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कैंसर सर्वाइवर डे : जिंदगी की जंग जीत विजेता बनीं डिंपल

संजीव कुमार मिश्र, नई दिल्ली सब कुछ ठीक चल रहा था। इंटरप्रेन्योर डिंपल बावा हर लम्हे को जी रही थीं

By JagranEdited By: Published: Sun, 04 Jun 2017 01:00 AM (IST)Updated: Sun, 04 Jun 2017 01:00 AM (IST)
कैंसर सर्वाइवर डे : जिंदगी की जंग जीत विजेता बनीं डिंपल
कैंसर सर्वाइवर डे : जिंदगी की जंग जीत विजेता बनीं डिंपल

संजीव कुमार मिश्र, नई दिल्ली

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सब कुछ ठीक चल रहा था। इंटरप्रेन्योर डिंपल बावा हर लम्हे को जी रही थीं कि अचानक एक दर्द ने जिंदगी की दिशा व दशा ही बदल दी। कैंसर से मां को खो चुकीं डिंपल को जब पता चला कि उन्हें ब्रेस्ट कैंसर है तो पैरों तले जमीन खिसक गई। रात रोते-बिलखते, दर्द से कराहते हुए गुजरी, लेकिन उनके लिए अगली सुबह सिर्फ सूरज निकलने और उजाला होने के मतलब तक सीमित नहीं थी। डिंपल ने उस रात अपने हिस्से की जिंदगी को यूं खत्म नहीं होने देने की जो जिद ठानी तो कैंसर को मात देकर ही दम ली। वह अब कैंसर पीड़ितों की जिंदगी में नया सवेरा लाने की कोशिश कर रही हैं।

डिंपल कहती हैं कि वर्ष 2013 में अप्रैल का महीना था। दिल्ली में सूरज की तपिश से राहत के लिए हमने दोस्तों और परिवार संग शिमला घूमने की योजना बनाई थी। ट्रिप के एक दिन पहले ही अचानक ब्रेस्ट में तेज दर्द होने लगा। हम शिमला पहुंचे जरूर, लेकिन दर्द अधिक बढ़ने पर वापस लौटना पड़ा। फैमिली डॉक्टर से मशविरा लिया तो उन्होंने अल्ट्रासाउंड कराने की सलाह दी। अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट मुझसे शेयर नहीं की गई। बाद में डॉक्टर ने बायोप्सी कराने की सलाह दी। जब रिपोर्ट देने की बारी आयी तो मुझे, परिवार संग बुलाया गया। वहां बताया गया कि मुझे ब्रेस्ट कैंसर है, वो भी स्टेज तीन में पहुंच चुका है। यह सुनते ही आंखे भर आई थी।

डिंपल कहतीं हैं मैं पूरी रात चिल्लाती रही। आंखों के सामने मां अमरजीत कौर का चेहरा घूम रहा था। पांच साल की थी जब पिता जी का देहांत हुआ था। मां ने बड़े ही लाड-प्यार से पाला था। वर्ष 2003 में मां को ब्रेस्ट कैंसर होने का पता चला। मां का तत्काल इलाज शुरू हुआ तो वह ठीक भी हो गई थीं, लेकिन दो साल बाद कैंसर ने दोबारा दस्तक दी। इस बार वह और खतरनाक होकर लौटा था। हम मां को बचा नहीं पाए। जब मुझे पहली बार ब्रेस्ट कैंसर होने का पता चला तो उस दिन समझ आया कि दर्द क्या होता है। दिमाग में कई ख्याल चल रहे थे। पति, बेटी समेत दोस्तों का प्यार तो मिलता लेकिन हर समय उन्हें खोने का डर बना रहता था। रिपोर्ट आने के दस दिन के भीतर ही मैंने फोर्टिस अस्पताल, गुड़गांव में कीमोथेरपी कराना शुरू की। मैंने तय किया कि हार नहीं मानूंगी। बिना लड़े तो बिल्कुल नहीं। पति रूपेंदर सिंह और 12 वर्षीय बेटी के भावनात्मक सहयोग की बदौलत कैंसर को मात दी। इसी दौरान अपनी जिंदगी का मकसद कैंसर ग्रस्त लोगों की सेवा को बनाया और इस तरह नींव पड़ी चीयर्स टू लाइफ फाउंडेशन की। यह संस्था कैंसर पीड़ितों को आर्थिक सहायता देने के अलावा काउंसलिंग भी मुहैया कराती है। 136 लोगों की काउंसलिंग की जा चुकी है। हम दिल्ली समेत अन्य राज्यों के मरीजों को चिकित्सकीय परामर्श उपलब्ध कराते हैं। पांच मरीजों को आर्थिक सहायता भी दी जा चुकी है।


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