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कितना उचित है सोने में निवेश

भारत जैसे जिंस आयातक देशों की मुद्राओं में ज्यादा गिरावट की संभावना नहीं है। विकास दर बढऩे के साथ ही महंगाई स्थिर हो रही है। मध्यम व दीर्घ अवधि में मुद्राओं में मजबूती आनी चाहिए। ऐसे में सोने में निवेश अल्पकाल के लिए ही अच्छा हो सकता है।

By Babita KashyapEdited By: Published: Mon, 15 Feb 2016 02:30 PM (IST)Updated: Mon, 15 Feb 2016 02:34 PM (IST)

भारत जैसे जिंस आयातक देशों की मुद्राओं में ज्यादा गिरावट की संभावना नहीं है। विकास दर बढऩे के साथ ही महंगाई स्थिर हो रही है। मध्यम व दीर्घ अवधि में मुद्राओं में मजबूती आनी चाहिए। ऐसे में सोने में निवेश अल्पकाल के लिए ही अच्छा हो सकता है।

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1. जब पूरी दुनिया मंदी से उबरने के लिए हाथ- पांव मार रही है तब महंगाई बढऩे की आशंकाएं जताना अजीब है।

2. लेकिन उससे भी ज्यादा विचित्र सपाट मुद्राओं पर से भरोसा टूटना है। इसे सोना बनाम डॉलर तथा डॉलर बनाम उभरते बाजारों की मुद्राओं (भारत में रुपया) के संदर्भ में देखना होगा।

मौजूदा परिदृश्य में दुनिया अमेरिका में नीतियों केसामान्यीकरण को झेलने की स्थिति में नहीं है।

अमेरिका में अक्टूबर, 2014 में नीतियों को सामान्य बनाने तथा दिसंबर, 2015 में ब्याज दरों में बढ़ोतरी की प्रक्रिया प्रारंभ हुई थी। परिणामस्वरूप अमेरिकी डॉलर का अधिमूल्यन हुआ था और सोने की कीमतों में (डॉलर के हिसाब से) अत्यधिक गिरावट आ गई थी। वर्तमान परिदृश्य में जब विकास दर गिर रही है और विकसित बाजारों में सरकारों की बैलेंस शीट तथा उभड्डरते बाजारों में कंपनियों की बैलेंस शीट का लेवरेज हो रहा है, तब पूंजी की लागत में वृद्धि तबाही ला सकती है। यूरोप व अमेरिका में मौद्रिक हालात पहले से ही काफी सख्त हैं। 2008 के वित्तीय संकट की पुनरावृत्ति से बचने के लिए इनमें नरमी लाने की जरूरत है।

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में पड़े बगैर फिलहाल इस तथ्य पर गौर करना बेहतर होगा कि ग्लोबल मौद्रिक नीति के लंबे समय तक समायोजी बने रहने की संभावना है। अमेरिकी फेड की अध्यक्ष ने फरवरी 2016 के अपने वक्तव्य में इसके संकेत दिए हैं। तभी से अमेरिकी डॉलर कुछ कमजोर हुआ है।

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पैकेजों पर हो क्योंकि यह चीन की गिरती विकास दर के असर से जूझ रहा है। अत्यधिक लेवरेज्ड

कॉरपोरेट बैलेंस शीटों के कारण कर्ज की वापसी न कर पाने के मामले बढ़ रहे हैं।

यह स्थिति उभरते बाजारों की मुद्राओं के लिए नकारात्मक है। इसी कारण अमेरिकी डॉलर के मुकाबले उनमें गिरावट देखने में आ रही है। इसका असर इन देशों की मुद्राओं और उन पर आधारित सोने की कीमतों पर पड़ रहा है। क्या ऐसी ही गिरावट भारतीय रुपये में भी आ सकती है?

संभवत: हां। विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआइआइ) के भारत से अपना निवेश निकालने तथा पीएसयू बैंकों के लिए पुनरुद्धार पैकेज की उम्मीद में रुपये में गिरावट से रुपया आधारित सोने की कीमतें फिर से 12 महीने पहले की ऊंचाइयों पर पहुंच गई हैं। यह अगस्त 2013 के गिरावट के रुख से एकदम उलट है। इक्विटी शेयरों में तेज गिरावट के कारण भी सोने में बढ़त का रुख दिखाई दे रहा है।

क्या मध्यम अवधि में सोने में निवेश ठीक रहेगा?

