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मकान जो किसी को नहीं चाहिए

एक रिसर्च फर्म के आंकड़ों के अनुसार, देश के पांच शहरों में 6.6 लाख बने और बिकने को तैयार मकान हैं। देश भर में यह आंकड़ा कहीं अधिक हो सकता है। एक अनुमान से करीब 30 लाख से लेकर एक करोड़ के बीच। फिर ऐसी भी हाउसिंग यूनिटें हैं जो

By Edited By: Published: Tue, 16 Jun 2015 12:38 AM (IST)Updated: Tue, 16 Jun 2015 12:42 AM (IST)
मकान जो किसी को नहीं चाहिए

एक रिसर्च फर्म के आंकड़ों के अनुसार, देश के पांच शहरों में 6.6 लाख बने और बिकने को तैयार मकान हैं। देश भर में यह आंकड़ा कहीं अधिक हो सकता है। एक अनुमान से करीब 30 लाख से लेकर एक करोड़ के बीच। फिर ऐसी भी हाउसिंग यूनिटें हैं जो विभिन्न स्तरों पर निर्माणाधीन हैं। शायद किसी के पास इसकी सटीक गिनती नहीं होगी, लेकिन तय है कि यह बेहद बड़ी है।

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यह भी सच है कि देश में मकानों की किल्लत है। हर एक कस्बे और शहर में, जहां बड़ी संख्या में बिना बिके हुए मकानों की भरमार है, वहां लाखों परिवार हैं जो मकान लेना तो चाहते हैं, लेकिन ले नहीं सकते हैं। ये गंभीर खरीददार हैं, जिनके पास एक अपार्टमेंट को खरीदने की क्षमता भी है, लेकिन उस तरह के नहीं जैसे बने हैं। ये बातें अजीब सी लगती हैं और बुनियादी आर्थिक तर्क के उलट भी हैं। यह ठीक वैसे ही है जैसे कि कार उद्योग सिर्फ बड़ी बीएमडब्ल्यू, मर्सिडीज और जगुआर ही बेचने की कोशिश करे, जबकि ज्यादातर लोग सस्ती कारें चाहते हों। फिलहाल देर सवेर उद्योगों को समझ आ जाता है कि मार्केट कहां है और यदि वे पैसा बनाना चाहते हैं तो उन्हें उसी के लिए उत्पाद तैयार करने होंगे।

सवाल यह उठता है कि आखिर यह बात बिल्डरों को क्यों समझ नहीं आ रही है? वास्तव में यहां पर भी कोई पहेली नहीं है। रीयल एस्टेट डेवलपर्स ने अपने उत्पाादों को अपनी मार्केट के अनुकूल कर लिया है। बात सिर्फ इतनी सी है कि यह मार्केट उन लोगों के लिए नहीं है जो असलियत में मकान चाहते हैं। बजाय यह उन निवेशकों के लिए है जिन्हें काला धन खपाने की जरूरत है और उस धन को बढ़ाना चाहते हैं। मकानों की लोकेशन से लेकर उनके डिजाइन करने का तरीका और उनके दामों को बढ़ाना सब कुछ प्रबंधित होता है। इन्हें बनाने से लेकर बेचने तक की सारी कवायद निवेशकों को ध्यान में रखकर की जाती है। जब तक इस काले बाजार को सफेद करने के लिए कोई चमत्कार नहीं होता है और हाउसिंग रेगुलेशन से जुड़े कानून गंभीरता से क्रियान्वित नहीं होते हैं, तब तक शायद ही कोई बड़ा बदलाव दिखे।
फंड का फंडा, धीरेंद्र कुमार
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