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कहीं इतिहास न बन जाए डूरंड कप!

By Edited By: Published: Wed, 04 Sep 2013 01:03 AM (IST)Updated: Wed, 04 Sep 2013 01:04 AM (IST)

रणविजय सिंह, नई दिल्ली

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खाली मैदान। हर गोल पर तालियों को तरसते खिलाड़ी। मुंह चिढ़ाती खाली कुर्सियां। और प्रायोजक न मिलने से एक-एक कर टूर्नामेंट से किनारा करते फुटबॉल क्लब। कुछ ऐसा ही हाल है विश्व के तीसरे सबसे पुराने फुटबॉल टूर्नामेंट डूरंड कप का।

जिस टूर्नामेंट में कभी खिलाड़ियों की हौसलाअफजाई के लिए खुद देश के राष्ट्रपति तक मौजूद रहते थे और फाइनल में अपने हाथों से विजेताओं को पुरस्कृत करते थे, आज वही टूर्नामेंट अंतिम सांसे गिन रहा है। देश के नामचीन क्लबों के इस टूर्नामेंट से हटने से 126 वर्ष पुराने डूरंड कप का चमकदार अतीत अब फीका पड़ता जा रहा है। खिलाड़ियों और आयोजकों का कहना है कि अगर नामचीन क्लबों का यही रवैया रहा तो कहीं यह टूर्नामेंट इतिहास बनकर न रह जाए।

राजेंद्र प्रसाद भी देख चुके हैं फाइनल : देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद भी फाइनल में पहुंचकर खिलाड़ियों को अपने हाथों से पुरस्कृत कर चुके हैं। राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन और डॉ. जाकिर हुसैन भी फाइनल देख चुके हैं। उस वक्त की तस्वीरें आज भी इस टूर्नामेंट के महत्व की कहानी कहती हैं। पर अब ऐसा नहीं होता।

सेना करती है टूर्नामेंट का आयोजन : डूरंड कप का आयोजन सेना करती है। आयोजन समिति के एक अधिकारी ने बताया कि सेना के तीनों अंगों के अध्यक्ष राष्ट्रपति इस टूर्नामेंट के संरक्षक होते थे। बकायदा डूरंड कप के लेटर हेड पर उनका नाम छपा होता था। इसलिए फाइनल में राष्ट्रपति पहुंचकर विजेताओं को टॉफी देते थे।

और नहीं आए शंकर दयाल : पूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने अपने कार्यकाल में यह कहते हुए आने से मना कर दिया कि राष्ट्रपति के फाइनल मैच में जाने के चलते सुरक्षा कारणों से आम जनता को परेशानी होती है। तब से यह परंपरा बंद हो गई। इसकी जगह राष्ट्रपति भवन से एक प्रेजिडेंट कप बनकर आता था। अब सेना खुद ही प्रेजिडेंट कप बनाती है। डूरंड कप में तीन ट्रॉफियां होती है, जिसमें से एक है प्रेजिडेंट कप।

बगान व बंगाल के बाद ब्रदर्स ने भी काटी कन्नी : सर्वाधिक 16-16 बार खिताब जीत चुके मोहन बगान और ईस्ट बंगाल क्लब पिछले तीन साल से इस टूर्नामेंट में भाग नहीं ले रहे हैं। इस बार 2012 के चैंपियन चर्चिल ब्रदर्स ने भी कन्नी काट ली।

नहीं मिला प्रायोजक : प्रायोजक के लिए आयोजकों ने कई कंपनियों से संपर्क किया पर उन्हें हर तरफ से निराशा ही मिली। मजबूरन सेना को अपने खर्च पर इसका आयोजन करना पड़ रहा है। पिछले साल एक ब्रिटिश मल्टीनेशनल कंपनी और ओएनजीसी इसकी प्रायोजक थी।

इनसेट

टूर्नामेंट को रोमांचक बनाने के लिए अगले साल विदेशी क्लबों को भी इसमें शामिल करने का प्रयास किया जाएगा। इसके लिए अभी सेना, रक्षा मंत्रालय और खेल मंत्रालय से स्वीकृति मिलनी बाकी है। इसके बाद ही यह संभव हो सकेगा।

- कर्नल संजीव खन्ना, आयोजन से जुड़े अधिकारी

--टूर्नामेंट की पुरस्कार राशि बढ़ी है। बावजूद इसके बड़े प्रोफेशनल क्लब उसी टूर्नामेंट को तरजीह दे रहे हैं जिसमें करोड़ों रुपये मिलते हैं। डूरंड कप में प्राइस मनी कम होने और खिलाड़ियों के रहने का प्रबंध अच्छा नहीं होने से मोहन बगान जैसे क्लबों ने आना छोड़ दिया है। टूर्नामेंट को आकर्षक बनाने के लिए प्राइस मनी और बढ़ानी चाहिए। जी कमेई, खिलाड़ी गढ़वाल हीरोज

--आयोजन समिति को कुछ ऐसा करना होगा ताकि बड़े प्रोफेशनल क्लब टूर्नामेंट में हिस्सा ले सकें। हमें दुख होता है कि विश्व का तीसरा सबसे पुराना टूर्नामेंट अपनी पहचान खो रहा है। बड़े क्लबों के हिस्सा नहीं लेने से लोग मैच देखने भी न के बराबर आते हैं। नीतिश छिक्कारा, खिलाड़ी गढ़वाल हीरोज

--आइ लीग या दूसरे बड़े टूर्नामेंट में पैसा ज्यादा है। इसलिए बड़े क्लब नहीं चाहते कि डूरंड कप में आकर खिलाड़ी चोटिल हो जाए। डूरंड कप में खेलने वाले खिलाड़ियों को भी पहचान मिले इस दिशा में काम करना होगा। पीएस सुमेश, उपकप्तान इंडियन नेवी

प्रमुख

-1888 में हुई थी इस टूर्नामेंट की शुरुआत।

- 16बार सर्वाधिक मोहन बगान और ईस्ट बंगाल ने जीता है खिताब।

- 07बार बीएसएफ बना है टूर्नामेंट का विजेता

- 2012में एयर इंडिया ने जीता था खिताब

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