यह इस पर निर्भर करता है कि हम सोने को किस संदर्भ में देख रहे हैं। ग्लोबल चिंताओं से इतर अल्प अवधि के रणनीतिक हेज के रूप में सोने में निवेश बेहतर है। परंतु सवाल यह है कि क्या हम मध्यम अवधि में पूर्ण ग्लोबल मंदी की संभावना देख रहे हैं। तो इसका उत्तर है कि ऐसी बहुत कम संभावना है। इसकी कई वजहें हैं।

मसलन

- मौजूदा चिंताएं बहुत कुछ 1997-98 के एशियाई मौद्रिक संकट के वक्त जैसी हैं।

- आज के जोखिम 2008 जैसे व्यवस्था जनित नहीं हैं। समस्याएं मुख्यत: उन उभरते बाजारों में हैं जो कमोडिटीज का निर्यात करते हैं। इनका कुछ असर प्राय: चीन और कुछ हद तक भारत पर

भी है।

- 2008 से इतर इस समय ग्लोबल अर्थव्यवस्था में मांग स्थिर है। उभरते बाजारों की मौजूदा स्थिति फालतू आपूर्ति (चीन में) से पैदा हुई है। इसमें सुधार की जरूरत है। जबकि ग्लोबल मंदी का कारण अतिरिक्त आपूर्ति के बजाय मांग न होना है।

- इस समय हम वैश्विक मंदी के बजाय मैन्यूफैक्चरिंग मंदी का सामना कर रहे हैं। खपत और सेवाओं, जिनका वैश्विक अर्थव्यवस्था में तकरीबन 60-70 फीसद का योगदान है, की स्थिति अभी भी अच्छी खासी बनी हुई है। तेल की कीमतें गिरने से खपत में और बढ़ोतरी होनी चाहिए। इससे मैन्यूफैक्चरिंग में होने वाली किसी

भी तरह की कमी की भरपाई हो जाएगी।

- 2008 का संकट इसलिए पैदा हुआ था क्योंकि उस समय ऐसे जटिल डेरिवेटिव इंस्ट्रूमेंट्स प्रचलन में थे जिनके बारे में किसी को कुछ पता नहीं था कि वह किस जगह पैसा लगा रहे हैं और उसमें जोखिम क्या है। पारदर्शिता के इस अभाव ने संकट को जन्म दिया। आज की तारीख में इस तरह के जटिल इंस्ट्रूमेंट्स बाजार में नहीं हैं।

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में उभरते बाजारों की मुद्राएं कुछ दबाव में आ सकती हैं (अभी भी उन

काफी दबाव है)। परंतु भारत, चीन जैसे कमोडिटी आयातक देशों की मुद्राओं में ज्यादा गिरावट की संभावना नहीं है। विकास दर बढऩे के साथ ही महंगाई स्थिर हो रही है। रियल रेट सकारात्मक हैं और विदेशी मुद्रा का प्रवाह फिर शुरू हो गया है। ऐसे में मध्यम व दीर्घ अवधि में मुद्राओं में मजबूती आनी चाहिए।

ऐसे में सोने में निवेश अल्पकाल के लिए ही अच्छा हो सकता है। वैसे भी जब रीयल एस्टेट की स्थिति बेहतर हो तब मध्यम व दीर्घ अवधि में सोने से मिलने वाला लाभ फिक्स्ड इनकम इंस्ट्रूमेंट से शायद ही बेहतर रहता हो।

इसलिए हमारी राय में निवेशकों को सोने में मध्यम अवधि के निवेश से बचना चाहिए। हां, थोड़े समय में मुनाफा काटने की इच्छा हो तो सोने में कुछ पैसा अभी लगाया जा सकता है। लेकिन ऐसे वक्त जब इक्विटी मार्केट में 24 फीसद गिरावट आ चुकी हो, तब सोने में पैसा लगाना कहां की समझदारी है?

अनिल चोपड़ा

ग्रुप सीईओ एवं डायरेक्टर

बजाज कैपिटल


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