11:04 PM (IST)
बचपन की यादों के खजाने को भर गया लॉकडाउन

जागरण संवाददाता, पश्चिमी दिल्ली : कारोबारी सुरेश कुमार का अधिकांश वक्त इन दिनों अपने पोते पोतियों के बीच बीत रहा है। बच्चों के साथ खाना, बातें करना, टीवी देखना, छत पर घूमना इन दिनों इनकी रोजमर्रा का हिस्सा है, लेकिन लॉकडाउन से पहले सुरेश कुमार की दिनचर्या ऐसी नहीं थी। सुबह से लेकर देर रात तक इनका अधिकांश समय फैक्ट्री में बीतता था। सुरेश बताते हैं कि लॉकडाउन के दौरान जो वक्त बीता उसके कई आयाम हैं। एक ओर फैक्ट्री नहीं जाना अखरता था तो बच्चों के साथ बिताए पल ढलती उम्र में ताजगी भर रहे थे। उधर बच्चों की बात करें तो छह साल का रुद्रा, 14 वर्ष का ध्रुव व इनकी छोटी बहन लावण्या के लिए लॉकडाउन यादों के खजाने को भर गया। दादा दादी के साथ बिताए गए पलों को ये बच्चे बयां करते वक्त इतने खुश होते हैं कि कई बार इनकी आंखों में आंसू छलक जाते हैं। बच्चे बताते हैं कि पहले स्कूल, होमवर्क, खेलकूद, टीवी, कंप्यूटर गेम इन्हीं सब चीजों में दिनचर्या बंटी थी। लेकिन अब ऐसी बात नहीं है। संस्कार की सीख

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रुद्र बताते हैं कि दादा दादी के साथ टीवी पर रामायण देखना एक अलग अहसास था। रामायण से जुड़े प्रसंग देखने के बाद दादा दादी उन प्रसंगों में निहित बातों को बड़े ध्यान से समझाते थे। ऐसे प्रसंग जो हम छोटे बच्चों को समझने में कठिनाई होती थी, दादा दादी उस प्रसंग के रेशे- रेशे को अलग करके हमारे समझने के लायक बना देते थे। इसी तरह जब टीवी नहीं देखते थे तब दादा दादी गांव के किस्से सुनाते थे। उन किस्सों में रिश्तेदारों का जिक्र अवश्य आता। इस तरह के बारंबार जिक्र ने रिश्तों की डोर को मजबूती दी। दादाजी बने शिक्षक

लॉकडाउन से पहले की बात करें तो बच्चों के लिए जिदगी मशीन के समान थी। पढ़ाई लिखाई ये इसलिए करते थे क्योंकि यह जरूरी कार्य था। दादा दादी ने पढ़ाई लिखाई के महत्व को अपनी सरल बातों के माध्यम से समझाया तो बच्चे मन से पढ़ने लगे। जब बच्चों ने सुना कि दादा दादी के जमाने में पढ़ाई लिखाई के इतने साधन नहीं थे। तब पढ़ना काफी कठिन कार्य था। साक्षरता दर काफी कम थी, इन बातों को सुनकर बच्चों ने पढ़ाई लिखाई का महत्व समझ लिया। कई बार ऐसे भी मौके आए जब बच्चे स्कूल को काफी याद करते थे। स्कूल जाने की जिद करते थे। मोहन गार्डन निवासी मांगेराम ने इसके लिए तरकीब निकाली। कहीं से उन्होंने एक बोर्ड का इंतजाम किया। और बच्चों को बोर्ड पर पढ़ाने लगे। घर में स्कूल जैसा बोर्ड और शिक्षक पाकर बच्चे खूब मन से पढ़ाई करने लगे। मांगेराम के पोते- पोती दादा को शिक्षक के रूप में पाकर उन्हें खूब पढ़ाने को कहते।


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