अर्थशास्त्र के नोबेल विजेता का सिद्धांत और आपका निवेश
लोग सिद्धांतों की बात करते हुए यह भूल जाते हैं कि निवेशक भी इंसान ही होते हैं और हमेशा बहुत समझदार इंसान की तरह ही फैसले नहीं लेते हैं।
अर्थशास्त्र की अवधारणा कहती है कि उपभोक्ता समझदार होता है। वह हमेशा सोच-समझकर फैसला लेता है। निवेशकों के मामले में भी यही धारणा है। लेकिन क्या ऐसा सच में होता है। क्या निवेशक हमेशा सही फैसला लेता है या नहीं। निवेशक भी आम इंसान ही होता है और वह भी अपनी भावनाओं से नियंत्रित होता है। भावनाओं के इसी बहाव में वह गलत फैसले भी करता है। निवेश करते समय इस बात को ध्यान रखना भी बेहद जरूरी है।
इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार रिचर्ड थेलर को मिला है। स्वभाव संबंधी अर्थशास्त्र में नया सिद्धांत देने वाले थेलर वही अर्थशास्त्री हैं, जिन्होंने एक बार अपने सहयोगियों को इस बात के लिए लताड़ा था कि वे लोग सिद्धांतों की बात करते हुए यह भूल जाते हैं कि निवेशक भी इंसान ही होते हैं। यह मजाक सी लगने वाली बात काफी हद तक सही भी है। अर्थशास्त्र में ज्यादातर मॉडल बेहद साधारण होते हैं और अर्थशास्त्री इस बात को मानने के लिए तत्पर रहते हैं कि वह मॉडल बहुत उपयोगी है। यह धारणा विज्ञान और इंजीनियरिंग से जुड़े लोगों से बिलकुल अलग है। विज्ञान से जुड़ा व्यक्ति कभी भी किसी सिद्धांत को अंतिम सत्य की तरह नहीं मानकर चलता है। इसी तरह निवेशक भी आम मानव होता है और हमेशा बहुत समझदार इंसान की तरह ही फैसले नहीं लेते हैं।
दशकों से निवेशकों से बातचीत के आधार पर मैं कह सकता हूं कि निवेश में बहुत समानांतर सी स्थितियां हैं और कुछ तो बहुत उलझाने वाली हैं। यह एक पहेली जैसा इसलिए है कि जब अर्थशास्त्री यह मान रहे होते हैं कि उपभोक्ता बहुत समझदारी से फैसला लेता है, ठीक उसी वक्त निवेशक यह सोचता है कि वह समझदार व्यक्ति वो खुद है। वस्तुत: अच्छी वित्तीय सलाह देने से पहले इस बात को समझना और उसके हिसाब से चीजों को इस तरह रखना होता है कि सामने वाला इस धारणा से बाहर आ सके। परेशानी की बात यह है कि बुरी वित्तीय सलाह देते हुए या बुरे फाइनेंशियल प्रोडक्ट बेचते हुए लोग अक्सर निवेशक की खुद को समझदार मानने की इस सोच का फायदा उठाते हैं।
एक बहुत अच्छी मनोवैज्ञानिक चाल का उदाहरण है सिस्टमेटिक इन्वेस्टमेंट प्लान या एसआइपी। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है कि निवेश करते हुए बड़ी समस्या यह नहीं है कि निवेश कहां किया जाए बल्कि निवेश करना और अच्छे-बुरे समय में निवेश करते रहना असल समस्या है। हम में से ज्यादातर लोग उस वक्त निवेश करते हैं, जब बाजार तेजी में होता है और बाजार में गिरावट दिखते ही निवेश निकालने लगते हैं। ज्यादातर निवेशक स्वाभाविक रूप से ऐसा करते हुए दिखते हैं क्योंकि यह अवधारणा बना दी गई है कि स्टॉक की कीमतों में गिरावट संकट का संकेत है। वास्तव में यह बेहद अतार्किक बात है। निवेशक के लिहाज से या किसी भी वस्तु के खरीदार के लिहाज से हमें कम कीमत का इंतजार करना चाहिए।
एसआइपी एक समाधान है लेकिन निवेशक इसे अक्सर बहुत तार्किक और ज्यादा रिटर्न का माध्यम समझते हैं। एसआइपी का मतलब होता है कि नियमित रूप से एक नियमित राशि का निवेश करना। आमतौर हर महीने इसमें निवेश किया जाता है। इसमें निवेश उतार-चढ़ाव से परे रहकर होता है, इसलिए जब बाजार नीचे होता है, तब निवेशक स्वाभाविक रूप से ज्यादा शेयर खरीद लेता है। इससे निवेशक की औसत खरीद कीमत नीचे रहती है और रिटर्न अच्छा मिलता है। यह निवेश का बुद्धिमानी भरा तरीका प्रतीत होता है और यह है भी। लेकिन असल में एसआइपी से मिलने वाले ऊंचे रिटर्न से एक साइकोलॉजिकल टिक समझी जा सकती है।
जब बाजार गिर रहा होता है, ज्यादातर निवेशक अपना निवेश रोक लेते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि या तो वे बाजार में आ रही गिरावट से डर जाते हैं या बाजार के और नीचे जाने का इंतजार करते हैं। वहीं एसआइपी निवेशकों में से ज्यादातर अपना निवेश जारी ही रखते हैं। एसआइपी को जारी रखने के लिए आपको कुछ करना नहीं होता बल्कि आपका कुछ नहीं करना ही आपसे सही काम करवा लेता है।
(इस लेख के लेखक हैं धीरेन्द्र कुमार जो कि वैल्यू रिसर्च के सीईओ हैं।)