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कभी पाट में नाम अब प्लास्टिक का कंठा और गरदाम

सुपौल। 1980 तक सुपौल से पाट का निर्यात विदेशों को होता था। किसानों की यह नकदी खेती थी। ख

By JagranEdited By: Published: Sat, 03 Nov 2018 11:38 PM (IST)Updated: Sat, 03 Nov 2018 11:38 PM (IST)
कभी पाट में नाम अब प्लास्टिक का कंठा और गरदाम

सुपौल। 1980 तक सुपौल से पाट का निर्यात विदेशों को होता था। किसानों की यह नकदी खेती थी। खेती इतनी अधिक होती थी कि जिला मुख्यालय में जूट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (जेसीआइ) द्वारा तो पाट की खरीदारी की ही जाती थी इसके अलावा दस से अधिक गद्दियां थी जहां व्यवसायियों द्वारा जूट खरीदा जाता था। इसमें हजारों लोगों को रोजगार मिलता था। धीरे-धीरे खेती बंद होती गई और अब तो गोव‌र्द्धन पूजा में मवेशियों के गले में पाट की रस्सी नहीं दिखती। कभी जिस स्थान का नाम पाट को लेकर था वहां मवेशियों के गले में कंठा और गरदाम प्लास्टिक के होते हैं। गोव‌र्द्धन पूजा को लेकर बाजार में सिर्फ प्लास्टिक की रस्सियां ही बिक रही है।

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अपने से लोग तैयार करते थे रस्सियां

गोव‌र्द्धन पूजा के दिन मवेशियों को स्नान कराकर रस्सी बदले जाने की परंपरा है। यह पूजा दिवाली के दूसरे दिन मनाई जाती है। पहले जब पाट की खेती होती थी तो दुर्गा पूजा समाप्त होते ही किसान रस्सियां बनाने में जुट जाते थे। जब भी फुरसत मिलती थी लकड़ी के बने टेरुआ पर रस्सी बांटते थे। रस्सी तैयार होने के बाद इसे रंगा जाता था और मवेशियों को पहनाया जाता था।

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बंद हुई खेती तो प्लास्टिक को मिल गया बाजार

पाट का उचित मूल्य नहीं मिलने और धान-गेहूं की खेती सुलभ होने के बाद किसान इस नकदी फसल को भूल गए। 1975-76 तक पाट की खेती व्यापक पैमाने पर की जाती थी। चन्नी, पटुआ, तोसा, कशमीरा आदि प्रजाति के पाट की खेती यहां के किसान अधिक करते थे। कोसी का इलाका होने के कारण मिट्टी बलुआही है जो पाट की खेती के लिए उपयुक्त माना जाता है। जूट की अत्यधिक उत्पादन देख सरकार द्वारा इसकी खरीदारी के लिए जिला मुख्यालय सहित राघोपुर, त्रिवेणीगंज आदि स्थानों पर जेसीआइ के गोदाम का निर्माण कराया गया। सैकड़ों व्यवसायी भी इस कार्य में जुटे थे। गद्दियों पर पाट खरीद के बाद इसका मशीन से बंडल तैयार किया जाता था और कोलकाता भेजा जाता था जहां से यह विदेशों को निर्यात होता था। किसानों को सबसे अधिक परेशानी पाट के भंडारण को लेकर थी। पाट जगह बहुत छेकता है। दूसरा पाट को आग से अत्यधिक खतरा रहता है इसलिए किसानों को इसके तैयार होते ही बेचने की मजबूरी थी। लिहाजा किसानों को उचित लाभ नहीं मिल पाता था और व्यापारी मालामाल होते थे। नतीजा हुआ कि किसान धीरे-धीरे पाट की खेती से दूर होते चले गए।

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अब प्लास्टिक का ही सहारा

पाट की खेती बंद होते ही जूट से जुड़े व्यापार सिमटते गए और इस व्यवसाय से जुड़कर जीविका अर्जन करनेवाले कामगार बेकार हो गए। किसानों को मवेशियों के रस्सी के लिए प्लास्टिक का ही सहारा लेना पड़ रहा है। आलम यह है कि दिवाली के मौके पर जूट के संठी से बनाया जाने वाला उक काफी महंगा बिका करता है।


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