इतिहास के पन्नों में ही सिमट कर रह गए कई बेहतरीन खिलाड़ी
हकीकत में देश में ऐसे खिलाड़ियों की फेहरिस्त बेहद लंबी है जिन्हें सीनियर राष्ट्रीय क्रिकेट टीम में बेहतरीन प्रदर्शन के बावजूद स्थान नहीं मिल पाया।
नई दिल्ली [कपिल अग्रवाल]। ओलंपिक खेलों की बात न करें तो पिछले एक दशक के दरम्यान देश की खेल प्रतिभाओं खासकर क्रिकेटरों ने अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में बेहद उम्दा प्रदर्शन किया है। न्यूजीलैंड में संपन्न ग्यारहवें अंडर-19 विश्व कप क्रिकेट टूर्नामेंट में भारत का शानदार प्रदर्शन इस बात का गवाह है कि कम से कम क्रिकेट में तो हमारी रैंकिंग निर्विवाद रूप से शीर्ष पर है। बगैर एक भी मैच हारे शीर्ष पर पहुंच कर देश का नाम रोशन करने के लिए पृथ्वी शॉ की टीम बधाई की पात्र है, पर अतीत से कुछ ऐसे सवाल निकल कर आ रहे हैं जिनका जवाब भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को देना चाहिए। मसलन शानदार प्रदर्शन के बावजूद कई प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को आगे बढ़ने के मौके क्यों नहीं मिल पा रहे हैं और ये खिलाड़ी आखिर क्यों इतिहास के पन्नों तक सिमट जाने को मजबूर हो जा रहे हैं?
खेल में कॅरियर बनाना बहुत जोखिम भरा
यह सवाल इसलिए, क्योंकि अपने देश में खेल में कॅरियर बनाना बहुत जोखिम भरा माना जाता है और एक सामान्य परिवेश से आया खिलाड़ी इसका भारी भरकम खर्चा वहन नहीं कर सकता। और यदि किसी प्रकार वह कर भी लेता है तो जरूरी नहीं कि उसे आगे भी मौके मिलते रहेंगे।तमाम देसी-विदेशी प्रतिस्पर्धाओं में अपनी धाक जमाने वाले कई खिलाड़ियों की गुमनामी इस बात की गवाह है। इस टूर्नामेंट से भारत को कई प्रतिभाशाली खिलाड़ी हासिल हुए हैं जिनमें कप्तान पृथ्वी शॉ के अलावा मनजोत कालरा व शुभमन गिल प्रमुख हैं। भारत ने इससे पहले यह टूर्नामेंट 2012 में जीता था और उस जीत में उन्मुक्त चंद्र, संदीप शर्मा, प्रशांत चोपड़ा व विकास मिश्र प्रमुख रूप से हीरो बनकर उभरे थे। आज ये सब कहां हैं कुछ पता नहीं, क्योंकि टूर्नामेंट के बाद इनमें से किसी को भी आगे बढ़ने के मौके नहीं मिले। साल 2006 में हुए इसी टूर्नामेंट में भारतीय कप्तान रहे रविकांत शुक्ला व 2016 में कप्तान रहे ईशान किशन के नाम से भी आज शायद ही कोई परिचित होगा!
बेहतरीन प्रदर्शन के बावजूद नहीं मिला स्थान
हकीकत में देश में ऐसे खिलाड़ियों की फेहरिस्त बेहद लंबी है जिन्हें सीनियर राष्ट्रीय क्रिकेट टीम में बेहतरीन प्रदर्शन के बावजूद स्थान नहीं मिल पाया। आज जबकि इस खेल के चार प्रारूप हो गए हैं फिर भी नए उभरते खिलाड़ियों को मौका न देने की पुरानी परंपरा क्यों बरकरार चली आ रही है? यह देश का सौभाग्य है कि आज उसके पास प्रतिभावान खिलाड़ियों की एक बड़ी फौज है जिसका भरपूर उपयोग किया जा सकता है, पर ऐसा क्यों नहीं किया जा रहा समझ के बाहर है। कम से कम घरेलू मैदानों पर तो यह प्रयोग किया ही जाना चाहिए ताकि खास सीरीजों व टूर्नामेंटों के लिए सीनियर खिलाड़ियों को आराम व तरोताजा होने का मौका मिल सके। इतना ही नहीं, इन उभरते प्रतिभावान खिलाड़ियों को जिंबाब्वे, श्रीलंका, पाकिस्तान, वेस्टइंडीज जैसी अपेक्षाकृत कम मजबूत टीमों के खिलाफ विदेशी मैदानों पर भी आजमाया जाना चाहिए।
वाजिब हक से वंचित
दरअसल माना जाता है कि अन्य तमाम क्षेत्रों की भांति देश में खेल जगत भी राजनीति व भाई भतीजावाद से सराबोर है और एक बार जो ऊपर तक अपनी पैठ बना लेता है वह अन्य किसी को उभरने या पनपने नहीं देता? अतीत में मोहिंदर अमरनाथ से लेकर अजीत वाडेकर और वर्तमान में युवराज सिंह से लेकर अन्य तमाम खिलाड़ी ऐसे हैं जो असमय विदा कर दिए गए या फिर उन्हें अपने वाजिब हक से वंचित कर दिया गया। ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि क्रिकेट बोर्ड के पास इस बाबत कोई नीति नहीं है और सब कुछ कप्तान की मर्जी पर छोड़ दिया गया है। इसका एक तरीका यह हो सकता है कि सीरीज जीतने के बाद कप्तान समेत तीन चौथाई टीम में फेरबदल कर नवोदित खिलाड़ियों को मौका दिया जाना चाहिए ताकि भविष्य में दिक्कत न आए। आज भारतीय क्रिकेट के सामने सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यह है कि इन उभरते खिलाड़ियों का देश हित में क्या व किस तरह का उपयोग किया जाए ताकि वे अपने आपको गुमनाम होने से बचा सकें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)