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सरकार धान और गेहूं की जगह दलहनी व तिलहनी फसलों के सहारे पूर्ण खाद्य सुरक्षा पर देगी जोर

कृषि क्षेत्र में सुधार के दूसरे चरण में उपज की खरीद पर जोर दिए जाने की जरूरत है। तिलहनी फसलों की खरीद के लिए सरकारी एजेंसी नैफेड की तैयारी रहती है।

By Pawan JayaswalEdited By: Published: Fri, 25 Oct 2019 10:53 AM (IST)Updated: Fri, 25 Oct 2019 10:53 AM (IST)
सरकार धान और गेहूं की जगह दलहनी व तिलहनी फसलों के सहारे पूर्ण खाद्य सुरक्षा पर देगी जोर
सरकार धान और गेहूं की जगह दलहनी व तिलहनी फसलों के सहारे पूर्ण खाद्य सुरक्षा पर देगी जोर

नई दिल्ली सुरेंद्र प्रसाद सिंह। केंद्र सरकार ने धान और गेहूं की जगह वैकल्पिक दलहनी व तिलहनी फसलों के सहारे पूर्ण खाद्य सुरक्षा पर जोर देने का फैसला किया है। चालू रबी सीजन में फसलों की बोआई से पहले किसानों को इन फसलों की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार ने दलहनी व तिलहनी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में पर्याप्त वृद्धि की घोषणा की है। लेकिन घोषित एमएसपी को किसानों तक पहुंचाने की प्रणाली में सुधार करना अभी बाकी है।

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कृषि सुधार के दूसरे चरण में इसे मजबूत बनाया जा सकता है। फसल विविधीकरण का यह अभियान कृषि क्षेत्र में सुधार की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसी के तहत सरकार ने गेहूं के एमएसपी के मुकाबले दलहनी व तिलहनी फसलों के समर्थन मूल्य में ज्यादा वृद्धि की है। दरअसल, देश में गेहूं व चावल की पैदावार जरूरत से कहीं ज्यादा हो रही है, लेकिन दालें और खाद्य तेलों की जरूरतें घरेलू पैदावार से पूरी नहीं हो पाती हैं। इसके लिए सालाना लगभग एक लाख करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है।

सरकार ने चालू रबी सीजन की फसलों के लिए घोषित गेहूं के एमएसपी में मात्र 85 रुपये प्रति क्विंटल की वृद्धि की है जबकि तिलहनी व दलहनी फसलों के समर्थन मूल्य में 225-325 रुपये प्रति क्विंटल की वृद्धि की है। इसका उद्देश्य किसानों को तिलहन और दलहन की खेती को बढ़ावा देना है। गेहूं की पैदावार जहां 10 करोड़ टन होती है तो धान की 11 करोड़ टन से अधिक पर पहुंचती है। इसके मुकाबले दालों की कुल पैदावार 2.30 करोड़ टन होती है जिससे घरेलू मांग पूरी नहीं हो पाती है। जिसके लिए दालें आयात करनी पड़ती हैं।

इसी तरह तिलहन की लगातार घटती पैदावार और बढ़ती मांग एक गंभीर चुनौती है, जिससे निपटने के लिए आयात ही एकमात्र रास्ता है। खाद्य तेलों की सालाना कुल घरेलू मांग का लगभग 65 फीसद आयात करना पड़ता है। इसके लिए सरकारी खजाने 80-90 हजार करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है। इन जिंसों की आयात निर्भरता घटाने के लिए सरकार ने एक व्यापक योजना तैयार की है। इसके तहत ही दलहनी व तिलहनी फसलों की खेती को बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है।

इंडियन काउंसिल आफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (आइसीएआर) के डायरेक्टर जनरल डाक्टर त्रिलोचन महापात्र का कहना है ‘तिलहनी व दलहनी फसलों के लिए तकनीकी जानकारी व बेहतर इनपुट के साथ समर्थन मूल्य का होना जरूरी है। इसके सहारे इन फसलों की खेती को बढ़ावा मिल सकता है। पिछले दो सालों के दौरान दालों पर जोर दिया तो गया दलहन के मामले में देश आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ गया है।’ लेकिन कटाई सीजन के दौरान कीमतें बहुत नीचे आ जाने और सरकारी खरीद न होने किसान निराश होना स्वाभाविक है।

कृषि क्षेत्र में सुधार के दूसरे चरण में उपज की खरीद पर जोर दिए जाने की जरूरत है। खाद्य मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि दालों का बफर स्टॉक का गठन इसी क्रम में किया गया है। तिलहनी फसलों की खरीद के लिए सरकारी एजेंसी नैफेड की तैयारी रहती है। लेकिन खेती कम होने की वजह से विफल रही है, जिसे आगे बढ़ाने पर बल दिया जा रहा है।


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