कोसी के रणबांकुरों ने तोड़ दिया था नमक कानून
सुपौल। कोसी के इलाके में सुपौल जिले के कर्णपुर गांव से शुरु किया था वतन के सिपाहियों ने न
सुपौल। कोसी के इलाके में सुपौल जिले के कर्णपुर गांव से शुरु किया था वतन के सिपाहियों ने नमक आंदोलन। 12 मार्च 1930 को गांधी जी ने नमक सत्याग्रह को लेकर अपने चुने हुए 78 अनुयायियों के साथ साबरमती आश्रम छोड़कर गुजरात के गांवों से होते हुए 200 मील दूर समुद्र तट पर स्थित दांडी तक की पैदल यात्रा की। अपने अनुयायियों के साथ वहां खुले ढ़ंग से कानून तोड़ते हुए नमक बनाया। गांधी की दांडी यात्रा के साथ देश वासियों में आमतौर पर राष्ट्रीय चेतना की लहर दौड़ गई। सरकार द्वारा कर लगाने के कारण रोजमर्रे की जरूरत की कीमत बढ़ गई थी। इसी बीच अप्रैल-मई 1930 की गर्मी में कांग्रेस के छोटे बड़े स्वयंसेवकों ने नमक कानून का उल्लंघन किया। सुपौल जिले के कर्णपुर गांव में सुपौल-सहरसा मार्ग से सटे हनुमान गढ़ी में राजेन्द्र मिश्र एवं रामबहादुर सिंह के नेतृत्व में सर्वप्रथम नमक बनाया गया। गंगा प्रसाद सिंह, शत्रुघ्न प्रसाद सिंह, चित्रधर शर्मा, लहटन चौधरी, साजेन्द्र मिश्र, चंद्र किशोर पाठक आदि क्रांतिकारियों ने मिलकर नमक बनाया। जब नमक कानून तोड़ा जा रहा था उसी समय गोरी फिरंगी का आक्रमण हुआ और ये क्रांतिकारी गिरफ्तार कर लिये गये।
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तोड़ दी गर्दन फिर भी नहीं झुके लाल बाबाजी
कोसी की मिट्टी के ऐसे लाल जिनके मजबूत इरादों के आगे फिरंगियों की एक न चली। उनके देश प्रेम के संकल्प ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिये। जिले के कर्णपुर गांव निवासी शिव नारायण मिश्र उर्फ लाल बाबाजी ने अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्र के नाम न्योछावर कर दिया। कोसी क्षेत्र में नमक आंदोलन का बिगुल उन्हीं के नेतृत्व में उनके ही पैतृक गांव कर्णपुर से फूंका गया। भारत छोड़ो आंदोलन के वे नायक रहे। लाल बाबाजी स्वतंत्रता आंदोलन के विशेषदूत के रूप में जाने जाते थे। गांधी और सुभाष के संदेशों को गांव-गांव पहुंचाया करते थे। अंग्रेजी हुकूमत को उन्होंने नाक में दम कर रखा था। कई बार उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। तरह-तरह की यातनाएं उन्हें झेलनी पड़ी। अंग्रेजों ने पैसे को आग में लाल कर उनके पूरे शरीर को दाग दिया था और उनकी गर्दन तोड़ दी गई जो जीवन पर्यन्त सीधी न हो सकी परन्तु फिरंगी उन्हें झुका नहीं सके। आजादी मिली लाल बाबाजी को भी सम्मान के साथ राजनीतिक पद के प्रस्ताव मिले लेकिन किसी पद को उन्होंने कभी नहीं कबूला। जीवन पर्यन्त वे दूसरों की सेवा में लगे रहे। अफसोस कि आज उनकी स्मृति भी शेष नहीं।