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शांति व सामाजिक समरसता का प्रतीक है सार्वजनिक दुर्गा मंदिर

आदि शक्ति माता दुर्गा का षष्ठम रूप श्री कात्यायिनी के नाम से जाना जाता है। महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदि शक्ति उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म ली थी। इसलिए वे कात्यायिनी कहलाती हैं। नवरात्र के छठे दिन इनकी पूजा-अर्चना की जाती है। इस बारे में आचार्य पंडित धर्मेंद्रनाथ मिश्र ने बताया कि भगवती कात्यायनी की भक्ति व उपासना से साधक को धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चारों फलों की प्राप्ति होती है।

By JagranEdited By: Published: Thu, 03 Oct 2019 06:24 PM (IST)Updated: Fri, 04 Oct 2019 06:28 AM (IST)
शांति व सामाजिक समरसता का प्रतीक है सार्वजनिक दुर्गा मंदिर
शांति व सामाजिक समरसता का प्रतीक है सार्वजनिक दुर्गा मंदिर

संवाद सूत्र, छातापुर(सुपौल): शांति, अहिसा व सामाजिक समरसता का प्रतीक है छातापुर बाजार के बीचोंबीच स्थित सार्वजनिक दुर्गा मंदिर। जहां प्राय: दुर्गा मंदिरों में बलि प्रथा का प्रचलन है। वहीं इस मंदिर के स्थापना काल से ही यहां अहिसा परमो धर्म: के सिद्धान्त का अक्षरश: पालन करते हुए वैष्णव पद्धति से मां जगत जननी की पूजा-अर्चना की जाती रही है। ग्रामीणों की मानें तो इस मंदिर की महिमा अपरंपार है। सच्चे दिल से माथा टेककर मन्नत मांगने वालों की हर मनोकामना माता पूर्ण करती हैं। मंदिर के अतीत की बात करें तो यहां वर्ष 1965 से अनवरत पूजा-अर्चना हो रही है। इससे पूर्व वर्तमान धर्मशाला के समीप स्थित प्राचीन पीपल के वृक्ष तले टीन के अस्थाई शेड में माता की पूजा अर्चना होती थी। बुजुर्गों की मानें तो 1960 के दशक में छातापुर थाना के तात्कालीन थानाध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद सिंह जो काफी धार्मिक प्रवृति के थे उन्होंने दैवीय प्रेरणा से बाजार के प्रबुद्धजनों के बीच माता रानी का मंदिर स्थापित करने की इच्छा जाहिर की। इससे पूर्व मुख्य बाजार से उत्तर पावर ग्रिड के समीप बसंती मेला का आयोजन होता था जहां प्रतिमा स्थापित कर दुर्गा पूजा मनायी जाती थी। वहीं प्रतापगंज मोड़ के समीप भोला सिंह के घर के समीप भी प्राचीन मैया स्थान के निकट दुर्गा पूजा होती थी। परंतु बाजार में कहीं भी स्थाई दुर्गा मंदिर नहीं था। लिहाजा ग्रामीणों के सहयोग से आनन-फानन में बाजार स्थित पीपल के वृक्ष तले टीन का अस्थाई शेड तैयार कर पूजा अर्चना प्रारम्भ हुई। इसमें बाजार के गणमान्य स्व अजीत सिंह बच्छावत का विशेष योगदान रहा। ज्योतिषाचार्य पंडित लीलानंद मिश्र के द्वारा करीब तीन चार साल उक्त जगह पर पूजा अर्चना होने के उपरांत जदिया बलुआ पथ के निर्माण के क्रम में मंदिर को स्थानांतरित करने की समस्या आ पड़ी। जिसके बाद गांव के सभी आम व खास लोगों की बैठक बुलाई गई जिसमें सर्वसम्मति से वर्तमान स्थल पर मंदिर निर्माण की सहमति बनी। बैठक के उपरान्त सभी इच्छुक लोगों ने यथा शक्ति तन मन धन से सहयोग करते हुए मंदिर निर्माण कार्य पूर्ण कराया। तब से यहां प्रतिवर्ष शारदीय नवरात्र के अवसर पर माता की भव्य प्रतिमा स्थापित कर पूजा-अर्चना की जाती है। सुखदेव प्रसाद भगत, ठाकुर प्रसाद भगत, चंद्रदेव प्रसाद भगत, राजकुमार भगत, शिशुपाल सिंह बच्छावत, विजय प्रसाद भगत, भोला सिंह, रूपलाल मुखिया समेत कई अन्य लोग हैं जो मंदिर के स्थापना काल से अबतक यहां पूजा व्यवस्था में अपनी महती भूमिका निभाते आ रहे हैं। वर्तमान में मंदिर के पुराने ढांचे को तोड़कर विशाल और आकर्षक बना दिया गया है। वहीं मंदिर परिसर को भी कीमती पत्थरों एवं टाइल्स की मदद से बेहतरीन रूप दिया जा चुका है। मंदिर कमेटी के वर्तमान अध्यक्ष गौरीशंकर भगत बताते हैं कि आम लोगों के सहयोग से मंदिर का सौंदर्यीकरण कराया जा रहा है जिसके तहत मंदिर के बाहर अत्याधुनिक शेड लगवाने का प्रस्ताव है। वहीं मंदिर में संगमरमर की स्थाई प्रतिमा लगवाने पर भी विचार-विमर्श चल रहा है।

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