निर्यात में कमी को अकेले ग्लोबल मंदी जिम्मेदार नहीं
नई दिल्ली [नितिन प्रधान]। तमाम प्रयासों और निर्यातकों को मिले प्रोत्साहनों के बावजूद पिछले वित्त वर्ष 2012-13 में देश का निर्यात अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच सका। दुनिया भर के बाजारों की हालत को देखते हुए ही इससे पूर्व वर्ष आंकड़े में बढ़ोतरी किए बिना 300 अरब डॉलर का लक्ष्य तय किया गया था। लेकिन अब यह लगभग स्पष्ट है कि निर्यात के इस आंकड़े को
नई दिल्ली [नितिन प्रधान]। तमाम प्रयासों और निर्यातकों को मिले प्रोत्साहनों के बावजूद पिछले वित्त वर्ष 2012-13 में देश का निर्यात अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच सका। दुनिया भर के बाजारों की हालत को देखते हुए ही इससे पूर्व वर्ष आंकड़े में बढ़ोतरी किए बिना 300 अरब डॉलर का लक्ष्य तय किया गया था। लेकिन अब यह लगभग स्पष्ट है कि निर्यात के इस आंकड़े को भी इस साल नहीं छुआ जा सकेगा।
ग्लोबल बाजारों में मंदी की दुहाई देते हुए सरकार ने बीते पूरे साल निर्यात बढ़ाने के तमाम उपाय किए। द्विपक्षीय वार्ताएं हुईं, निर्यातकों को प्रोत्साहन दिए गए। इसके बावजूद सरकार अमेरिकी और यूरोपीय संघ के हालात नहीं सुधरने का हवाला दे निर्यात में कमी का रोना रोती रही, जबकि दूसरे देश इन्हीं ठिकानों में इस दौरान अपने निर्यात को बढ़ाते रहे। यह जगजाहिर है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ देश के विदेश व्यापार में दो प्रमुख हिस्सेदार हैं। लेकिन सरकार मंदी के इन बाजारों में संभावनाएं पैदा करने की बजाय नए बाजारों पर ध्यान देती रही। इनमें भारत की पैठ तो बढ़ी, लेकिन कुल निर्यात को 2011-12 के स्तर पर भी बनाए रखने में सफलता नहीं मिली। इसके विपरीत सरकार ने बीते वित्त वर्ष में निर्यात बढ़ाने के लिए 5,000 करोड़ रुपये खर्च कर डाले। इसमें 1,300 करोड़ रुपये की ब्याज सब्सिडी भी है, जो निर्यातकों को दी गई। नतीजा अप्रैल से फरवरी, 2012-13 की अवधि में निर्यात का आंकड़ा 265 अरब डॉलर तक ही पहुंच सका। पूरे साल के आंकड़े सरकार 18 अप्रैल को जारी करेगी।
सरकार पूरे साल निर्यात में गिरावट के लिए अमेरिका और यूरोपीय संघ की मंदी को दोष देती रही। लेकिन इस सच का एक दूसरा पहलू भी है जिसे सरकार ने कभी नहीं स्वीकारा। अमेरिका और यूरोपीय संघ की मंदी में भारत तो इन देशों को अपना निर्यात नहीं बढ़ा पाया, लेकिन भारत के पड़ोसी देशों ने इसके बावजूद यहां अपने निर्यात में बढ़ोतरी करने में सफलता पाई।
सिर्फ गारमेंट उद्योग का ही अगर उदाहरण लें। इसमें परंपरागत रूप से भारत की पकड़ रही है। देश 2005 से 2012 तक अपने निर्यात में सिर्फ 170 प्रतिशत की ही वृद्धि कर पाया। वहीं, बांग्लादेश, वियतनाम, कंबोडिया जैसे देशों ने अधिकतम 566 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी दर्ज की। चीन तक ने 2012 में अमेरिका को किए जाने वाले निर्यात में आठ और यूरोपीय संघ को निर्यात में 20 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हासिल की।
निर्यात के आंकड़ों की यह तस्वीर साफ बयां करती है कि ग्लोबल बाजार में मांग की कमी नहीं, बल्कि सरकार की रणनीति ही लक्ष्यों के मुताबिक नहीं थी। जब बाकी देशों ने ग्लोबल मंदी के अनुकूल अपने निर्यात की लागत कम कर उसे प्रतिस्पर्धी बनाया। उसी वक्त भारतीय उद्योग और निर्यातक ऊंची ब्याज दरों व कच्चे माल की बढ़ी लागतों से जूझ रहे थे। निर्यात संगठनों की सिफारिश पर भी सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगी। अपैरल एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल के चेयरमैन एस शक्तिवेल ने वित्त मंत्री को पत्र लिखकर इन देशों में आयात के आसान नियमों का हवाला देते हुए कदम उठाने की मांग की थी।
लक्ष्य से भटकी रणनीति
-अन्य देशों ने तेजी से बढ़ाया अमेरिका, यूरोपीय संघ को निर्यात
-ऐसे देशों में बांग्लादेश, वियतनाम, कंबोडिया और चीन शामिल
-भारत का निर्यात लक्ष्य 5,000 करोड़ खर्च करके भी रहा दूर
-निर्यात बढ़ाने की केंद्र सरकार की रणनीति पर उठे सवाल
-लागत घटाने के बजाय दूसरी रियायतों पर रहा केंद्र का जोर