'छह वर्ष की पीहू पर देवी होंगी आरूढ़', विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा उत्सव मानाने को काछन देवी देंगी पूजा करने की अनुमति
प्रतिवर्ष एक नाबालिग बालिका पर काछन देवी आरूढ़ होती है। उस कुमारी लड़की पर काछन देवी का प्रभाव आने लगता है। वहीं काछन देवी आने पर लड़की को एक कांटेदार झूले पर लिटा कर झुलाया जाता है। देवी की पूजा अर्चना कर दशहरा मनाने की स्वीकृति प्राप्त की जाती है।
जगदलपुर, जागरण ऑनलाइन डेस्क। नवरात्रि सोमवार से शुरू हो रही है जिसकी तैयारी हर जगह आरंभ हो चुकी है। वहीं, विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा उत्सव में रविवार शाम को काछनगादी पूजा विधान संपन्न होगा। अश्विन माह की अमावस्या के दिन काछनगादी पूजा की जाती है। कांटे के झूले में झूलने वाली कंटकजई काछन देवी बस्तर राजा को दशहरा मनाने की अनुमति प्रदान करती हैं। यह अवसर काफी प्रेरक मर्मस्पर्शी होता है। इसके लिए राजा अथवा राजा का प्रतिनिधि संध्या समय धूमधाम से जुलूस लेकर देवी के मंदिर पहुंचते हैं। दंतेश्वरी के पुजारी द्वारा राज्य परिवार की ओर से कार्यक्रम की अगुवाई की जाती है। सैकड़ों लोगों की भीड़ पूजा विधान की साक्षी बनती है।
पशुधन और अन्नधन की रक्षा करती काछन देवी
मान्यता के अनुसार प्रतिवर्ष एक नाबालिग बालिका पर काछन देवी आरूढ़ होती है। कार्यक्रम के तहत एक भैरव भक्त सिरहा आह्वान करता है और उस कुमारी लड़की पर काछन देवी का प्रभाव आने लगता है। वहीं, काछन देवी आने पर लड़की को एक कांटेदार झूले पर लिटा कर झुलाया जाता है। देवी की पूजा अर्चना कर दशहरा मनाने की स्वीकृति प्राप्त की जाती है। काछन देवी पशुधन और अन्ना धन की रक्षा करती है।
इस बार छह वर्ष की पीहू पर काछन देवी आरूढ़ होंगी
जानकारी हो कि काछन देवी से स्वीकृति सूचक प्रसाद मिलने के पश्चात बस्तर का दशहरा समारोह धूमधाम से प्रारंभ हो जाता है। काछन गादी पूजा विधान में इस बार जगदलपुर की छह वर्ष की पीहू दास पर काछन देवी आरूढ़ होंगी। मालूम हो कि इसके पहले अनुराधा दास पर देवी आरूढ़ होती रही हैं। सात वर्षों तक अनुराधा देवी का प्रतिरूप रही।
काछन देवी की पूजा ढाई सौ सालों से हो रही
जानकारी हो कि किंवदंती के अनुसार जगदलपुर बसाने से पूर्व यहां एक माहरा कबीला कहीं से आकर बस गया था। कबीला के मुखिया का नाम जगतू था। जगतू के नाम पर वर्तमान जगदलपुर का नाम जगतूगुड़ा पड़ा था। उस कबीला को जब हिंसक पशुओं से प्राण बचाना मुश्किल हो गया। तब एक दिन कबीले का मुखिया जगतू बस्तर गांव जाकर वहां के राजा नरेश दलपत देव से अभय दान मांगा। आखेट प्रेमी राजा दलपत देव ने जगतू को आश्वस्त किया और एक दिन आखेट की तैयारी के साथ जगतूगुडा पहुंचे। तब तक राज्य का नाम चक्रकोट के बदले बस्तर हो चुका था। जगतूगुड़ा को अपनी राजधानी बस्तर ग्राम से जगतूगुड़ा में स्थानांतरित कर ली।
जानकारी हो कि यह कबीला राजभक्त था। राजा ने भी उस कबीले को इतना सम्मान दिया कि दशहरा मनाने के लिए कबीले की इष्ट देवी काछन देवी से हर साल आशीर्वाद मांग कर अपने आप को कृतार्थ माना। प्रथा चल पड़ी और बस्तर दशहरे का प्रारंभिक कार्यक्रम स्थित हुआ।
काछन देवी की गद्दी कांटों की होती
जानकारी के अनुसार माहरा जाति के लोगों की देवी को बस्तर के भूतपूर्व राजाओं द्वारा इस प्रकार प्राथमिक सम्मान दिया जाना सामाजिक सौहाद्र का यह सबसे बड़ा उदाहरण है। लगभग दो सौ पचास वर्षों से जगतू माहरा कबीला की देवी की सबसे पहले पूजा अर्चना हो रही है। काछनगादी का अर्थ होता है काछन देवी की गद्दी जो कांटों की होती है। कांटेदार झूले की गद्दी पर आसीन होकर जीवन में कंटकजयी होने का संदेश देती है। वह रणदेवी कहलाती है। काछन देवी बस्तर दशहरे को प्रतिवर्ष स्वीकृति सूचक और आशीर्वाद प्रदान करती हैं।
गोल बाजार में रैला पूजा
जानकारी के अनुसार काछनगुड़ी में काछनगादी होने के बाद गोल बाजार में रैला पूजा होती है। रैलादेवी का वही श्राद्ध कर्म बस्तर दशहरा में रैला पूजा के नाम से जाना जाता है। रैला पूजा में महिलाएं अपनी बोली भाषा में लोक गाथा प्रस्तुत करती हैं। जिसमें रैलादेवी का बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन मिलता है।